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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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6:15 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग क्रमश : श्लोक ३३-३४ : अर्जुन का समत्वयोग के साधन को कठिन कहना : अर्जुन उवाच : य : अयम् योग : त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन । एतस्य अहम् न पश्यामि चंचलत्वात् स्थितम् स्थिराम् ॥३३॥ समभाव का योग आपने कहा जो हे मधुसूदन ! तुमने है जो । उसको स्थिर करने का साधन नहीं देखता देखकर मन की नित्य चंचलता ॥३३॥ चंचलम् हि मन : कृष्ण प्रमाथि बलवत् दृढम् । तस्य अहम् निग्रहम् मन्ये वायो : इव सुदुष्करम् ॥३४॥ हे कृष्ण ! मन चंचल है ,विनाशकारी है बलशाली है, अत्यंत सुदृढ़ है । दुष्कर वायु रोकना जैसा उसको क़ाबू करना वैसा ॥३४॥ श्लोक तेंतीस का “योग : त्वया प्रोक्त : साम्येन” से साम्य से “साम्य-बुद्धि “से प्राप्त होने वाला कर्मयोग ही अपेक्षित है । क्योंकि दूसरे अध्याय में भगवान ने ही कहा है : सिद्धयसिद्धयो : सम : भूत्वा समत्वम् योग उच्यते ॥४८/ अध्याय २॥ “चंचलम् हि मन : कृष्ण “ श्री भगवान ने दूसरे अध्याय के चालीसवें श्लोक में कहा: इन्द्रियाणि मन : बुद्धि: अस्य अधिष्ठानम् उच्यते । एतै : विमोहयति एष : ज्ञानम् आवृत्य देहिनम् ॥४०/अध्याय २॥ वास्तव में काम(कामना) के रहने के पाँच स्थान बताये गये हैं : इन्द्रियों,मन , बुद्धि , विषय और स्वयं जीवात्मा । वास्तव में काम स्वयं में रहता है और इन्द्रियों, मन , बुद्धि तथा विषयों में उसकी प्रतीति मात्र होती है। इसीलिए स्वयं में काम रहने के कारण इन्द्रियाँ साधक के मन को व्यथित करती हैं । इसी कारण पिछले श्लोक में साधक को समत्व-योग में स्थित रहने के लिए कहा गया है । Paavan Teerth.
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