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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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6:12 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे ::अध्याय ६ : आत्मसंयम। योग : क्रमश : श्लोक ३१-३२ : सर्वभूतस्थितम् य : माम् भजति एकत्वम् आस्थित : । सर्वथा वर्तमान : अपि स : योगी मयि वर्तते ॥३१॥ एकीभाव हुआ जो नर सब भूतों में मुझे जानकर करता मेरा भजन निरन्तर । सब प्रकार से सब कुछ करता योगी मुझ में सदा बरतता ॥३१॥ आत्मौपम्येन सर्वत्र समम् पश्यति य :अर्जुन । सुखम् वा यदि वा दु:खम् स : योगी परम : मत : ॥३२॥ हे अर्जुन ! अपनी भाँति सभी को वह देखा करता है सबको । सुख में, दु:ख में, दोनों में ही जो रहता समान: परम श्रेष्ठ वह है योगी ॥३२॥ योगी की जन-कल्याणकारी सम दृष्टि: भक्त की इसी स्थिति का वर्णन करते हुए महाकवि तुलसीदास का स्पष्ट वक़्तव्य : सर्वभूतस्थितम्_______ सियाराम मय सब जग जानी। करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी ॥ आत्मौपम्येन सर्वत्र _____[ निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं विरोध ॥ प्राणिमात्र में एक ही आत्मा है, यह दृष्टि सांख्य और कर्मयोग,दोनों मार्गों में एक-सी है परंतु सांख्य और हठयोगी, दोनों को ही सब कर्मों का त्याग इष्ट है, इसलिए वे व्यवहार में उस साम्य-बुद्धि के उपयोग का मौक़ा ही नहीं आने देते । श्रीमद्भगवद्गीता का कर्मयोगी ऐसा न कर, अध्यात्मज्ञान से प्राप्त हुई इस साम्य बुद्धि का व्यवहार नित्य कर, जगत के सभी काम लोकसंग्रह के लिए किया करता है । इसी को अध्याय के अंत में उपसंहार करते हुए कहा है: तपस्विभ्य : अधिक: योगी ज्ञानिभ्य : अपि मत : अधिक : कर्मिभ्य : च अधिक : योगी तस्मात् योगी भव अर्जुन ॥४६॥ यह योगी है गीताका कर्मयोगी। 'Paavan Teerth.'
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