श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ३५-३६ : श्री भगवान उवाच : असंशयम् महाबाहो मन : दुर्निग्रहम् चलम् । अभ्यास तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥३५॥ हे महाबाहो ! कुछ भी संशय नहीं कि अति मुश्किल है चंचल मन को निग्रह करना । पर हे कौन्तेय ! करकें नित अभ्यास, विरागी होकर संभव है वैसा कर पाना ॥३५॥ असंयतात्मना योग : दुष्प्राप : इति मे मति : । वश्यात्मना तु यतता शक्य : अवाप्तुम् उपायत : ॥३६॥ मन जिसका है नहीं स्ववश में मेरे मत में उसके लिए कठिन है योग प्राप्त कर पाना । पर जिसके वश में मन है, यत्नशील है साधन रत है, उसको सहज प्राप्त होता है ॥३६॥ अर्जुन की चंचल मन को निग्रह करने की असंभावना का उत्तर: समत्वयोग की चरम अवस्था की बात सुनकर अर्जुन को लगा कि मन के चंचल स्वभाव के कारण उसके लिए यह प्राप्त करना कठिन होगा । इसके उत्तर में अर्जुन को साहस देते हुए श्री भगवान कहते हैं कि निश्चय ही मन पर विजय पाना कठिन अवश्य है पर तुम तो महाबाहो हो और कौन्तेय हो । कुन्ती ने तो कितनी ही भयावह परिस्थितियों का सामना असीम धैर्य से किया है और कभी विचलित नहीं हुई, तुम उसके पुत्र कौन्तेय हो । इस मन को सहज ही अभ्यास और वैराग्य से काबू किया जा सकता है, जिसमें तुम निश्चय ही समर्थ हो । Paavan Teerth