एक ग़ज़ल- आँख से ओझल है, पर वो देखता है दोस्तो, जो दिया उसने, वो कर्मों से सिवा है दोस्तो। जो है तुम में, वो है मुझमें, देखना है देख लो, आत्मा, जल, क्षिति, गगन, पावक, हवा है दोस्तो। कितने पैगम्बर हैं भेजे उसने, फिर भी क्यूँ यहाँ ? आदमी अब तक गुनाहों में फँसा है दोस्तो। काम को जो कर रहा है, मान के पूजा, उसे, हर बुलंदी के लिए रस्ता मिला है दोस्तो। क्यूँ क़यामत के मुझे तुम, अद्ल से बहका रहे, ज़िन्दगी में भी, गुनाहों की सज़ा है दोस्तो। क्या कभी मुमकिन है, अहसां का उतरना सोच लो, उसका जो तुम को, बिना मांगे मिला है दोस्तो। क्यूँ ये नाटक कर रहे हो, जिस्मो-जां होते हुए, कर्म को पूजा, तो धर्मों ने कहा है दोस्तो। हाथ की रेखाएं तो, बनती- बिगड़तीं कर्म से, सब ने कर्मों से ही, क़िस्मत को लिखा है दोस्तो। इश्क़ से दुनिया बनी है, इश्क़ से क़ायम है यह, इश्क़ के ही नूर से, हर गुल खिला है दोस्तो। एक ही रब ने बनाया सबको यदि कहते हो तुम, व्यक्तियों के बीच क्यों यह फ़ासला है दोस्तो, 'Mahir'