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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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6:26 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ३७-३८ अर्जुन उवाच : अयति : श्रद्धया उपेत : योगात् चलितमानस : । अप्राप्य योगसंसिद्धिम् काम् गतिम् कृष्ण गच्छति ॥३७॥ असंयमी होने से विचलित जिसका हुआ मन योग से पर फिर भी श्रद्धा है जिसकी योग में । योग में सिद्धि न पा हे कृष्ण ! क्या गति उसकी प्रभो ॥३७॥ कच्चित् न उभयविभ्रष्ट : छिन्नाभ्रम् इव नश्यति । अप्रतिष्ठ : महाबाहो विमूढ : ब्रह्मण : पथि : ॥३८॥ क्या ऐसे में भ्रष्ट दोनों ओर से भगवत् प्राप्ति के मार्ग में मोहित हुआ, आश्रय रहित साधक हो जाता नहीं छिन्न-भिन्न नीरद-खंड सा ॥३८॥ अर्जुन के भयाकुल मन की दशा: योग-सिद्धि के विषय में पूर्व में श्लोक तैंतीस-चौंतीस में मन की चंचलता के विषय में जो शंकायें व्यक्त की थीं वे श्री भगवान के ढाढ़स के बाद भी , उसको महाबाहो कहकर संबोधित करने के पश्चात भी पूरी तरह विनिष्ट नहीं हुई और वह प्रतिउत्तर में श्री भगवान को ही महाबाहो कहकर संबोधित करते हुए कहने लगा कि आपने जो कहा कि असंयत मन वाले के लिए यह योग- साधन दुष्प्राप्य है तो ऐसे में श्रद्धा रहते भी यदि मेरा मन भटक गया तो मेरा क्या होगा ? नीर-भरे बादल के विशाल मेघ-खंड से छूटा हुआ क्या मैं दोनों ओर से नष्ट हो जाऊँगा? न खुदा ही मिला न विसालेसनम, न यहाँ का रहा। न वहाँ का रहा । अथवा कवि तुलसीदास का यह कथन : तन सुचि, मन रुचि, मुख कहौं “जन हौं सिय-पी को” केहि अभाग जान्यो नहीं, जो न होइ नाथ सों नातो-नेह न नीको॥१॥२६५ पद: विनयपत्रिका 'Paavan Teerth '
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