श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ४५ : योगी को परमात्म प्राप्ति : प्रयत्नात् यतमान : तु योगी संशुद्धिकिल्विष : । अनेकजन्मसंसिद्ध : तत : याति पराम् गतिम् ॥४५॥ पिछले अनेक जन्मों का संस्कारी संपूर्ण पापों से रहित योगी । प्रयत्न और अभ्यास में रह निरत तत्काल पा लेता परम गति ॥४५॥ “याति पराम् गति “ के पा लेने पर योगी को न इस शरीर और न इस संसार से कुछ लेना-देना रहता है । देखिए रामचरितमानस में ऐसा भक्त स्वयं परमात्मा से क्या कहता है: बाली : प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोर ॥९/ किष्किन्धा कांड सुनत राम अति कोमल बानी । बालि सीस परसेउ निज पानी॥ अचल करौं तनु राखहु प्राना । बालि कहा सुनु कृपानिधाना ॥ जन्म जन्ममुनि जतन कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं ॥ मम लोचन गोचर सोइ आवा । बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा ॥ ———————— मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही ॥ श्रीमद्भगवद्गीता भी इस परमगति के बारे में कहती है: बहूनाम् जन्मनाम् अन्ते ज्ञानवान माम् प्रपद्यते । वासुदेव : सर्वम् इति स : महात्मा सुदुर्लभ : ॥१९/ अध्याय ७॥ Paavan Teerth.