श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे :अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक २२ : योग में स्थित योगी के लिए इससे बड़ा कोई लाभ नहीं और कोई ऐसा दु:ख नहीं जो उसे विचलित कर सके : यम् लब्ध्वा न अपरम् लाभम् मन्यते न अधिकम् तत : । यस्मिन् स्थित: न दु:खेन गुरुणा अपि विचाल्यते ॥२२॥ जिसे करके प्राप्त गिनता नहीं उससे बडा कुछ लाभ दूजा है कभी । उस पूर्णता को प्राप्त योगी को विचलित न करता दु:ख भारी भी कभी। ॥२२॥ संदर्भ : पिछले श्लोक के संदर्भ में जहाँ योगी की समाधि स्थिति को “सुखम् आत्यान्तिकम्” कहा गया, लेकिन उसके साथ ही दो और विशेषण ,”बुद्धिग्राहम् और अतीन्द्रियम्” भी जोड़े गए । इसका सीधा अर्थ है कि ऐसा योगी प्रकृति के सभी कार्यकलापों से ऊपर उठ गया है और उसके लिए परमात्म- सुख से बड़ा न कोई अन्य सुख है और न प्रकृति-जन्य ऐसा कोई दुख ही है जो उसे विचलित कर सके ! 'Paavan Teerth '