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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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6:52 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ४१-४२ : श्री भगवान का अर्जुन के: कच्चित् न उभयविभ्रष्ट : छिन्नाभ्रम इव नश्यति ।३८ का पूर्वार्द्ध का समाधान : प्राप्य पुण्यकृताम् लोकान् उषित्वा शाश्वती: समा : । शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे योगभ्रष्ट : अभिजायते ॥४१॥ प्राप्त कर पुण्यशीलों के लोकों को निवास कर बहुत बरसों तक वहाँ । योगभ्रष्ट- साधक जगत में जन्मता श्रीमान पुरुषों के यहाँ ॥४१॥ अथवा योगिनाम् एव कुले भवति धीमताम् । एतत् हि दुर्लभतरम् लोके जन्म यत् ईदृशम् ॥४२॥ अथवा जन्म लेता वह ज्ञानी योगी पुरुषों के कुल में । जन्म ऐसा प्राप्त होना जो कि अति दुर्लभ जगत में ॥४२॥ श्री भगवान का : न अमुत्र विनाश : तस्य विद्यते का स्पष्टीकरण : श्लोक इकतालीस और बयालीसवें में एक क्रमिक विकास दिखाई देता है । योग पथ से भटका हुआ योगी यदि अपनी साधना के चरम पर पहुँच कर यदि ब्रह्म-मग्न नहीं होता तो यदि उसकी मृत्यु साधना के प्रारंभ में ही हो जाती है तो वह जो लोक पुण्यशील लोगों को प्राप्त होते हैं, उन स्वर्ग आदि लोकों में जाकर शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों के कुल में जन्म लेकर अगले जन्म में अपनी साधना फिर प्रारम्भ कर देता है ।अथवा कह कर बयालीसवें श्लोक में चर्चा उन पहुँचे हुए योगियों की है जो लक्ष्य के अत्यन्त निकट थे और विचलित हो गए ।ऐसे योगी सीधे अगले जन्म में ज्ञानवान योगियों के कुल में जन्म लेकर ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं । इसके समर्थन में मुण्डक उपनिषद का यह वाक्य समीचीन है: “स यो ह वै तत्परमम् ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित्कुले भवति ॥३/२/९ ॥ यह बिल्कुल सच्ची बात है कि जो कोई भी उस परब्रह्म परमात्मा को जान लेता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है ।उसके कुल में अर्थात उसकी संतानों में कोई भी व्यक्ति ब्रह्म को न जाननेवाला नहीं होता । आदि Paavan Teerth.
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