श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे- रणक्षेत्रे :अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक २९-३० : ब्रह्मानन्द में अवस्थित योगी और भगवान का तादात्म्य:: सर्वभूतस्थ आत्मानम् सर्वभूतानि च आत्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन : ॥२९॥ सभी भूत(प्राणी) मुझ में हैं रहते और सब भूतों में मैं हूँ रहता । योगी अनन्त-चेतन में संयुत सभी जगह समदर्शी रहता ॥२९॥ य : माम् पश्यति सर्वत्र सर्वम् च मयि पश्यति । तस्य अहम् न प्रणश्यामि स : च मे न प्रणश्यति ॥३०॥ देखा करता जो मुझको सबमें और सबको जो देखता है मुझमें उसके लिए मैं न अदृश्य कभी और मेरे लिए यह अदृश्य नहीं ॥३०॥ परब्रह्म को जानने वाले महापुरुष की स्थिति: ईशावास्योपनिषद् ऐसे योगी का वर्णन इन शब्दों में करता है: यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मनि एव अनुपश्यति । सर्वभूतेषु च आत्मानम् ततो न विजुगुप्सते ॥६॥ जो मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों को परमात्मा में ही निरन्तर देखता है और संपूर्ण प्राणियों में परमात्मा को देखता है उसके पश्चात वह कभी भी किसी से घ्रणा नहीं करता । ऐसे ही समदृष्टि वाले सिद्ध पुरुषों के लिए कहा: विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि च एव श्वपाके च पण्डिता : समदर्शिन : ॥१८/अध्याय ५॥ संत ज्ञानेश्वर ने तो जो़र देकर कहा है: जो व्यक्ति एकत की भावना से मुझे ही जीवमात्र में समान रूप से मिला हुआ जानकर , केवल मेरा ही स्वरूप देखता है, वह व्यक्ति इस प्रकार की उक्ति को एकदम व्यर्थ साबित कर देता है कि “यही मैं हूँ “। चाहे कोई सा मार्ग हो, निष्काम कर्म, ज्ञान अथवा भक्ति मार्ग सबका ध्येय एक ही है: उमा जे रामचरन रत विगत काम, मद, क्रोध। निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं विरोध ॥११२ख॥ उत्तरकांड ॥ रामचरितमानस