श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग। : क्रमश : श्लोक ४३-४४। : योगमार्गी की पुनर्जन्म उपलब्धि : तत्र तम् बुद्धिसंयोगम् लभते पौर्वदेहिकम् । यतते च तत: भूय : संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥४३॥ मुख्य बात है परमात्मा को पाने के लिए आवश्यकता है निरन्तर “अभ्यासेन च वैराग्येन्” की तो परमात्मा की कृपा से सफलता निश्चित है । पूर्व-जन्म के प्रयास की प्राप्ति से इस जन्म में समत्वबुद्धि योग को । पहले से अधिक प्रयत्न कर प्राप्त कर लेता परमात्म - सिद्धि को ॥४३॥ पूर्वाभ्यासेन तेन एव ह्रियते हि अवश : अपि स : । जिज्ञासु : अपि योगस्य शब्दब्रह्म अतिवर्तते ॥४४॥ जब योग का जिज्ञासु तक वेदों में कहे सकाम कर्मों से हो जाता विमुख । तब पूर्वजन्म का अभ्यासरत योगी तो अवश सा खिंचा चला जाता समत्वयोग में ॥४४॥ “शब्दब्रह्म अतिवर्तते”का स्पष्टीकरण : ब्रह्म का वर्णन : १.”आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगमअसगावा॥ बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना कर बिनु करम करइ बिधि नाना आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥ तन बिनु परस नयन बिनु देखा ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ॥ असि सब भाँति अलौकिक करनी । महिमा जासु जाइनहिं बरनी॥ जेहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान ॥११८/बालकांड/ रामचरितमानस यह है एक झाँकी उस ब्रह्म की जिसका वर्णन निगम/ वेद , करते हैं । इसी के लिए श्री गीता ने कहा “शब्दब्रह्म “ और इसी को योगी “अतिवर्तते” : पार करके ब्रह्म सेएकात्म स्थापित कर लेता है । ब्रह्मलीन हो जाता है । २.द्वैत को मिटाने के लिए भक्त योगी : (क) स्थूल रूप में मूर्ति की आराधना (ख) कुछ और कम स्थूल: यज्ञ के हवनकुंड में प्रज्ज्वलित अग्नि (ग) नाद-ब्रह्म : जो योग और वेद- वाक्य ,जिसके लिए श्रुति शब्द का प्रयोग किया जाता है (घ) सामवेद की शाखा मैत्रेयुपनिषद् में ब्रह्म के विषय में चर्चा करते हुए कहा है: सर्वदा समरूपो ऽस्मि शान्तोऽस्मि पुरुषोत्तम : । एवं स्वानुभवो यस्य सोऽहमस्मि न संशय : ॥२४/ अध्याय ३॥ (मैं)सर्वदा समरूप एवं शान्त परमात्मा हूँ ।जिसका इस प्रकार से स्वानुभव है, वह ब्रह्म निश्चित ही मैं हूँ ।इसमें किसी भी तरह का संशय नहीं है । Paavan Teerth.