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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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8:25 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक १३ : योग के लिए शरीर की स्थिति: समम् कायशिरोग्रीवम् धारयन् अचलम् स्थिर : । सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रम् स्वम् दिश : च अनवलोकयन् ॥१३॥ शरीर, सिर और गर्दन को सीधा अचल स्थापित कर । दिशाओं को न देख कर दृष्टि को नासिका के अग्रभाग पर केन्द्रित करे ॥१३॥ ध्यानयोग : परमात्मा को पाने की राह: श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित ध्यानयोग कोरा हठयोगियों की योग-साधना नहीं है अपितु यह परमात्म-तत्व की ओर ले जाने वाला एक पड़ाव है । गीता का वर्णन कृष्ण-यजुर्वेदीय शाखा के श्वेता- श्वतरोपनिषद् के सन्निकट है।जहाँ वर्णन आता है: त्रिरुन्नतं स्थाप्य समम् शरीरम् ह्रदीन्द्रियाणि मनसा संनिरुध्य ब्रह्मोडुपेन प्रतरेतविद्वान्स्त्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि ॥८/अध्याय २॥ विद्वान पुरुष को चाहिए कि वह सिर ,ग्रीवा और वक्षस्थल इन तीनों को सीधा और स्थिर रखे। वह उसी दृढ़ता के साथ संपूर्ण इन्द्रियों को मानसिक पुरुषार्थ कर अन्त:करण मे सन्निविष्ट करे और ॐकार रूप नौका द्वारा संपूर्ण प्रवाहों से पार हो जाए । ऐसे ही स्थान और आसन के बारे मैं : समे शुचौ शर्करावह्निवालुका- विवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभि: मनोनुकूले न तु चक्षुपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत् ॥१०/अध्याय २॥ साधक को चाहिए कि वह समतल और पवित्र भूमि, कंकड़, अग्नि तथा बालू से रहित , जल के आश्रय और शब्द आदि की दृष्टि से मन के अनुकूल , नेत्रों को पीड़ा न देने वाले (तीक्ष्ण आतप से रहित) गुहा आदिआश्रय स्थल में मन को ध्यान के निमित्त अभ्यास में लगाए । Paavan Teerth.
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