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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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7:05 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ४६ : योगी भव अर्जुन : तपस्विभ्य : अधिक : योगी ज्ञानिभ्य : अपि मत : अधिक: । कर्मिभ्य : च अधिक : योगी तस्मात् योगी भव अर्जुन ॥४६॥ मेरे मत में योगी तपस्वियों, ज्ञानियों । और सकाम- कर्मियों से भी अधिक श्रेष्ठ है कहीं इसलिए हे अर्जुन ! तू योगी हो ॥४६॥ क्यों कहा”तू योगी हो जा” तपस्वी , ज्ञानी और सकाम-कर्मी सभी स्व- केन्द्रित और केवल अपना स्वार्थ साधने वाले हैं, जबकि निष्काम कर्म योगी अपनी आत्मा को सबमे देखता है और बाह्य दृष्टि से केवल लोक- संग्रह के लिए कर्म करता है । योगी की पहचान के लिए देखिए इसी अध्याय के श्लोक २९, ३० और ३१ । सर्वभूतस्थम् आत्मानम् सर्वभूतानि च आत्मनि । ईक्षते येगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन : ॥२९ ॥ आदि श्लोक । अध्याय का अन्तिम श्लोक फिर इसी विचार की पुष्टि करता है । Paavan Teerth.
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