Pavan Kumar Paavan Personal Blog Pavan Kumar Paavan Personal Blog Pavan Kumar Paavan Personal Blog
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असग़र हुसैन ‘असग़र’ गौंडवी असग़र हुसैन ‘असग़र’ गौण्डा के बाशिन्दे थे और सन् 1884 ई. में पैदा हुये। इनका सन् 1936 में इंतकाल हुआ। यूं तो आपको उर्दू, फारसी और अरबी का अच्छा ज्ञान था परन्तु व्यवस्थित तालीम हासिल करना आपके नसीब में न था। आपने दो दीवान शेरों और गज़लों के लिखे जिनके नाम थे- ‘निशाते-रूह’ और ‘सरोदे-जिन्दगी’। कुछ पत्रिकाओं के सम्पादन का काम लाहौर और लखनऊ में किया। लेकिन रोजी रोटी के लिए चश्मों का कारोबार भी किया। उस समय ‘दाग’ और ‘अमीर-मीनाई’ की तूती बोलती थी और गज़ल-गोई पुराने दिनों की बात हो चली थी लेकिन आपने गज़ल को ही अपना माघ्यम चुना और उसकी काया को बदलने की भरपूर कोशिश की। आपने जो कुछ भी कहा गहरी समझ बूझ के साथ कहा। गज़ल तो प्रेम के प्रकटन का ही माघ्यम है। ‘असगर’ का इश्क़ पाक इश्क़ है और उनका माशूक़ भी पाकीज़ा हैं। उनके इश्क़ में कहीं पर भी कोई बाज़ारूपन नहीं दिखता। वे प्रेम को छुपाने के हिमायती भी नहीं है बल्कि स्पष्ट कहते हैं कि यही इश्क़ मेरे जीवन की आरजू है, कमाई है और मंजिल है। इश्क़ ही सअई1 मेरी, इश्क़ ही हासिल2 मेरा। यही मंजिल है मेरी, यही जाद-ए-मंजिल3 मेरा।। यह इश्क कभी-कभी इश्के-हक़ीक़ी नज़र आने लगता है क्योंकि माशूक खुदा नजर आता है और माशूक का कूचा मंदिर और मस्जिद दोनों से ज्यादा प्यारा नज़र आता है। दैर-ओ-हरम भी कूचए-जानाँ में आये थे। पर शुक्र है कि बढ़ गये दामन बचाके हम।। ऐसे इश्क़ में आशिक के लिए वस्ल (मिलन) और हिज्र (जुदाई) दोनों में कोई फर्क नहीं रह जाता, वह इन सब से ऊपर उठ जाता है। 1. सअई- कोशिश; 2. हासिल- नतीजा; 3. जाद ए मंजिल- मंजिल तय करने का साधन। क्या दर्दे-हिज्र और क्या लज़्ज़ते-विसाल। उससे भी कुछ बुलन्द मिली है नज़र मुझे।। ऐसे आशिक का सर जहाँ सजदे के लिए झुकता है वहीं पर ‘काबा’ बन जाता है। नियाजे-इश्क1 को समझा है क्या ऐ वाइजे-नादाँ। हजारों बन गये काबे जहाँ मैंने जबीं रख दी।। इस इश्क़ में आशिक और माशूक दोनों की जुदा सख्शियतें नहीं रहती, मिल जाती हैं और दुनिया का तो वजूद ही खत्म हो जाता है। अब न यह मेरी ज़ात है, अब न ये कायनात2 है। मैंने नवाये-इश्क़3 को साज़ से यूं मिला दिया।। इश्क़ की इंतिहा की यही मंजिल ‘असगर’ के इन शेरों में भी देखी जा सकती है। मेरे मजाज़े-शौक4 का इसमें भरा है रंग। मैं खुद को देखता हूँ, कि तस्वीरे-यार को।। जहान है कि नहीं जिस्मो-जान है कि नहीं। वोह देखता है मुझे, मैं उसको देखता हूँ।। अब न कहीं निगाह है, अब न कोई निगाह में। महव5 खड़ा हूँ मैं हुस्न की जलवागाह में।। अब मुझे खुद भी नहीं होता है कोई इम्तियाज़6। मिट गया हूँ इस तरह मैं उस नक़्शे-पा के सामने।। जूनूने-इश्क़ में हस्ती-ए-आलम पै नज़र कैसी ? रूखे-लैला को क्या देखेंगें महमिल7 देखने वाले।। नज़र में वो गुल समा गया है, तमाम हस्ती पै छा गया है। चमन में हूँ या क़फ़स में हूँ मैं, मुझे इसकी अब खबर नहीं है।। असगर ने माशूक के हुस्न की तारीफ भी की है तो कुछ ऐसे कि उसमें जरा भी बाजारूपन या हल्कापन न आ पाये जरा बानगी देखिये- तुम सामने क्या आये, इक तरफा बहार आई। आँखों ने मेरी गोया फ़िरदौसे-नज़र8 देखा।। 1. नियाजे इश्क़- इश्क की सफलता; 2. कायनात- सृष्टि, संसार; 3. नवाये इश्क- इश्क की लय (आवाज़); 4. मजाजे शौक- इश्क की सामर्थ्य; 5. महव- खोया हुआ; 6. इम्तियाज- अंतर, फर्क; 7. महमिल- ऊँट का हौदा; 8. फिरदौसे नज़र- स्वर्ग सी नज़र। उठ्ठे अज़ब अन्दाज़ से वो ज़ोशे-गज़ब में। चढ़ता हुआ इक हुस्न का दरिया नज़र आया।। यूं मुस्कुराये जान सी कलियों में पड़ गई। यूं लब-कुशां हुए कि गुलिस्ताँ बना दिया।। मैं इज़्तराबे-शौक1 कहूँ या जमाले-दोस्त। इक बर्क़ है जो कौंद रही है नक़ाब में।। अगर खामोश रहूँ मैं तो तूँ ही सब कुछ है। जो कुछ कहा तो तेरा हुस्न हो गया महदूद2।। महबूब से मिल कर प्यास बुझाने को भी वे बुल हविस मानते हैं और माशूक की खोज में भटकते रहने को ही जिन्दगी का सार मानते हैं। यह होता है ‘निष्काम-प्रेम’- मैं बुल-हविस नहीं कि बुझाऊँगा तिश्नगी3। मेरे लिये तो उठती हैं मौजें मृग तृष्णा की।। और अगर एक बार जलवा अफरोज़ हो गया तो फिर किसी को देखने की इच्छा नहीं रखते अपनी नज़रें ही सुपुर्द कर देंगे उसे- अब तो यह तमन्ना है कि किसी को भी ना देखूँ। सूरत जो दिखा दी है तो ले जाओ नज़र भी।। कोई कहे कि मैं शायर हूँ और सागरो-मीना की बात न करे तो क्या आपको यकीं आयेगा उसकी बात पर। शर्तिया तौर पर आप कहेंगे कि नहीं। तो ‘असगर’ साहब क्यूँ शायरी का अपवाद बनते। एक शेर मुलाहिजा फर्माईये- रहा जो होश तो रिन्दी और मैकशी क्या है। ज़रा ख़बर जो हुई तो फिर वोह आग ही क्या है।। और शेखो-जाहिद का जिक्र भी देखिये- न होगा काविशे-बेमुद्दआ4 का राजदाँ बरसों। वोह जाहिद जो रहा सरगुश्तए-सूदो-ज़ियाँ5 बरसों।। (जाहिद तो बरसों से हूरों की अभिलाषा में नमाज, रोज़े का पाबन्द रहा है। ऐसा भला चाहने वाला और फायदा-नुकसान देखने वाला सच्चे और निस्वार्थ प्रेेम (भक्ति) को क्या जानें।) सनम-कदे में तजल्ली6 की ताब मुश्किल है। हरम में शेख को महवे-नमाज़ रहने दे।। 1. इज़्तराबे शौक- इश्क की बेचैनी; 2. महदूद- सीमित; 3. तिश्नगी- प्यास; 4. काविशे बेमुद्दा- बिना मुद्दे की तलाश; 5. सरगुश्तए सूदो ज़ियाँ- नफा नुकसान की तलाश में रहने वाला; 6. तजल्ली- रोशनी, नूर। (सनम के घर में तो उनके वजूद की चमक असहनीय है। शेख को तो मस्जिद ही में नमाज़ पढ़ना उचित रहेगा।) अब ‘असगर’ साहब के तसव्वुफ और फ़लसफे के अन्दाज देखिये- फ़ित्ना-सामानियों1 की खू2 न करे। मुख़्तसर ये कि आरजू न करे।। पहले हस्ती की तलाश जरूर करे। फिर जो गुम हो तो ज़ुस्तज़़ू न करे।। मावराये-सुख़न3 भी है कुछ बात। बात यह है कि गुफ़्तगू न करे।। (संसार की वस्तुओं की इच्छा मत करो। अपने अस्तित्व को जरूर खोजो परन्तु जो खो गया है उसे भूल जाओ उसके पीछे समय व्यर्थ न करो। चुप रहना भी एक मुश्किल काम है। दम तो इसमें है कि अधिक बात न करो।) उसकी राह में मिटकर बेनियाज़े-ख़लकत4 बन जा। हुस्न पर फ़िदा हो कर हुस्न की अदा बन जा।। तू है जब पयाम उसका फिर पयाम क्या तेरा। तू है जब सदा उसकी, आप बेसदा हो जा।। आदमी नहीं सुनता आदमी की बातों को। पैकर-अमल बन कर ग़ैब की सदा हो जा।। तलब कैसी? कहाँ का सूदो-हासिल कैफ़े-मस्ती में। दुआ तक भूल जाते हैं, मुद्दआ इतना हसीं होता।। (इच्छा कैसी और हिसाब-किताब कैसा, आदमी आत्म लीनता में तो दुआ के लिये हाथ उठाना भी भूल जाता है अपने ध्येय को पाने के लिये।) चला जाता हूँ हँसता-खेलता मौज़े-हवादस5 से। अगर आसानियाँ हों जिन्दगी दुश्वार हो जाये।। (अगर जिन्दगी में हवादिस न हों उतार चढ़ाव न हों तो उसका मज़ा ही न रहे। अगर डगर आसान हो तो उसका कटना मुश्किल हो जाता है।) (सारे रंग देखने के बाद अब असगर साहब के चन्द अशआर जो यादगार बन गये हैं पेशे-खिदमत हैं-) 1. फ़ित्ना सामानियों- अशांति के साधन; 2. खू- इच्छा, आदत; 3. मावराये सुखन- चुप रहना, जब्त करना; 4. बेनियाजे खलकत- वैराग्य, एकान्तवास; 5. मौजे हवादस- बुरी घटनाओं की लहरें। मेरी वहशत पै बहस-आराइयाँ1 अच्छी नहीं नासेह। बहुत से बाँध रखे हैं गरेबाँ मैंने दामन में।। इलाही कौन समझे मेरी आशुफ़्ता-मिज़ाज़ी2 को। कफ़स में चैन आता है, न राहत है नशेमन में।। तुम बाख़बर हो चाहने वालों के हाल से। सबकी नज़र का राज तुम्हारी नज़र में है।। मुझको जला के गुलशने-हस्ती न फूंक दे। वोह आग जो दबी हुई मुझ मुश्ते-पर3 में हैं।। मरते-मरते न कोई आक़िलो-फ़रज़ाना4 बने। होश रखता हो जो इन्सान तो दीवाना बने।। कार फ़रमा है फ़क़त हुस्न का नैरंगे-कमाल5। चाहे वो शम्अ बने, चाहे वो परवाना बने।। ऐसा कि बुतकदे का जिसे राज हो सुपुर्द। अहले-हरम में कोई न आया नज़र मुझे।। गो नहीं रहता कभी परदे में राजे-आशिक़ी। तुमने छुपाकर और भी उसको नुमाया6 कर दिया।। वोह शोखियों से ज़लवा दिखाकर तो चल दिये। उनकी ख़बर को जाऊँ कि अपनी ख़बर को मैं।। होता है राजे-इश्क़ो-मुहब्बत उन्हीं से फ़ाश7। आँखें जबाँ नहीं हैं मगर बेजबाँ नहीं।। यह इश्क ने देखा है यह अक्ल से पिन्हा8 है। क़तरे में समन्दर है जर्रे में बयाबाँ है।। घोखा है ये नज़रों का, बाज़ीचा9 है लज़्जत का। जो कुंजे-कफ़स10 में था, वोह अस्ल गुलिस्ताँ है।। समा गये मेरी नज़रों में छा गये दिल पर। ख़याल करता हूँ, उनको कि देखता हूँ मैं।। न कामयाब हुआ और न रह गया महरूम। बड़ा गज़ब है कि मंजिल पै खो गया हूँ मैं।। 1. बहस आराईयाँ- बहसबाजी; 2. आशुफ़्ता मिज़ाज़ी- परेशान रहने वाला मिज़ाज़; 3. मुश्ते पर- एक मुट्ठी पंखों वाला; 4. आकिलो फरजाना- बुद्धिमान और विद्यावान, गुणी; 5. नैरंगे कमाल- विलक्षण दक्षता/कपट, छल; 6. नुमाया- उज़ागर; 7. फाश- खुलना; 8. पिन्हा- छुपे हुए; 9. बाज़ीचा- कौतुक, खिलौना; 10. कुंजे कफ़स- कैद खाना। चमन में छेड़ती है किस मज़े से गुंचओ-गुल को। मगर मौज़े-सबा की पाक दामनी नहीं जाती।। मह-ओ-अंजुम1 में भी अन्दाज़ हैं पेैमानों के। शब को दर बन्द नहीं होते हैं मैखानों के।। कभी हैं महवे-दीद2 ऐसे कि समझ बाकी नहीं रहती। कभी दीदार से महरूम है इतना समझते हैं।। यही थोड़ी सी मैं है और यही छोटा सा पैमाना। इसी से रिन्द राजे-गुम्बदे-मीना3 समझते हैं।। कभी तो जुस्तज़़ू जलवे को भी परदा बताती है। कभी हम शौक में परदे को भी जलवा समझते हैं।। यह जोै़क़े-दीद की शोखी, वोह अक्से-रंगे-महबूबी4। न जलवा है न परदा हम उसे तनहा समझते हैं।। इसी के साथ मैं ‘असगर’ गौंड़वी साहब को सलाम कह उनसे रूखसत लेता हूँ। * 1. मह ओ अंजुम- चाँद और तारों; 2. महवे दीद- देखने में रत; 3. राजे गुम्बदे मीना- सुराही के ऊपरी भाग का भेद; 4. अक्से रंगे महबूबी- प्रेम के रंग की छाया।

हाफ़िज़ मुहम्मद अली ‘हफ़ीज’ जौनपुरी हाफ़िज़ मुहम्मद अली ‘हफ़ीज’ जौनपुर उ.प्र. के बाशिन्दे होने से ‘हफ़ीज’ जौनपुरी के नाम से जाने जाते हैं। आप पहले ‘वसीम’ अज़ीमाबादी साहब से इस्लाह लेते रहे और फिर ‘अमीर’ मीनाई साहब से। आप कभी मीर-तकी-मीर और आतिश के रंग में लिखते थे तो कभी दाग देहलवी साहब के रंग में। अपने बारे में आपका फरमाना था कि - शेर हर रंग में कहना है तेरा काम हफ़ीज। आज हम मान गये, मान गये, मान गये।। जब ‘आतिश’ के अन्दाज में लिखा तो तबीयत फ़कीराना हो गई। चन्द नमूने पेश हैं- देखिये तो हर इक जगह है वोह। ढूँढ़िये तो कहीं नहीं मिलता।। अजब नहीं है कि छोटी ताअतें1 मक़बूल2। कनीज़ें होती हैं शाहों को ख़ुर्द-साल3 पसंद।। हफ़ीज ! जाहो-हशम4 से किसी के क्या मतलब ? फ़क़ीर मस्त हूँ अपना है मुझको माल पसंद।। जहादे-नफ़्स5 की सर हो मुहिम तो क्या कहना ? ज़हे-नसीब मिले मर्तबा जो ग़ाज़ी का। रहके दुनियाँ में कोई काम न उक़बा6 का किया।। यूँ सफ़र में हैं कि कुछ ज़ादे-सफ़र7 पास नहीं।। (अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेने की मुहिम में सफलता मिले तभी मज़ा है। नसीब अच्छा तभी हो जब ग़ाज़ी का मर्तबा हासिल हो। दुनिया में रह कर तो परलोक सुधारने के लिए कुछ न कर पाये और सफ़र ऐसे काट दिया जैसे सफ़र में खर्चे के लिये कुछ न हों।) 1. ताअतें- पूजायें; 2. मकबूल- कुबूल, स्वीकृत; 3. खुर्द साल- कम उम्र; 4. जाहो हशम- शान शौकत; 5. जहादे नफ़्स- इच्छाओं से लड़ाई; 6. उक़बा- परलोक; 7. ज़ादे सफ़र- यात्रा में साथ ले जाने वाला सामान। दुनिया का कारखाना है इक तिलिस्मे-इबरत1। दौलत जहाँ गड़ी थी-मुर्दे वहाँ गड़े हैं।। जब ‘दाग’ के अन्दाज में लिखा तो सोज़ो-गुदाज़ आ गया, रवानी आ गई। नमूने के तौर पर- ‘‘मेरा दिल आ गया इक हसीं पर।’’ ये सुनना था कि वोह बोले हमीं पर।। ये फ़िक़रे, ये चालें, ये बातें ये घातें। तुझे ओ दग़ाबाज ! हम जानते हैं।। अदा परियों की, सूरत हूर की, आँखें ग़ज़ालों2 की। ग़रज़ माँगे की हर इक चीज़ है, इन हुस्न वालों की।। या तो बिगड़े हुए तेवर मेरे पहचान गये। या कुछ बात ही ऐसी थी कि झट मान गये।। यह आज आते ही जाने की तुमने ख़ूब कही। हँसे न थे कि रूलाने की तुमने खूब कही।। शेख बरसात में जाकर लबे-जू3 पीते हैं। क़िब्ला-रू4 बैठते हैं, करके व़जू पीते हैं।। मेरे शबाब ? की तौबा पे जा न ऐ वाइज़ ! नशे की बात नहीं एतबार के काबिल।। कभी ‘मीर’ के अदांज को हासिल करना चाहा पर बात न बनी! बैठे-बैठे रास्ता कासिद का दिन भर देखना। तारे गिनना शाम से या जानिबे-दर देखना।। जिस रोज़ रूका नामा-औ-पैगाम तुम्हारा। मर जायेगा ले-ले के कोई नाम तुम्हारा।। हम कब के मर चुके थे जुदाई में ऐ अजल5 ! जीना पड़ा कुछ और तेरे इन्तज़ार में।। इसीलिए कह बैठे कि- ‘मीर’ के अंदाज़ पर किसने गज़ल लिखी ‘हफ़ीज़’! मुझे ज़ेबा6 है अगर इस बात का दावा मैं करूँ।। 1. तिलिस्मे इबरत- नसीहत, ज्ञान का तिलिस्म; 2. गज़ालों- हिरणों; 3. लबे जू- नदी के किनारे; 4. किब्ला रू- पश्चिम मुखी (काबे की तरफ मुँह); 5. अजल- मृत्यु; 6. ज़ेबा- शोभा नहीं देना। लेकिन इनका कलाम लख़नवी अंदाज के कलामों में से यादगार कलाम कहा जा सकता है। चंद अशआर पेशे-खिदमत हैं- दुश्मन न था शबाब तो नादान दोस्त था। बदनाम कर गया मुझे, बदनाम हो गया।। मसरूफ1 कब हुए हैं वोह फ़िक्रे-इलाज़ में। जब दागे-दिल कलेजे का नासूर2 हो गया।। दमे-रूख़सत3 तो मिल लेते गले आप। तड़पता छोड़ कर मुझको क्यों चले आप।। आदमी से मुहब्बत में जो न हो थोड़ा है। इतनी सी जान पै हिम्मत है यह परवाने की।। शम्अ सर धुनती है, यह रोती है खड़ी बाली4 पर। जिंदगी से कहीं मौत अच्छी है परवाने की।। हम भूले हुए हैं राह! ऐ काबानशीनों5 ! जाते थे कहीं और, निकल आये कहीं और।। जाते हैं मिटाते हुए वोह नक़्शे-क़दम को। कहदे कोई उनसे कि है इक खाकनशीं6 और।। उनकी नज़रों में जँची कुछ भी न यूसुफ़ की शबीह7। मुंह बनाकर यह कहा-‘‘हाँ ख़तोख़ाल8 अच्छा है’’।। दर्दे-दिल सुनके मेरा समझे फ़साना है कोई। बोले-‘रूकिये न, कहे जाइये, हाल अच्छा है’।। आहो-फ़ुगा9 से बन गई बुलबुल की जान पर। और गुल वोह है कि जूँ कभी रेंगी न कान पर।। इंकार का गुमाँ है न इकरार का यक़ीन। यह बात खत्म हो गई, उनकी ज़बान पर।। कयामत का मुझे डर क्या, जो कल आती है आज आये। तुम्हारे साथ की खेली है, मेरी देखी-भाली है।। 1. मसरूफ- व्यस्त; 2. नासूर- न भरने वाला घाव; 3. दमे रूख़सत- बिदाई के वक्त; 4. बाली- सिरहाने पर; 5. काबानशीनों- काबे में बैठने वाले; 6. खाकनशीं- खाक पर बैठने वाला; 7. शबीह- तस्वीर; 8. ख़तोख़ाल- चेहरा मोहरा; 9. आहो फुगा- रोना चिल्लाना और आहें भरना। मुख़्तसर1 हाले-जिन्दगी यह है। लाख सौदा था और इक सर था।। उनकी रूखसत का तो दिन याद नहीं। यह समझिये कि रोज़े-महशर था।। खाक बनती तेरे-मेरे दिल में। एक शीशा था एक पत्थर था।। गर्मी का जमाना हो कि जाड़े का जमाना। हमने कभी छोटी, शबे-फुर्कत2 नहीं देखी।। नासेह मेरा ज़ी होश है, दीवाना नहीं है। बात इतनी है उसने तेरी सूरत नहीं देखी।। उठ गया कैस जो सहरा से तो आई आवाज। ’अपने घर को तो न वीराना बनाया होता’। मैं अपने होश में ऐ फ़ित्नागर3 नहीं, न सही। तेरी खबर तो है, अपनी खबर नहीं, न सही।। न खुशी अच्छी है ऐ दिल ! न मलाल4 अच्छा है। यार जिस हाल में रक्खे वही हाल अच्छा हैं।। * 1. मुख़्तसर- संक्षेप; 2. शबे फुर्कत- जुदाई की रात; 3. फ़ित्नागर- उपद्रवी; 4. मलाल- अफसोस।

शाह अब्बुल अलीम ‘आसी’ गाज़ीपुरी लख़नवी स्कूल वाले शायद सूफियाना कलाम को शायरी मानने से ही इंकार कर दे। जैसे उन्होंने ‘नज़ीर’ अकबराबादी साहब के साथ किया। लेकिन देहली वालों के बीच सूफियाना कलाम भी शायरी में माना जाता था। अगर कोई शायर अपने ऐसे कलाम के लिये याद किया जाता हैं तो वे हैं जनाब हजरत शाह अब्बुल अली ‘आसी’ गाज़ीपुरी। आप नासिख की लख़नवी स्कूल के शागिर्द होकर भी सूफियाना कलाम कहते थे। अब सूफियाना कलाम कहाँ और खारजी रंग कहाँ? पर गाज़ीपुरी साहब ने इस मुश्किल काम को भी कर दिखाया। उन्होंने माशूक को खुदा का दर्जा देते हुए उसे हश्र में इंसाफ करते बताया है इस शेर में- हश्र में मुँह फेरकर कहना किसी का हाय ! हाय !! ‘आसी-ए-गुस्ताख’ का हर जुर्म ना-बख़्शीदा1 है !! आपने खुदा से एक दिल माँगा और वो कैसा दिल माँगा? यह देखिये- ताबे-दीदार2 जो लाये मुझे वो दिल देना। मुँह कयामत में दिखा सकने के काबिल देना।। अस्ल फ़ित्ना3 है कयामत में बहारे-फ़िरदौस4। ज़ुज़5 तेरे कुछ भी न चाहे मुझे वह दिल देना।। और फिर जैसा दिल माँगा उसी के मुकाबिल दिलबर भी माँग लिया- रश्के-खुरशीदे-जहाँ6 ताब दिया दिल मुझको। कोई दिलबर भी इसी दिल के मुकाबिल देना।। अपने इश्क के बारे में ‘आसी’ साहब का फरमाना है कि- आशिकी में है महवियत दरकार। राहते-वस्ल7 ओ रेज़े-फ़ुरकत8 क्या ?? 1. ना बख़्शीदा-माफ न करने लायक; 2. ताबे दीदार- देखने की क्षमता रखने वाला; 3. फ़ित्ना- हंगामा, फ़साद; 4. बहारे फिरदौस- स्वर्ग की वाटिका की बहार; 5. ज़ुज़- सिवा, अलावा; 6. रश्के खुरशीदे जहाँ- सूर्य भी जिससे ईर्ष्या करे; 7. राहते वस्ल- मिलने का सुख; 8. रेज़े फुरकत- जुदाई का गम, दर्द। न गिरे उस निगाह से कोई। और उफ़्ताद1 क्या, मुसीबत क्या?? जिनमें चर्चा न कुछ तुम्हारा हो। ऐसे अहबाब2 ऐसी सुहबत क्या ?? जाते हो जाओ हम भी रूख़सत3 हैं। हिज्र में जिंदगी की मुद्दत क्या ?? तो यह तो पाक इश्किया कलाम हुआ खारज़ी शायरी नहीं। जो माशूक के दीदार को कयामत समझे या फिर ख़्वाब माने उस आशिक का इश्क तो हकीकी इश्क जैसा ही पाक हो गया। मेरी आँखें और दीदार आपका ? या कयामत आ गई या ख़्वाब है। इश्क़ में आशिक के दिल की हालत का बयान देखिये- जो रही और कोई दम यही हालत दिल की। आज है पहलुए-ग़मनाक से रूख़सत दिल की।। घर छुटा, शहर छुटा, कूचये-दिलदार छुटा। कोहो-सहरा4 में लिए फिरती है वहशत दिल की।। और माशूक के हुस्न का जलवा देखिए- इश्क ने फरहाद परदे में पाया इंतक़ाम। एक मुद्दत से हमारा खून दामनगीर था।। वोह मुसव्वर5 था कोई या आपका हुस्ने-शबाब। जिसने सूरत देख ली, इक पैकरे-तस्वीर6 था।। तुम्हीं सच-सच बतादो कोैन था शीरी की सूरत में। कि मुश्ते-ख़ाक7 की हसरत में कोई कोहकन क्यों हो।। इश्क के जूनून का मंजर देखिये- कभी न जोशे-जुनूँ में, पाँव में ताक़त। कोई नहीं जो उठा लाये घर में सहरा को।। गुबार हो के ‘आसी’ फिरोगे आवारा। ज़ूनूने-इश्क से मुमकिन नहीं है छुटकारा।। 1. उफ़्ताद - मुसीबत, परेशानी; 2. अहबाब- मित्र, दोस्त; 3. रूख़सत- विदा; 4. कोहो सहरा- पहाड़ों और बयाबाँ; 5. मुसव्वर- चित्रकार; 6. पैकरे तस्वीर- तस्वीर सी सूरत; 7. मुश्ते ख़ाक- मुट्ठी भर मिट्टी (से बना पुतला)। नहीं होता कि बढ़कर हाथ रख दे। तड़पता देखते हैं, दिल हमारा।। अगर काबू न था दिल पर, बुरा था। वहाँ जाना सरे-महफ़िल हमारा।। माशूक को कभी खुदा का दरजा देते हैं तो कभी खुदा के बाद का- तूने दावाऐ-खुदाई1 न किया खूब किया। ऐ सनम ! हम तेरे दीदार को तरसा करते।। वहाँ पहुँच के यह कहना सबा ! सलाम के बाद। कि तेरे नाम की रट है खुदा के नाम के बाद।। और खुदा से यह पूछते हैं कि- तुम कोई नहीं तो सबमें नज़र आते क्यों हो ? सब तुम ही तुम हो तो फिर मुँह को छुपाते क्यों हो ?? उनका माशूक भी दीदार से इंकार करता है तो उनका खुदा भी इसे टालता रहता है। वहाँ भी वादये-दीदार इस तरह टाला। कि खास लोग तलब होंगे बारे-आम के बाद।। जब तबीयत सूफियाना हो तो फिर खुदा ही माशूक बन जाता है। आप बुत परस्तों को मुसलमानों से ज्यादा खुदा के पुुजारी मानते हैं क्योंकि - इतने बुतखानों में सज़दे एक काबे की एवज़। कुफ्र तो इस्लाम से बढ़कर तेरा गरवीदा2 है।। उनके फ़लसफे की बात करें तो जैसे गागर में सागर। बानगी देखिये- वस्ल है, पर दिल में अब तक ज़ाैके-ग़म पेचीदा है। बुलबुला है एन दरिया में मगर नम-दीदा3 है।। (मिलन तो हो गया पर दिल अभी तक गमज़दा है, जैसे पानी का बुलबुला पानी में होते हुए भी इसलिए रोता है कि उसकी हस्ती मात्र कुछ पल की होती है।) तसव्वुफ और इश्क के बीच में फँसे ‘आसी’ फरमाते हैं कि- इश्क कहता है कि आलम से जुदा हो जाओ। हुस्न कहता है कि जिधर जाओ नया आलम है।। 1. दावा ए खुदाई- खुदा होने का दावा; 2. गरवीदा- चाहने वाला; 3. नम दीदा- भीगी आँखों। अन्त में गाज़ीपुरी साहब के चंद और शेर पेश कर उनसे रूखसत लेता हूँ। न कभी बादापरस्त हम, न हमें कैफ़े-शराब1 है। लबे-यार चूमे है ख़्वाब में, वही जोशे-मस्तिये-ख़्वाब है।। उन्हें किब्रे-हुस्न2 की नखवतें3, मुझे फैज़े-इश्क4 की है हसरतें। न कलाम है, न पयाम है, न सवाल है, न जवाब है।। तेरे दीवाने का बेहाल ही रहना अच्छा। हाल देना हो अगर रहम के काबिल देना।। हाय रे हाय तेरी उक्दाकुशाई5 के मज़े। तू ही खोले जिसे वोह उक़्दये-मुश्किल6 देना।। बिन तेरे, जीने की किस जी से तमन्ना करते। मर न जाते शबे-हिज्र तो हम क्या करते।। दाग़े-दिल दिलबर नहीं, सीने से फिर लिपटा हूँ क्यों ? मैं दिले-दुश्मन नहीं, फिर यूं जला जाता हूँ क्यों ?? वोह कहते हैं ‘मैं जिंदगानी हूँ तेरी’। यह गर सच है तो फिर इसका भरोसा नहीं।। * 1. कैफै शराब- शराब का नशा; 2. किब्रे हुस्न - हुस्न का घमंड; 3. नखवतें- नाज; 4. फैज़े इश्क- इश्क के लाभ; 5. उक्दाकुशाई- भेद खोलना; 6. उक्दये मुश्किल- मुश्किल भेद (समस्या)।

जलील हसन ‘जलील’ मानिकपुरी लख़नवी रंग के शायरों में ‘जलील’ मानिकपुरी साहब का नाम भी बहुत शान से रोशन है। आपका पूरा नाम जलील हसन ‘जलील’ था और आप 1864 में मानिकपुर (अवध) में पैदा हुए थे। आप ‘अमीर मीनाई’ साहब के शागिर्द थे और ‘अमीरूललुगात’ जैसे वृहद कोष के संपादक थे। आप हैदराबाद के निज़ाम के उस्ताद भी रहे और आपको ‘इमामुल-मुल्क’ के ओहदे से नवाज़ा गया था। आपके तीन दीवान प्रकाशित हुए जिनमें दो के नाम थे-‘जाने-स़ुखन’ और ‘सरताजे-सुखन’। आपका इंतकाल सन् 1946 में हुआ। आपके चंद यादगार अशआर पेशे-खिदमत हैं- किधर चले मेरे अश्के-रवां 1 नहीं मालूम। भटक रहा है कहाँ करवाँ नहीं मालूम।। उठा दिया तो है लंगर हवा के झोंकों में। किधर सफ़ीना2 है, साहिल कहाँ नहीं मालूम। जमाना है कि गुज़रा जा रहा है। यह दरिया है कि बहता जा रहा है।। जमाने पै हँसे कि कोई रोये। जो होना है, वोह होता जा रहा है।। क्या पूछता है तूं मेरी बर्बादियों का हाल। थोड़ी सी खाक ले के हवा में उड़ा के देख।। अब क्या करूँ तलाश किसी कारवाँ को मैं। गुम हो गया हूँ पा के तेरे आस्ताँ 3 को मैं।। तेरे ख़याल में आये जो उनसे कह देना। मेरी समझ में तो कुछ नामाबर नहीं आता।। जुदा होने पै दोनों का यही मामूल4 ठहरा है। वोह हम को भूल जाते हैं, हम उनको याद करते हैं।। 1. अश्के रवां- बहते रहने वाले आँसू; 2. सफ़ीना- नाव, जाहज; 3. आस्तां- ठिकाना, दर; 4. मामूल- दस्तूर, रिवाज। हसरतों का सिलसिला कब खत्म होता है ‘जलील’। खिल गये जब गुल तो पैदा और कलियाँ हो गई।। यार तक पहुँचा दिया बेताबिये-दिल1 ने मेरे। इक तड़प में मंजिलों का फ़ासला जाता रहा।। शाम होते ही कभी जान सी आ जाती थी। अब वही शब है कि मर-मर के जिये जाते हैं।। आज ही आ जो तुझको आना है। कल खुदा जाने मैं हुआ न हुआ।। ए जलील आँसू बहाये तुमने क्यों। उनको हँसने का बहाना मिल गया।। थी इश्को-आशिकी के लिए शर्ते-जिंदगी। मरने के वास्ते मुझे जीना जरूर था।। वोह बेखुदी की आड़ में लिपटे जलील से। क्यों कर कहूँ कि होश न था, था, जरूर था।। ये जो सर नीचे किये बैठे हैं। जान कितनों की लिए बैठे हैं।। हमारी बेखुदी का हाल वोह पूछें तो ए कासिद। यह कहना होश इतना है कि तुमको याद करते हैं।। जलील अच्छा नहीं आबाद करना घर मुहब्बत का। यह उनका काम है जो जिन्दगी बरबाद करते हैं।। आते-आते आयेगा उनको ख्याल। जाते-जाते बे-ख़याली जायेगी।। देखते हैं गौर से मेरी शबीह2। शायद इसमें जान डाली जायगी। ऐ तमन्ना तुझको रो लूं शामे-वस्ल। आज तू दिल से निकाली जायेगी।। कब्र में भी होगा रोशन दागे-दिल। चाँद पर क्या ख़ाक डाली जायेगी।। मज़े बेताबियों के आ रहे हैं। वोह हमको, हम उन्हें समझा रहे हैं।। 1. बेताबिये दिल- दिल की बेताबी (उत्कंठा); 2. शबीह- तस्वीर, बुत। भला तौबा का मयख़ाने में क्या जिक्र। जो है भी तो कहीं टूटी पड़ी है।। हुए क्या हसरत-कदा1 था दिल हमारा ऐ जलील। हो गया दो रोज में आबाद भी बरबाद भी।। इज़हारे- हाल पै मुझे कुदरत नहीं रही। उनको ये वहम है कि मुहब्बत नहीं रही।। दिलचस्प हो गई तेरे चलने से रहगुज़र। उठ-उठ के गर्दे-राह लिपटती है राह से।। या खुदा दर्दे-मुहब्बत में असर है कि नहीं। जिस पै मरता हूँ उसे मेरी ख़बर है कि नहीं।। आप से आँख मिलाऊँ यह ताकत नहीं। देखता यह हूँ कि अगली-सी नज़र है कि नहीं।। कह दो ये कोहकन से कि-मरना नहीं कमाल। मर-मर के हिज्रेयार में जीना कमाल है।। इस महवियत2 पै आपकी कुर्बान मैं जलील। इतना नहीं ख़याल कि किसका ख़याल है।। उन शोख हसीनों पै जो आती है जवानी। तलवार बना देती है एक-एक अदा को।। चमन के फूल भी तेरे ही ख़ोशाची3 निकले। किसी पै रंग है तेरा किसी पै बू तेरी।। बनी है जान पै, जाने की तुमने खूब कही। मेरा यह हाल फिर आने की तुमने खूब कही।। मुझको जमाना बुरा कह रहा है, कहने दो। गरज़ है तुमसे ज़माने की तुमने खूब कही।। मस्त कर दे मुझे साकी पर इस शर्त के साथ। होश इतना रहे बाकी कि तुझे याद करूँ।। हुस्न देखा जो बुतों का तो खुदा याद आया। राह काबे की मुझे मिली है बुतखाने से।। 1. हसरत कदा - अपूर्ण इच्छाओं का घर; 2. महवियत- खोया रहना; 3. खोशाचीं- दूसरों के गुणों को अपनाने वाले। हम तुम मिले न थे तो जुदाई का मलाल था। अब यह मलाल है कि तमन्ना निकल गई।। कुछ अख़्तियार1 नहीं किसी का तबीयत पर। यह जिस पै आती है बे-अख़्तियार आती है।। बयाबाँ से निकलना अब मेरे मजनूँ का मुश्किल है। ये काँटा भी उलझ के रह गया सेहरा के दामन से।। हवास2 आये हुए फिर खो दिये लैला ने मजनूं के। यह कहना ताज़याना3 था, ‘मेरा दीवाना आता है’।। इस इत्तफ़ाक़ को फ़ज्ले-खुदा4 समझ वाइज। कि हिजवये-मय5 तेरे लब पै थी मुझे होश न था।। दुकाने-मय जो पहुँच कर खुली हकी़क़ते-हाल। हयात बेच रहा था वोह मय-फ़रोश न था।। ऐ चर्ख6 ! कितने खाक से पैदा हुए हसीन ? तूं एक आफ़ताब को चमका के रह गया।। किसी का हुस्न अगर बेनकाब हो जाता। निज़ामे-आलमे-हस्ती7 ख़राब हो जाता।। कासिद पयामे-शौक़8 को देना बहुत न तूल। कहना फ़क़त यह उनसे कि ‘आँखें तरस गई’। न इशारा, न कनाया9, न तबस्सुम, न कलाम। पास बैठे हैं मगर दूर नज़र आते हैं।। क्या कहूँ ! मर-मर के जीने का मज़ा। ऐ खिज़र10 ये जिन्दगानी और है।। गज़ब होता जो तेरी सूरत बे-परदा कहीं होती। कि तुझपे जो निगाह पड़ती वापसी होती।। नज़र पड़ती है तुम पर सर्वकद11 मुझको रश्क़ आता है। चलो ख़िलवत12 में चल बैठें निकलकर बज़्मे-मशहर13 से।। 1. अख़्तियार- काबू; 2. हवास- होश, औसान; 3. ताजयाना- चाबुक लगाना; 4. फज़्ले खुदा- खुदा का रहम; 5. हिज़वयेमय- शराब की बुराई; 6. चर्ख- आस्मां; 7. निजामे आलमे हस्ती- संसार के अस्तित्व का इंतजाम; 8. पयामे शौक- प्रेम संदेश; 9. कनाया- संकेत, गुप्त बात; 10. खिजर- रहनुमाँ, मार्गदर्शक; 11. सर्वकद- लम्बे कदवाली; 12. ख़िलवत- अकेले में; 13. बज़्मे मशहर- मशहूर लोगों की महफिल। तुम ने आ कर मिज़ाज पूछ लिया। अब तबीयत कहाँ बहलती है।। दे रहे हैं मय वो अपने हाथ से। अब यह शय इन्कार के काबिल नहीं।। अजब हौसला हमने देखा गुंचे का। तबस्सुम पे लुटा दी सारी जवानी अपनी।। आके दो दिन को फस्ले-गुल1 स़ाकी। मुब्तला2 कर गई गुनाहों में।। खिज्र3 को ढूंढ़ने मैं निकला था। मिल गये मय कदे की राहों में।। गुजरी इस तरफ से हसीनों की टुकड़ियाँ। कुछ रो गईं तो कुछ मेरे रोने पे हँस गई।। * 1. फ़स्ले गुल- जवानी, बहार; 2. मुब्तला- फँस जाना; 3 खिज्र- वह फरिश्ता जिसे अमृत का पता मालूम है

मिर्ज़ा वाजिद हुसैन ‘यगाना’ चंगेजी ‘शाद’ के शागिर्द मिर्ज़ा वाजिद हुसैन ‘यगाना’ चंगेजी खानदान के थे इसलिये ये यगाना चंगेजी के तख़ल्लुस से जाने जाते हैं। इन्होंने ‘यास’ तख़ल्लुस से भी शायरी की। आपका जन्म अज़ीमाबाद, बिहार में हुआ (सन् 1884) लेकिन ज्यादातर आप लखनऊ में ही रहे। लखनऊ के शायरों का आपकी शायरी से हमेशा 36 का आँकड़ा रहा इसलिये उनकी दुश्मनी आपको हमेशा झेलनी पड़ी। ज़नाब अपनी राह हमेशा बाकियों से अलग रखते थे। जब सभी मिर्ज़ा गालिब के अंदाज को सराहने लगे तब ये उनके रकीब बन बैठे और यहाँ तक कि खुद को गालिब-शिकन कहने लगे। गालिब के लिए इनका फर्माना था कि- भोण्डापन है मज़ाके-गालिब में रचा। मिर्ज़ा का कलाम अपनी न नजरों में जँचा।। अपने विरोध के चलते एक बार तो आप लखनऊ छोड़ कर लाहौर चले गये लेकिन वहाँ भी इनको पंजाबियों का रवैया पसन्द नहीं आया और वापस लखनऊ आना पड़ा। लखनऊ में एक बार अपने एक मुसलमान दोस्त को इस्लाम के खिलाफ़ कुछ लिख कर भेज दिया तो जुनूनी विरोधियों ने आपका मुहँ काला करके जूतों की माला पहना के गधों से जुते रिक्शा में बैठाकर पूरे लखनऊ के बाजारों में घुमा दिया। इतना कुछ सहन करके भी अपनी राह पर डटे रहे। सर्व-धर्म सम्भाव में विश्वास रखते थे और कहते थे कि- कृशन का हूँ मैं पुजारी अली का बंदा हूँ। ‘यगाना’ शाने-खुदा1 देखकर रहा न गया।। दिखावा और पूजा पाठ का ढोंग आपको पसन्द न था और समझते थे कि दिल से खुदा को याद करना ही उनकी अस्ल इबादत होती है। कलमा पढूँ तो क्यूँ पढूँ, सबकी नजर पै क्यूं चढूँ। यादे-खुदा तो दिल से है, दिल से जुबाँ तक आये क्यूँ।। 1. शाने खुदा- खुदा की शान। मजहबी जुनून को इन्सानियत का दुश्मन मानते थे और उसमें अन्धे दीन-परस्तों को जानवर बताते थे। दुनिया के साथ दीन की बेगार ! अलअमाँ1। इन्सान आदमी न हुआ जानवर हुआ।। यहाँ तक कि खुदा को भी ललकार देते थे- आई को टाल दे जभी जानें। दम-ब-खुद2 है तो फिर खुदा क्या है।। हिन्दू-मुसलमानों की एकता के हिमायती थे और इस बात से डरते थे कि उसमें कहीं मजहब बीच में न आ जाये- सुलह ठहरी तो है बिरहमन से। कहीं मज़हब अड़ा न दे कोई टाँग।। खुदा को मन ही में छिपा मानते थे और उसे मन से बाहर ढूँढ़ने वालों को कहते थे कि- आपसे बाहर चले हो ढूँढ़ने। आह पहला ही कदम झूठा पड़ा।। दुनिया के फ़रेब देखकर आपका मानना था कि उसको बनाने वाला भी अपने को अपराधी समझने लगा होगा- तख़लीके-कायनात3 के दिलचस्प जुर्म पर। हँसता तो होगा आप भी यज्दाँ4 कभी कभी।। आपके कहे चन्द यादगार अशआर पेशे-खिदमत है- पहले अपनी तो जात पहचाने। राजे-कुदरत बखानने वाला।। जानकर और हो गया अनजान। हो तो ऐसा हो जानने वाला।। पेट के हलके लाख बड़मारे5। कोई खुलता है जानने वाला।। खाक़ में मिल के पाक हो जाता। छानता क्या है छानने वाला।। दिन को दिन समझे और रात को रात। वक़्त की कद्र जानने वाला।। 1. अलअमाँ- ईश्वर बचाये, खुदा की पनाह; 2. दम व खुद- चुपचाप; 3. तखलीके कायनात- संसार के निर्माण; 4. यज्दाँ- ईश्वर; 5. बड़मारे- डींगें मारना। किधर चला है ? इधर एक रात बसता जा। गरजने वाले गरजता है क्या, बरसता जा।। रूला-रूला के गरीबों को हँस चुका कल तक। मेरी तरफ से अब अपनी दशा पै हँसता जा।। बस एक नुक़्तये-फर्ज़ी1 का नाम है काबा। किसी को मऱकजे-तहकीक2 का पता न चला।। उमीदो-बीम3 ने मारा मुझे दो राहे पर। कहाँ के दैरो-हरम ? घर का रास्ता न मिला।। दिल बेहौसला4 है इक जरा सी ठेस का महमाँ। वह आँसू क्या पियेगा, जिसको ग़म खाना नहीं आता।। सरापा-राज हूँ मैं क्या बताऊँ कौन हूँ क्या हूँ। समझता हूँ मगर दुनिया को समझाना नहीं आता।। रोशन तमाम काबा-ओ-बुतखाना हो गया। घर-घर जमाले-यार का अफ़साना हो गया।। आप खुद अपने कलाम की बराबरी जनाब ‘आतिश’ से करते थे और अंदाज में ‘मीर’ समझते थे - जमाना फिर गया चलने लगी हवा उलटी। चमन को लगा के आग जो बागबाँ निकला।। कलामे-‘यास’ से दुनिया में फिर इक आग लगी। यह कौन हज़रते-आतिश का हम जबाँ निकला।। अंजाम की परवाह करना आपको भाता न था, कोई आगाह भी करे तो क्यों कर करे? दिले-आगाह5 ने बेकार मेरी राह खोटी की। बहुत अच्छा था अंजामे-सफ़र से बेख़बर होना।। ख़री ख़री कहते थे और चूकते न थे। जरा गौर फर्माइयेगा- आप क्या जाने मुझपै क्या गुज़री सुब्ह-दम देखकर गुलों का निखार। दूर से देखलो हसीनों को, न बनाना कभी गले का हार।। अपने साये ही से भड़कते हो, ऐसी वहशत पै क्यों न आये प्यार। तूं भी जी और मुझे भी जीने दे, जैसे आबाद गुल से पहलू-ए-खार6।। 1. नुक्ता ए फर्जी- काल्पनिक बिन्दु; 2. मरकजे तहकीक- घरती का केन्द्र बिन्दु; 3. उमीदो बीम- आशा तथा शंका; 4. बेहौसला- बिना साहस; 5. दिले आगाह- दिल की सावधानी; 6. पहलु ए खार- काँटे के पास। बंदगी का सबूत दूँ क्यों कर, इससे बेहतर है कीजिए इन्कार। ऐसे दो दिल भी कम मिले होंगे, न कशाकश हुई न जीत, न हार।। कलाम में जबर्दस्त असर रखते थे और दुश्मनों के दिल इसी से जलते थे, बानगी देखिये- जमीं करवट बदलती है बलाये-नागहाँ 1 होकर। अज़ब क्या सरपै आये पाँव की खाक आसमाँ होकर।। उठो ऐ सोने वालों ! सर पै धूप आई क़यामत की। कहीं ये दिन न ढल जाये नसीबे-दुश्मनाँ 2 होकर।। अरे ओ जलने वाले ! काश जलना ही तुझे आता। यह जलना कोई जलना है कि रह जायें धुँआ होकर।। पसीना तक नहीं आता तो ऐसी खुश्क तौबा क्या ? नदामत3 वो कि दुश्मन को तरस आ जाए दुश्मन पर। अब अगर लख़नवी शायर हो तो खारिज़ी रंग तो दिखाना ही होगा ना! चन्द नमूने इसके भी पेशे-खिदमत हैं - मज़ाल थी कोई देखे तुम्हें नज़र भरकर। यह क्या है आज पड़े हो मले-दले क्यों कर।। फिरते हैं भेस में हसीनों के। कैसे-कैसे डकैत थांग-की-थांग4।। कोई क्या जाने बाँकपन के यह ढंग। सुलह दुश्मन से और दोस्त से जंग।। क्या जमाना था कैसे दुश्मन थे। रातभर सुलह और दिनभर जंग।। बदल न जाये जमाने के साथ नीयत भी। सुना तो होगा जवानी का एतबार नहीं।। जो ग़म भी खायें तो पहले खिलायें दुश्मन को। अकेले खायेंगे ऐसे तो हम गँवार नहीं।। गले में बाँहे डाले चैन से सोना जवानी में। कहाँ मुमकिन फिर ऐसा ख्बाब देखूँ जिन्दगानी में।। 1. बलाये नागहाँ- अचानक आने वाली मुसीबत; 2. नसीबे दुश्मनाँ- दुश्मन नसीब; 3. नदामत- शार्मिन्दगी, पश्चाताप; 4. थांग की थांग- चोरी का माल छुपाये हुए। दीवाना बन के उनके गले से लिपट भी जाओ। काम कर लो ‘यास’ अपना बहाने-बहाने में।। तौबा भी भूल गये इश्क़ में वोह मार पड़ी। ऐसे औसान गये हैं कि खुदा याद नहीं।। खटका न लगा हो तो मज़ा क्या है गुनाह में। लज़्ज़त ही और होती है चोरी के माल में।। ताअत1 हो या गुनाह पसे-परदा2 खूब है। दोनों का मज़ा जब है कि तनहा करे कोई।। दीवाना वार दौड़ के कोई लिपट ना जाये। आँखों में आँखें डाल कर देखा ना कीजिये।। अल्लाह री बेताबियेदिल वस्ल की शब को। कुछ नींद भी आँखों में है कुछ मय का असर भी।। सलामत रहें दिल में घर करने वाले। इस उजड़े मकाँ में बसर करने वाले।। गले पै छुरी क्यों नहीं भौंक देते। असीरों3 को बेबालोपर1 करने वाले।। आपके कलाम में तसव्वुफ और फ़लसफे की तो इंतिहा ही नहीं है लेकिन चंद शेर बहुत ही बेहतरीन बन पाए हैं। अर्ज किया है कि- नतीजा कुछ भी हो लेकिन अपना काम करते हैं। सवेरे ही से दूरंदेश5 फिक्रे-शाम6 करते हैं।। पढ़के दो कलमे अगर कोई मुसलमाँ हो जाय। फिर तो हैवान भी दो रोज में इन्साँ हो जाय।। आग में हो जलना जिसे वोह हिन्दू हो जाय। ख़ाक में हो जिसे मिलना वोह मुसलमाँ हो जाय।। जैसे दोज़रव की हवा खा के अभी आया है। किस कदर वाइजे-मक्क़ार डराता है मुझे।। जलवये-दारोरसन7 अपने नसीबों में कहाँ ? कौन दुनिया की निगाहों में चढ़ाता है मुझे।। 1. ताअत- पूजा, उपासना; 2. पसे परदा- परदे के पीछे, अकेले में; 3. असीरों- कैदियों (पक्षी); 4. बेबालोपर- बिना बाल और परों के; 5. दूरंदेश- दूरदर्शी; 6. फिक्रे शाम- शाम की फिक्र; 7. जलवाये दारोरसन- धर्म के लिए शहादत का सुख। हासिले-फिक्रे-नारसा1 क्या है ? तूं खुदा बन गया बुरा क्या है।। कैसे-कैसे खुदा बना डाले। खेल बंदे का है खुदा क्या है।। नूर ही नूर है कहाँ का ज़हूर2। उठ गया परदा अब रहा क्या है।। रहने दे हुस्न का ढका परदा। वक्त बेवक्त झाँकता क्या है।। ऐसी आज़ाद रूह इस तन में। क्यों पराये मकान में आई।। बात अधूरी मगर असर दूना। अच्छी लुक़नत3 जबान में आई।। आँख नीची हुई अरे यह क्या। क्यों गरज़ दरमियान में आई।। मैं पयम्बर4 नहीं ‘यगाना’ सही। इसमें क्या असर शाम में आई।। ‘यगाना’ चंगेजी साहब का कलाम दो दीवानों में छपा है जिनके नाम हैं ‘गंजीना’ और ‘आयाते वज़दानी’। अंत में उन्हीं के कलाम से शेर पेश कर यगाना साहब को सलाम भेज कर रूखसत मांगता हूँ। खड़े हैं दुराहे पै दैरो-हरम के। तेरी ज़ुस्तजू में सफ़र करने वाले।। कुजा5 सहने-आलम6, कुजा कुंजे-मरक़द7। बसर कर रहे हैं बसर करने वाले।। * 1. हासिले फिक्रे नारसा -मंजिल तक न पहुँचने की फिक्र; 2. जहूर- प्रकट होना; 3. लुकनत- हकलापन; 4. पयम्बर- ईशदूत; 5. कुजा- कहाँ; 6. सहने आलम- खुला स्थान, आँगन; 7. कुंजे मरकद- कब्र की तंगी।

सैयद रियाज़ अहमद ‘रियाज’ खैराबादी सैयद रियाज़ अहमद ‘रियाज’ खैराबाद जिला सीतापुर उ.प्र. में पैदा हुए और लख़नवी स्कूल के नामाचीन शायर थे। आपने पहले ‘असीर’ से और बाद में ‘अमीर मीनाई’ साहब से इस्लाह हासिल की। खैराबाद छोड़कर आप गोरखपुर आ गये और वहाँ पर 1907 तक आबाद रहे। गोरख़पुर आपके जी को इतना भा गया था कि वहाँ से लखनऊ जाते वक्त आपके मुँह से बे-साख्ता ये शेर निकल पड़ा- जवानी जिनमें खोई है वोह गलियाँ याद आती है। बड़ी हसरत से लब पर जिक्रे-गोरखपुर आता है।। ‘रियाज’ साहब गज़लगो शायर थे और अक्सर शबाब की बातें किया करते थे। कोई ऐसी जमीं नहीं जिस पर वे गज़ल न कह सकें। अपनी तबीयत की रंगीनी के बारे में वे खुद कहते थे कि - वाह क्या रंग है, क्या खूब तबीयत है रियाज। हो जमीं कोई तुम्हें फूलते-फलते देखा।। और जिस अंजुमन में बैठ गया रौनक आ गई। कुछ आदमी ‘रियाज़’ अज़ब दिल्लगी का था।। शराब और मैखाने पर रियाज ने खूब लिखा लेकिन खुद कभी शराब न पी। बकौल ‘जलील’‒ मस्ते-मय कर दिया जहाँ भर को। खुद लगाया न मुँह से सागर को।। और जब किसी ने पूछा कि आप पीते हैं कि नहीं ? तो फ़र्माया - शेरे-तर मेरे छलकते हुए सागर है रियाज़। फिर भी सब पूछते हैं-आपने पी है कि नहीं ? रियाज के दीवान का नाम है, ‘रियाज़े-रिज़वाँ’ इसमें तकरबीन 7000 अशआर है जिनमें से तकरीबन 1350 अशआर सागरो-मीना से छलकते हैं और 600 गजलों में से एक भी गज़ल ऐसी नहीं जिसमें सागरो-मीना न हों। इस तरह के कुछ शेर पेशे खिदमत है - रहने देगा न दमे-नजअ1 कोई हल़क को खुश्क़। मैकदे में हमें इतना तो सहारा होगा। आबे-ज़मज़म2 के सिवा कुछ नहीं काबे में ‘रियाज़’। मैकदा तुम जिसे समझे हो मदीना होगा। बज़्मे-महशर3 गर बने साक़ी की बज़्म। मैं न उठूंगा गर पी के गिरा।। नमाजे-ईद हुई मैकदे में धूम से आज। रियाज़ बादाकशों ने आज हमें इमाम किया।। दुनिया से अलग हमने मैख़ाने का दर देखा। मैख़ाने का दर देखा, अल्लाह का घर देखा।। दोनों के मजे लूटे, दोनों का असर देखा। अल्लाह का घर देखा, मैख़ाने का दर देखा।। काबे में नजर आये जो सुबह अजाँ देते। मैख़ाने में रातों को उनका भी गुज़र देखा।। कुछ काम नहीं मय से गो इश्क़ है इस शय से। है रिन्द ‘रियाज़’ ऐसे दामन भी न तर देखा।। यह अपनी व़ज़अ और यह दुश्नामे-मय-फरोश4। सुनकर जो पी गये यह मजा मुफ़लिसी का था।। जा जा के बज़्मे-वाज में सौ बार हमने पी। चोरी किसी की थी न हमें डर किसी का था।। अहले-हरम5 भी आके हुए थे शरीके-दौर। कुछ रंग आज और मेरी मैकशी का था।। राह से काबे के हमने रेजये-मीना6 चुने। क्या अजब इसके सबब हम को मिले हज का सबाब।। ईद के दिन मैकदे में है कोई ऐसा ‘रियाज़’। एक चूल्लू दे के जो ले तीस रोजों का सबाब।। 1. दमे नजअ- जाँकनी के वक्त, अन्तिम श्वास तक; 2. आबे ज़मज़म- काबे में सोते का पानी; 3. बज़्मे महशर- कयामत के दिन की महफिल; 4. दुश्नामे मय फरोश- मदिरा बेचने वाले की बदनामी; 5. अहले हरम - मस्जिद के मौलवी; 6. रेजये मीना- शराब रखने का पात्र (पैमाने) के टुकड़े। आबाद करे बादाकश अल्लाह का घर आज। दिन जुम्मे का है बन्द है मैख़ाने के दर आज।। मैख़ाना हमारा कोई मस्जिद तो नहीं है। तसबीह1 लिये कौन बुज़ुर्ग आये इधर आज।। मेरा यही खयाल है गो मैने पी नहीं। कोई हसीं पिलाये तो यह शय बुरी नहीं।। खुदा के हाथ है बिकना न बिकना मय का ऐ साक़ी। बराबर मसज़िदे-जामा2 के हमने अब दुकां रख दी।। बिना3 है एक ही दोनों की काबा हो कि बुतखाना। उठा कर खिश्ते-खुम4 हमने यहाँ रख दी वहाँ रख दी।। रियाज़ की मैकशी की शायरी में फ़लसफाना रंग है। एक शेर पेश है जो यह कहता है कि पीने वालों के मुँह पर तेज नहीं आता और उसका कारण बताता है कि केवल ईश्वर में लीन होने से चेहरे पर तेज नहीं आता इसके लिये नीयत का पाक साफ होना जरूरी है। पीकर भी झलक नूर की मुँह पर नहीं आती। हम रिन्दों में जो साहबे-ईमाँ नहीं होते।। काजल की कोठरी में न जाने में ही बेहतर है क्योंकि वहां जाने पर जो दाग लगेगा उसे छुड़ाना मुश्किल होता है। अगर दामन पर दाग लगा तो जग में रूसवाई हो ही जायेगी, भले दिल आपका कितना ही पाक क्यूं न हो। इस बात को क्या खूब कहा है - दिल पाक साफ़ लाख है दामन को क्या करूँ। जा जा के मैकदे में ये धब्बा लगा दिया।। कर्ज लेकर पीने वाले हमेशा यह सोचते रहते हैं कि मुफ़्त की पी रहे हैं लेकिन उधार चढ़ता जाता है और वह कंगाल हो जाता है। इस बात को कहता ये शेर देखें - जब तक मिलेगी कर्ज़ पिये जायेंगे जरूर। हम जानते हैं मुफ्त है सौदा उधार का।। मैकशी की सुखन-फहमी में, रस्म है कि वाइज और नासेह जो मैकेशी की खिलाफ़त करते हैं तथा जाहिद जो पीने से परहेज रखता है पर तंज कसे जायें। इसी रस्म को निभाते हुए ‘रियाज’ साहब ने भी शेर लिखे जिनका नमूना देखते हैं‒ 1. तसबीह- माला; 2. मस्जिदे जामा- बड़ी मस्जिद; 3. बिना- बुनियाद, कारण; 4. खिश्ते खुम- शराब रखने का पात्र। पी-पी के उसके सज़दे किये हैं तमाम रात। अल्लाह रे शगल जाहिदे-शब-जिन्दादार1 का।। किया जो मना मैकदे जाने से वाइज ने। तो रोज उठ के यही काम सुबह-ओ-शाम किया।। महफ़िले-वाज में वाइज न मेरे सर होता। एवज़े-शीशा2 अगर हाथ में पत्थर होता।। देखकर शोख़ हसीनों को बता ऐ नासेह। गुदगुदी दिल में कभी तेरे उठी है कि नहीं।। शेख ये कहता गया पीता गया। है बहुत ही बदमज़ा3 बू भी नागवार है।। जी न माना हज़रते-नासेह को देखकर। कुछ यूँ ही थोड़ी सी पी ली दिल्लगी के वास्ते।। जिस काम को तू मना करेगा हमें नासेह। हम छोड़ के सौ काम वही काम करेंगे।। ऐ शेख तू चुरा के पिये जब कभी पिये। तेरी तरह किसी की न नीयत खराब हो।। जनाबे-शेख ने जब पी तो मुँह बना के कहा। ‘‘मजा भी तल्ख़ है कुछ बू भी खुशगवार नहीं’’।। पाक-ओ-साफ़ इतनी जिसने पी फ़रिश्ता हो गया। जाहिदों यह हूर के दामन में है छानी हुई। यह तो हुई मैकशी की बात। अब रियाज़ के इश्क़, आशिक और माशूक की बात करते हैं। माशूक के हुस्न की तारीफ का अंदाज देखिये। तेरा यह रंग रूप, यह जोबन शबाब का। जैसे चमन बहार में फूला-फला हुआ।। थी दिल में गुदगुदी कि पूछूँ दमे-विसाल। यह तूँ हँसा कि फूल खिला तेरे हार का।। और - वोह तस्वीर आज तक महफ़ूज4 है चश्मे-तसव्वुर5 में। तेरे बचपन से जब अठखेलियाँ करता शबाब आया।। 1. जाहिदे शब जिन्दादार- रातों को जाग कर इबादत करने वाला; 2. एवजे शीशा- गिलास के बजाय; 3. बदमजा - खराब स्वाद वाली; 4. महफूज- सुरक्षित; 5. चश्मे तसव्वुर- कल्पना की नज़र। हुए हंगामा-ए-हश्र1 कितने गोशाये2-दिल में। वोह मेरे सामने कुछ इस अदा से बेनकाब आया।। और उसकी नजाकत का अंदाज देखिये - वोह सिन3 ही क्या है समझ हो जो ऐसी बातों की। वोह पूछते हैं कि-‘‘रोजे-विसाल क्या होगा ?’’ शर्माेहया का आलम देखिये- नशे से झुकी पड़ती थी यूं ही तेरी आँखें। छेड़ों से मेरी और बढ़ा बोझ हया का।। दिल छीनती हैं और झुकी जाती हैं आँखें। शोखी में भी जाता नहीं अन्दाज़ हया का।। कह उठे-‘‘चुप क्यों हो विसाल के बाद ?’’ खुद ही शरमा गये इस सवाल के बाद।। और शोखियों की तो बात ही क्या है‒ वक़्त ही ऐसा था रूख़सत हो गयी उनकी हया। बात ही ऐसी थी खुल खेले वो शरमाने के बाद।। माशूक का हरज़ाईपन और बेवफाई तो लख़नवी स्कूल की विशेषता है, तो फिर रियाज़ का हबीब क्यूँ कम हरज़ाई या बेवफ़ा होगा‒ गैर के घर से झिझकते हुए तुम निकले थे। रुकते देखा तुम्हें फिर छुपके निकलते देखा।। कभी कुछ रात गये या कभी कुछ रात रहे। हमने इन परदानशीनों को निकलते देखा।। और आशिक मियाँ फिर आवारा क्यूं न हो - बाज़ार में भी चलते हैं तो कोठों को देखते। सौदा खरीदते हैं तो बस ऊँची दुकान का।। लूटी है बहुत हमने हसीनो की जवानी। पीरी में भी अब तक है जवानी की वही बात।। हमको मिल जायें तो आ जाये मजा, अच्छे माशूक और सस्ते दाम के। जितने माशूक हैं मिल जायें हमें, हैं ये काफ़िर सब हमारे काम के।। 1. हंगामा ए हश्र- कयामत के दिन के हंगामे; 2. गोशये दिल - दिल के कोने में; 3. सिन- उम्र। जब माशूक और आशिक बाज़ारी है तो फिर इश्क़ कैसा होगा? ये भी देखिये- कहते हैं ‘‘जान पड़ गई आफ़त में वक्ते-वस्ल’’। ‘‘मल दल के रख दिया मुझे अच्छा ये प्यार है’’।। कहना किसी का सुबहे-शबे-वस्ल1 नाज़ से। ‘‘हसरत तुम्हारी जान हमारी निकल गई’’।। मैंने लिया जो हश्र में दामन बढ़ा के हाथ। बोले वोह, ‘‘आबरू है मेरी अब खुदा के हाथ’’।। बढ़ने लगे थे दस्ते-अदब2 बनके दस्ते-शौक3। ज़ालिम ने आज थाम लिये मुस्कुरा के हाथ।। लेकिन इक्का दुक्का शेर पाक-इश्क पर भी मिलता है कलामे-रियाज़ में, नमूना देखिये- ताअत4 का इन बुतों ने सलीका सिखा दिया। खुद क्या मिले कि मुझको खुदा से मिला दिया।। और तसव्वुफ तथा फ़लसफा तो पहले आप देख ही चुके हैं, फिर भी एक और नमूना देखिये- जिनके दिल में है दर्द दुनिया का। वही दुनिया में जिन्दा रहते हैं।। जो मिटाते हैं खुद को जीते जी। वही मरकर भी जिंदा रहते हैं।। और अंत में‒ ऐसे हर शख़्स को मेरा झुककर सलाम। खुलकर जो कहे हर बात को सरेआम।। * 1. सुब्हे शबे वस्ल- मिलन की रात्रि की सुबह; 2. दस्ते अदब- अदब से उठने वाले हाथ; 3. दस्ते शौक- मज़े लेने वाले हाथ; 4. ताअत - पूजा, उपासना।

सैयद अकबर हुसैन ‘अकबर’ इलाहाबादी अब हम ‘अकबर’ इलाहाबादी साहब का जिक्र करेंगे। जब अकबर साहब ने शायरी शुरू की उस समय अँग्रेजी शासन और पाश्चात्य संस्कृति हमारी जमीन और समाज पर प्रभावी हो रहा था। अकबर इन दोनों ही के खिलाफ़ थे और इसी कश्मकश की गूँज उनकी शायरी में मिलती है। अकबर हिन्दोस्तान के नैतिक मूल्यों के हिमायती थे और जन-मानस की भावनाओं के साथ खिलवाड़ भी उन्हें ना पसन्द था। अपनी शायरी के जरिये उन्होंने यहाँ के नैतिक मूल्यों और भावनाओं की रक्षा करनी चाही। उन्होंने अँग्रेजों के द्वारा भारत की राजनैतिक और आर्थिक लूट खसोट के षड्यंत्र को भली प्रकार से समझ लिया था। अकबर की शायरी का अंदाज मजाकिया था परन्तु बात वे दर्द की करते थे। वे शायद अपने मन की पीड़ा को मुस्कान में छिपाना चाहते थे। उन्होंने उर्दू के साथ अँग्रेजी, फ़ारसी, अरबी और हिन्दी शब्दों का प्रयोग करके अपना एक नया भाषाई अंदाज बनाया। उन्होंने औरतों की बेपर्दगी, फैशन और नये वैज्ञानिक आविष्कारों पर तंज कसे। उस समय में विद्यमान परिस्थितियों को परिलक्षित करती उनकी एक रचना पेशे-खिदमत है। है क्षत्तिरी1 भी चुप कि न पट्टा, न बाँक2 है ! पूरी भी ख़ुश्क़ लब है कि घी छः छटाँक है।। गो हर तरफ़ हैं खेत फलों से भरे हुए ! थाली में ख़रबूज़े की फ़कत एक फाँक है !! कपड़ा-गराँ3 हैं, सत्र4 है औरत का आशकार5। कुछ बस नहीं जबाँ पे फ़कत ढाँक ढाँक है !! भगवान का करम हो स्वदेशी के बैल पर ! लीडर की खींच खाँच है, गाँधी की हाँक है! अकबर पे बार है यह तमाशाए-दिलशिकन6। उसकी तो आख़िरात7 की तरफ ताँक झाँक है।। 1. क्षत्तिरी- क्षत्रिय; 2. बाँक- सजधज; 3. कपड़ा गराँ- कपड़ा बोझ है; 4. सत्र- अंग; 5. आशकार- जाहिर; 6. तमाशाए दिलशिकन- दिल तोड़ने वाले नजारे; 7. आख़िरत- मृत्यु, अन्त की और। अकबर को अपने सोच अपने नज़रिये को जाहिर करने हेतु एक माध्यम की तलाश रहती थी। यह माध्यम शेरो-शायरी बनी। लेकिन देखिये उन्होंने खुद क्या कहा इस बाबत- हुक्काम से नियाज़1 न गाँधी से रब्त2 है। अकबर को सिर्फ़ नज़्मे-मजाज़ी3 का ख़ब्त है।। हँसता नहीं वह देख के इस कूद फाँद को। दिल में तो कहकहे हैं, मगर लब पे ज़ब्त है।। अकबर साहब के शेर ही नहीं गजलें भी फड़कती हुई होती थी, एक ऐसी ही गज़ल पेश है- हस्ती-के-शज़र4 में जो यह चाहो कि चमक जाओ। कच्चे न रहो बल्कि किसी रंग में पक जाओ।। मैंने कहा कायल मैं तसव्वुफ का नहीं हूँ। कहने लगे इस बज़्म में जाओ तो थिरक जाओ।। मैंने कहा कुछ ख़ौफ़ कलेक्टर का नहीं है। कहने लगे आ जाएँ अभी वह तो दुबक जाओ।। मैंने कहा वर्जिश की कोई हद भी है आख़िर। कहने लगे बस इसकी यही हद है कि थक जाओ।। मैंने कहा अफ़कार5 से पीछा नहीं छुटता। कहने लगे तुम जानिबे-मयख़ाना6 लपक जाओ।। मैंने कहा ‘अकबर’ में कोई रंग नहीं है। कहने लगे शेर उसके जो सुन लो तो फड़क जाओ।। हिंदू-मुस्लिम कौमों को आपस में लड़ाकर अंग्रेजों ने बाँटो और राज करो की नीति का प्रचलन किया। ‘अकबर’ ने इस रणनीति को समझ कर यह नसीहत दी कि- जिस बात को मुफ़ीद7 समझते हो ख़ुद करो। औरों पे उसका बार न इसरार8 से धारो।। हालात मुख़्तलिफ़9 हैं, जरा सोच लो ये बात। दुश्मन तो चाहते हैं कि आपस में लड़ मरो।। 1. नियाज- मुलाकात; 2. रब्त - लगाव; 3. नज़्मे मजाज़ी- वास्तविकता बयान करने वाली नज़्म; 4. हस्ती का शजर- अस्तित्व का पेड़; 5. अफ़कार- चिन्ताएं, फिकर; 6. ज़ानिबे मयखाना- मयखाने की तरफ; 7. मुफ़ीद- फायदे मंद; 8. इसरार- जबर दस्ती; 9. मुख़्तलिफ़- अलग। बिजली की रोशनी और उसके लैम्पों की चका-चौंध से आँखों को परेशानी न हो, इस बात के डर का खुलासा करता अकबर का शेर पेश है- बर्क1 के लैम्प से आँखों को बचाए अल्लाह। रोशनी आती है और नूर चला जाता है।। महात्मा गाँधी के आजादी और स्वराज आंदोलनों ने भी अकबर के जेहन को खूब झकझोरा। गाँधी के स्वदेशी आंदोलन पर अकबर का लिखा कतआ पेश है- किया तलब जो स्वराज भाई गाँधी ने। मची यह धूम कि ऐसे ख़याल की क्या बात।। कमाले-प्यार से अँग्रेज़ ने कहा उनसे। हमीं तुम्हारे हैं, फिर मुल्क-ओ-माल की क्या बात।। उस समय ‘गाँधी’ का नाम आजादी की लड़ाई में तेजी के साथ उभर रहा था और वे अंग्रेजों के लिये एक सर दर्द बन रहे थे। अँग्रेज उनको गिरफ़्तार करते थे और छोड़ देते थे। अस्ल में वो आजादी के आंदोलन में भी दो फाँक कर देना चाहते थे। अकबर ने इस मौजू पर कहा कि- पूछता हूँ ‘‘आप गाँधी को पकड़ते क्यूं नहीं’’? कहते हैं ‘‘आपस ही में तुम लोग लड़ते क्यूं नहीं’’?? पेच किस्मत के तुम्हारे जब दिखायेंगे कभी। ‘‘आदिलाना2 रंग में उठ कर करेंगे हम जजी’’ ।। उनकी शायरी का दौर सियासत में गाँधी और अँग्रेजों का दौर था और सब आँख बंदकर गाँधी की आँधी में बह रहे थे। इस बात का बयान देखिये- नहीं हरगिज़ मुनासिब पेश-बीनी3 दौरे-गाँधी में। जो चलता है वह आँखें बन्द कर लेता है आँधी में।। इस दौर में आम आदमी अँग्रेज सरकार में क्लर्की करने ही को सफलता मान लेता था। वह पढ़ लिखकर, अँग्रेजी तालीम हासिल करता, बी.ए. की डिग्री हासिल करता, फिर नौकरी पा लेता और पेन्शन याफ़्ता होकर मर जाता। इस बात को बयां करता शेर पेश है- हम क्या कहें अहबाब4 क्या कारे-नुमायाँ5 कर गए। बी.ए.किया, नौकर हुए, पेन्शन मिली, फिर मर गए।। 1. बर्क- बिजली; 2. आदिलाना- न्याय संगत; 3. पेशबीनी- आगे देखना; 4. अहबाब- रिश्तेदार; 5. कारे नुमायाँ- बड़ा काम कारनामा। अँग्रेजी सरकार में सेवारत ये बाबू लोग अंत पंत यही नतीजा निकालते कि अंग्रेजों ने उन्हें बेवकूफ बनाया है। अकबर ने उनकी भावनाओं को समझ कर फरमाया कि- हमें भगवान की कृपा ने तो बाबू बनाया है। मगर योरप के शाला लोग ने उल्लू बनाया है।। मगर उस समय का आम हिन्दोस्तानी इसी बाबूगिरी में अपनी किस्मत मानता था- चार दिन की जिन्दगी है कोफ़्त से क्या फायदा। खा डबल रोटी, क्लर्की कर, खुशी से फूल जा।। उर्दू शायरी में अंग्रेजी शब्दों का चलन सबसे पहले अकबर साहब ही ने आरंभ किया। यद्यपि अंग्रेजी में काफ़िये मिलाने का काम किन्हीं दूसरे शायर साहब ने किया। अँग्रेजी के शब्दों के काम में लेने के पीछे अकबर साहब का खास मतलब शेरों में तंज डालना होता था। चन्द अशआर पेशे-खिदमत हैं। ‘कान्फ्रेंस’ अहबाब से पुर है, जो सफ़ है वह सिल्के-दुर1 है। सब को याद उस्ताद का गुर है, दिलकश हर ‘इस्पीच’ का सफ़र है।। शेख को उल्फ़त हो गई ‘मिस’ की, खूब पिये अब शौक़ से ‘व्हिस्की’। अगली दुनिया दह्र से खिसकी, बैठा कौन है शर्म है किसकी।। छोड़ ‘लिट्रेचर’ को अपनी ‘हिस्ट्री’ को भूल जा। शेखो-मस्जिद से तअल्लुक़2 तर्क3 कर, ‘स्कूल’ जा।। ‘एग्ज़िबीशन’ की शान अनोखी, हर राय उम्दा हर शय चोखी। ‘ओक्लीदस’ की नापी-जोखी, मन भर सोने की लागत सोखी।। हर चन्द कि ‘कोट’ भी है ‘पतलून’ भी है। ‘बँगला’ भी है ‘पॉट’ भी है साबुन भी है।। लेकिन यह मैं तुझसे पूछता हूँ हिन्दी। ‘योरोप’ का तेरी रगों में कुछ खून भी है।। ‘नेटिव’ नहीं हो सकते जो गोरे हैं तो है क्या ग़म। गोरे भी तो बन्दे से खुदा हो नहीं सकते।। हम हों जो ‘कलेक्टर’ तो वह हो जाएं ‘कमिश्नर’। हम उनसे कभी ओहदाबरां4 हो नहीं सकते।। 1. सिल्के दुर- मोतियों की लड़ी; 2. तअल्लुक- सम्बन्ध; 3. तर्क- खत्म; 4. ओहदाबरां- ऊँचे ओहदे वाला। मयख़ानये ‘रिफ़ार्म’ की चिकनी जमीन पर। वायज़ का ख़ानदान भी आख़िर फिसल गया।। कैसी नमाज़ ‘बाल’ में नाचो जनाबे-शेख़। तुमको ख़बर नहीं कि ज़माना बदल गया।। न कुछ इन्तज़ारे-गज़ट कीजिए। जो ‘अफसर’ कहे बस वह झट कीजिए।। बहुत शौक है अँग्रेज़ बनने का। तो चेहर पे अपने गिलट कीजिए।। अजल1 आई ‘अकबर’ गया वक़्ते बहस। अब ‘इफ’ कीजिए और न ‘बट’ कीजिए।। समाज में अँग्रेज़ियत आने की मुख़ालफ़त2 भी अकबर साहब ने बहुत जोरों से की। खासकर मुस्लिम समाज में जो बे-पर्दगी का आलम आया वह उन्हें नागवार था। इस बेहयाई के लिए उनका लिखा कतआ पेशे-ख़िदमत है। बे-पर्दा कल जो आईं नज़र चन्द बीबियाँ। ‘अकबर’ ज़मीं में ग़ैरते-क़ौमी3 से गड़ गया।। पूछा जो उनसे आपका पर्दा वह क्या हुआ। कहने लगी कि अक़्ल पे मर्दों की पड़ गया।। मगरिबी तालीम ने जो देश की हवा खराब की उस पर लिखा एक तंज पेशे ख़िदमत है। नज़्द4 में भी मग़रिबी तालीम जारी हो गई। लैला-ओ-मजनूँ में आखिर फ़ौज़दारी हो गई।। मगरिब में औद्योगिक क्रांति आई तो भाप का आविष्कार हुआ, बिजली की खोज़ हुई और इन चीजों की सामाजिक अहमियत लोगों को समझ आई। लेकिन अकबर को इन आविष्कारों से डर ज्यादा लगता था क्योंकि ये कल-कारखाने इंसानियत को ख़तरे में डाल रहे थे। इस विचार को प्रकट करते उनके कुछ कतआत पेश हैं। भूलता जाता है योरप आसमानी बाप को। बस ख़ुदा समझा है उसने बर्क़ को और भाप को।। बर्क गिर जाएगी इक दिन और उड़ जायेगी भाप। देखना ‘अकबर’ बचाए रखना अपने आपको।। 1. अजल- मृत्यु; 2. मुख़ालफत- विरोध; 3. गैरते कौमी- जातिगत लज़्ज़ा, शर्म; 4. नज्द- वह शहर जहाँ लैला तथा मज़नू रहते थे। इंजन आया निकल गया ज़न से, सुन लिया नाम आग पानी का। बात इतनी और इसपे यह तूमार1, गुल है योरप में जाँफ़शानी2 का।। शेख-दरगोर-औ-क़ौम-दर-कालेज3, रंग है दौरे-आस्मानी का। कत्ल से पहले दी ‘क्लोरोफ़ार्म’, शुक्र है उनकी मेहरबानी का।। अजानों से सिवा बेदार-कुन4 इंजन की सीटी है। इसी पर शेख़ बेचारे ने छाती अपनी पीटी है।। गए शरबत के दिन यारों के आगे अब तो ए ‘अकबर’। कभी ‘सोडा’ कभी ‘लिमनेड’ कभी ‘व्हिस्की’ कभी ‘टी’ है।। आपकी एक खूबसूरत गज़ल पेशे-खिदमत है। आँखें मुझे तलवों से वह मलने नहीं देते। अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते।। खातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते। सच है कि हमीं दिल को संभलने नहीं देते।। किस नाज़ से कहते हैं वह झुंझला के शबे-वस्ल। तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते।। पर्वानों ने फ़ानूस को देखा तो यह बोले। क्यों हमको जलाते हो कि जलने नहीं देते।। हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्जे-तमन्ना5। दुश्मन को तो पहलू से वह टलने नहीं देते।। दिल वह है कि फरियाद से लबरेज है हर वक्त। हम वह हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते।। गर्मीए-मुहब्बत में वह हैं आह से माने। पंखा नफ़से-सर्द6 का झलने नहीं देते।। अब चन्द नसीहती अशआर जिनमें अकबर साहब का दुनियावी तजुर्बा झलकता है पेश करता हूँ। अंदाज कभी कभी मज़ाकिया है पर बातें सटीक हैं। आप ग़ौर करें। तरकीबो-तकल्लुफ़7 लाख करो फितरत नहीं छुपती ऐ ‘अकबर’। जो मिट्टी है वह मिट्टी है, जो सोना है वह सोना है।। 1. तूमार- झूठी बातें, बढ़ी-चढ़ी बातें; 2. जाँफशानी- बड़ी मेहनत; 3. शेख दरगोर औ कौम दर कालेज- शेखजी कब्र में और कौम कॉलेज में; 4. बेदार कुन- जगाने वाली; 5. अर्जे तमन्ना- इच्छा की अभिव्यक्ति; 6. नफस ए सर्द- ठंडी साँसों; 7. तरकीबो-तकल्लुफ़- दिखावट की तरकीबें। काम कोई मुझे बाक़ी नहीं मरने के सिवा। कुछ भी करना नहीं अब कुछ भी न करने के सिवा।। हसरतों का भी मेरी तुम कभी करते हो ख़याल। तुमको कुछ और भी आता है सँवरने के सिवा।। फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी। ये वफ़ा कैसी थी, साहब ये मुरव्वत कैसी।। है जो किस्मत में वही होगा, न कुछ कम न सिवा। आरजू कहते हैं किस चीज़ को, हसरत कैसी।। इनायत1 मुझपे फ़रमाते हैं शेख़-ओ-बिरहमन दोनों। मवाफ़िक2 अपने-अपने पाते हैं मेरा चलन दोनों।। मुझे होटल भी खुश आता है और ठाकुर द्वारा भी। तबर्रूक3 है मेरे नज़दीक परशाद-ओ-‘मटन’ दोनों।। सिधारें शेख काबे को, हम ‘इंगलिस्तान’ देखेंगे। वह देखें घर खुदा का, हम खुदा की शान देखेंगे।। तेरी दीवानगी पर रह्म आता है हमें ‘अकबर’। कोई दिन वह भी होगा हम तुझे इंसान देखेंगे।। मुल्क में मुझको जलीलो-ख़्वार4 रहने दीजिए। आप अपनी इज़्ज़ते-दरबार5 रहने दीजिए।। ‘टेम्ज’ में मुमकिन नहीं नज़्ज़ारा-ए-मौज़े-फ़रात6। ऐसी ख़्वाहिश को समुन्दर पार रहने दीजिए।। दीन-ओ-मिल्लत की तरक्की का ख़्याल अच्छा है। अस्ल मजबूत हो जिसकी वह निहाल अच्छा है।। बखुदा हिन्द के पुर्जें भी गज़ब ढ़ाते हैं। यह गलत है कि विलायत ही का माल अच्छा है।। अपना रंग उनसे मिलाना चाहिए। आज-कल पीना-पिलाना चाहिए।। 1. इनायत- कृपा, रहम, मेहरबानी; 2. मवाफिक- अनुसार; 3. तबर्रूक- बरकत, प्रसाद; 4. जलीलो ख्वार- बे-इज़्ज़त और पीड़ित; 5. इज़्ज़ते दरबार- दरबार की इज़्ज़त; 6. नज़्ज़ारा ए मौजे फरात- फरात नदी की मौज (लहरों) का नज़ारा। खूब वह दिखला रहें हैं सब्ज़-बाग। हम को भी कुछ गुल खिलाना चाहिए।। कुछ न हाथ आए मगर इज़्ज़त तो है। हाथ उस मिस से मिलाना चाहिए।। अकबर एक अलग अंदाज में लिखते थे। एकदम साफ गोई पसन्द ! जो मन में आया कह दिया। अपने लिये खुद उनका कहना था कि- आप क्या पूछते हैं मेरा मिज़ाज़। शुक्र अल्लाह का है, मरता हूँ।। यह बड़ा ऐब मुझ में है ‘अकबर’। दिल में जो आये कह गुज़रता हूँ।। लेकिन इस बात का भी उनको पूरा अहसास था कि दुनिया पर उनकी बातों का कुछ खास असर नहीं होता। इसीलिए उन्होंने फर्माया कि- फ़ारसी उठ गई, उर्दू की वह इज़्ज़त न रही। है जुबाँ मुँह में मगर उसकी वह कुव्वत न रही।। बन्द कर अपनी ज़ुबाँ, तर्के-सुखन1 कर ‘अकबर’। अब तेरी बात की दुनिया को ज़रूरत न रही।। अपनी जुबान को वह इसी बात पर राज़ी करने की कोशिश करते रहे कि वह ज्यादातर चुप ही रहे। उन्हीं की ज़ुबानी- ज़क़-ज़क़-ओ बक़-बक़ में दुनिया के न हो ‘अकबर’ शरीक। चुप ही रहने पर ज़बाने-तेज़ को राज़ी करो।। पर शेर कहना बदस्तूर जारी रहा क्यों कि शेरों पर दाद भी तो बहुत मिलती थी- ताने सुनते हैं मगर शेर कहे जाते हैं। दाद के शौक़ में बेदाद2 सहे जाते हैं।। आप फ़रमाते हैं हो लह्र तरक्की की तो आ। मौजें कहती हैं कि यह खुद ही बहे जाते हैं।। हर आदमी अपने नाम के लिये जीता है। शायर भी शायद दाद पाने के लिए शायरी करते हैं। कुछ खुद को अमर करने के लिए दीवान छपवाते हैं परन्तु अंत-पंत सब मर खप जाते हैं। इस पर ‘अकबर’ ने कहा कि- 1. तर्के सुखन- शेरो शायरी को खत्म; 2. बेदाद - जुल्मोसितम। हुलिया बदली, घर को छोड़ा, कागजों में छप गये। चन्द रोजा खेल था आखिर को सब मर खप गये।। अकबर साहब को कौम के अनपढ़ होने का भी गम था। उन्होंने तत्कालीन जूता बनाने वाली कम्पनी से तुलना करके इस अंदाज में अपना दर्द जाहिर किया। बूट डासन ने बनाया, मैंने एक मजमूँ लिखा। मुल्क में मज़मूँ न फैला और जूता चल गया।। इसके साथ ‘अकबर’ साहब को खुदा हाफिज़ कह हम अपना सफ़र आगे बढ़ाते हैं। *

शौकत अली खाँ ‘फ़ानी’ बदायूनी जिन्दगी में निराशा के गर्त में डूबा इक इंसान तंग आकर यह फरमाता है कि- देख ‘फ़ानी’ वोह तेरी तद्बीर की मैयत न हो। इक ज़नाजा जा रहा है, दोश1 पर तकदीर के।। यह तद्बीर से हारा हुआ सख़्श था ‘फानी’ बदायूनी। उन्होंने हर संभव प्रयास किया पर कहीं भी सफलता न मिली। खुदा की रहमत ने भी जब ‘फ़ानी’ से किनारा कर लिया तो उन्होंने फर्माया कि - या रब ! तेरी रहमत से मायूस नहीं ‘फ़ानी’। लेकिन तेरी रहमत की ताख़ीर2 को क्या कहिये।। फानी को यासयात3 का इमाम कहा जाता है, जो हमेशा दुखी रहता है, दर्द की बातें करता है, और मौत का रहनुमा होता है। उनकी शायरी मे कफ़न, मैयत, जनाज़ा, मज़ार आदि शब्दों की भरमार है जो उनमें मौजूद गहन निराशा के द्योतक हैं। जिंदगी के लिये उनका रवैया था कि - एक मुअम्मा4 है, समझने का न समझाने का। जिन्दगी काहे को है ? एक ख़्बाब है दीवाने का।। वे अपने आप को मनहूस मानते थे और समझते थे कि उनके आने भर से वीराना आबाद हो जाता है। उन्होंने कहा कि - याँ मेरे कदम से है वीराने की आबादी। वाँ घर में खुदा रक़्खे आबाद है वीरानी।। और‒ तामीरे-आशियाँ5 की हविस का नाम है बर्क6। जब हमने कोई शाख चुनी शाख जल गई।। 1. दोश - कंधा; 2. ताख़ीर- देर विलंब; 3. यासयात- मायूसियाँ, निराशायें; 4. मुअम्मा- पहेली; 5. तामीरे आशियाँ- मकान बनाना; 6. बर्क- बिजली। ग़ालिब को भी ताजिन्दगी सफलता ना मिली पर वे उससे निराश नहीं हुये। उनके घर की दीवारों पर काई जम गई तो उन्होंने तंज करते हुये कहा कि मेरे घर में बहार आ गई है - उग रहा है दरो-दीवार से सब्जा1 ग़ालिब। हम बयाबाँ में है और घर में बहार आई है।। लेकिन ‘फ़ानी’ साहब ने अपनी सारी उम्र गमों की निराशा में ही गुज़ार दी। अपनी तो सारी उम्र ही ‘फ़ानी’ गुज़ार दी। इक मर्गे-नागहाँ2 के गमे-इन्तज़ार में।। रोते-बिसूरते जिन्दगी काटने वालों को खुदा खुशी देता भी नहीं। एक कहावत है कि जो ‘रोते हुए जाता है वो मरे की खबर लाता है’। फ़ानी ऐसे ही रोने-बिसूरने वाले शायर थे। उनके इस गमज़दा अन्दाज़ के चन्द शेर पेशे-ख़िदमत हैं- आया है बादे-मुद्दत बिछड़े हुए मिले हैं। दिल से लिपट लिपट कर ग़म बार-बार रोया।। नाज़ुक है आज शायद, हालत मरीजे ग़म की। क्या चारागर ने समझा क्यों बार-बार रोया।। दिल में जौक़े-वस्ल3 और यादे-यार तक बाकी नहीं। आग इस घर को ऐसी लगी कि जो था जल गया।। किससे महरूमिये-क़िस्मत4 की शिकायत कीजे। हमने चाहा था कि मरा जाये, सो वह भी न हुआ।। ‘फ़ानी’ का जन्म बदायूँ में 1776 में हुआ। उनके परदादा बदायूँ के गर्वनर थे और उनकी 200 गाँवों की जागीर थी। परन्तु जागीर जाती रही और उनके पिता को मुलाज़मत करनी पड़ी। ‘फ़ानी’ ने बी. ए., एल. एल. बी. पास किया लेकिन उनकी वकालत कहीं भी न चल पाई। हैदराबाद के प्रधान किशन प्रसाद ‘शाद’ ने हैदराबाद बुलाया तो वहाँ पर भी उन्हें हाई स्कूल की हेडमास्टरी से ज्यादा कुछ नसीब न हुआ। वहाँ उनकी पत्नी और पुत्री चल बसी और जीवन रो रो कर ही बीता। दो दीवान शायरी के लिखे तो दोनों गुम हो गये। काफ़ी दिनों तक शायरी से दूर रहने के बाद में जाकर उनके तीन दीवान छपे जिनमें दो के नाम थे ‘वाकियाते-फ़ानी’ और ‘वजदानियाते फ़ानी’। वे इतने निराश हो गये थे कि कश्मीर की रंगीं वादियाँ भी उनका जी नहीं बहला सकी और निशात बाग में भी उन्हें निराशा की तस्वीर ऩजर आई। 1. सब्जा - हरियाली; 2. मर्गे नागहां- बे वक्त मौत; 3. ज़ौक़े वस्ल- मिलन की चाहत; 4. महरूमिये किस्मत- किस्मत की कमी। इस बाग में जो कली नज़र आती है। तसवीरे-फसुर्दगी1 नज़र आती है।। कश्मीर में हर हसीन सूरत ‘फ़ानी’। मिट्टी में मिली हुई नज़र आती है।। फूलों की नज़र-नवाज़2 रंगत देखी। मख़लूक3 की दिल-गुदाज़ हालत देखी।। कुदरत का करिश्मा नज़र आया कश्मीर। दोज़ख में समोई4 हुई ज़न्नत देखी।। यानि कश्मीर में भी उनको दोज़ख ही नजर आई और वहाँ की हर हसीन सूरत भी मिट्टी में मिली ही दिखाई दी। इंसान अपने ही नजरिये से दुनिया को देखता है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने दर्द के सिवा शायरी न की हो। इश्क़िया रंग में भी उनकी शायरी है और तसव्वुफ में भी। उनकी शायरी में कहीं मीर का सोजो-गुदाज है तो कहीं गालिब का फ़लसफ़ा। इश्क़ के बारे में उनका फर्माना था कि - इश्क़ है परतवे-हुस्ने-महबूब5। आप अपनी ही तमन्ना क्या खूब।। माशूक की याद के बारे में उन्होंने कहा कि - अब लब पै वोह हंगामये-फरियाद नहीं है। अल्लाह रे तेरी याद कि कुछ याद नहीं है।। उसको भूले हुए तो हो ‘फ़ानी’। क्या करोगे अगर वोह याद आया।। गिले और करम पर उन्होंने फर्माया कि - निगाहे-क़हर ख़ास है मुझ पर। यह तो अहसाँ हुआ सितम न हुआ।। अब करम है तो ये गिला है मुझे। कि मुझी पर तेरा करम न हुआ।। 1. तस्वीरे फसुर्दगी- उदासी की सूरत; 2. नज़र नवाज- नज़र को खुश करने वाली; 3. मख़लूक- दुनिया; 4. समोई- डूबी हुई; 5. परतवे हुस्ने महबूब- माशूक के हुस्न का अक्स (बिंब)। और दीदबाज़ी पर उनका कहना था कि - यूं मिली हर निगाह से वो निगाह। एक की एक को ख़बर न हुई।। आज तस्कीने-दर्दे-दिल1 ‘फ़ानी’। वह भी चाहा किये, मगर न हुई।। निगाहे-नाज़ और उसपे तबस्सुम, हुस्न का यह जलवा और फ़ानी का बयान- लो तबस्सुम2 भी शरीके-निगाहे-नाज़3 हुआ। आज कुछ और बढ़ा दी गई कीमत मेरी।। जफ़ा के शिकवे और आहोज़ारी पर उन्होंने कहा कि - हर राह से गुज़रकर दिल की तरफ़ चला हूँ। क्या हो जो उनके घर की यह राह भी न निकले।। शिकवा न कर फुगां का, वह दिन खुदा न लाये। तेरी जफ़ा4 पै दिल से जब आह भी न निकले।। और खुशी के बारे में उनका फर्माना था कि - गुल दिये थे तो काश फस्ले-बहार। तूने काँटे भी चुन लिये होते।। और अब चन्द शेर तसव्वुफ तथा फ़लसफ़े के - तू कहाँ है कि तेरी राह में यह काबा-ओ-दैर। नक़्श बन जाते हैं मंजिलें नहीं होने पाते।। जिंदगी की दूसरी करवट थी मौत। जिन्दगी करवट बदल कर रह गई।। मिज़ाजे-दहर5 में उनका इशारा पाये जा। जो होसके तो बहर-हाल6 मुस्कुराये जा।। बहार लाई है पैग़ामे-इन्कलाबे-बहार7। समझ रहा हूँ मैं कलियों के मुस्कुराने को।। निगाहें ढूँढ़ती हैं दोस्तों को और नहीं पाती। नज़र उठती है जब जिस दोस्त पर पड़ती है दुश्मन पर।। 1. तस्कीने दर्दे दिल - दिल के दर्द की तसल्ली; 2. तबस्सुम- हँसी, मुस्कान; 3. शरीके निगाहे नाज- नाज भरी निगाह में शामिल; 4. जफ़ा- बेवफाई; 5. मिज़ाजे दहर- ज़माने का स्वभाव; 6. बहर हाल- हर हाल में; 7. पैगामे इन्कलाबे बहार- बहार के आगमन की सूचना। यूं सब को भुला दे कि कोई तुझे न भूले। दुनियाँ में ही रहना है तो दुनिया से गुज़र जा।। चाहे फलसफा हो या तसव्वुफ फ़ानी के अन्दाज़ हमेशा निराशा के ही रहे। बानगी देखिये- न इब्तिदा की खबर है न इन्तहा मालूम। रहा यह वहम कि हम हैं, सो वह भी क्या मालूम ?? यह जिन्दगी की है रूदादे-मुख़्तसर1 ‘फ़ानी’। वजूदे-दर्दे-मुसल्लिम2, इलाज़ ना मालूम।। वे हमेशा ही गमों को अपनाने के हिमायती रहे क्योंकि- ग़म भी गुज़श्तनी3 है, खुशी भी गुज़श्तनी। कर ग़म को अख़्तियार कि गुज़रे तो गम न हो।। मौत के बाद भी उनको गम से निज़ात नज़र नहीं आती थी। मर के टूटा है कहीं सिलसिलाये-कैदे-हयात्4। फ़र्क इतना है कि जंजीर बदल जाती है।। अपनी जिन्दगी के बारे में वे खुद ही फर्मा गये हैं कि - किसी के गम की कहानी है ज़िन्दगी-ए-फ़ानी। जमाना इक फ़साना है मेरे नालों का।। फ़ानी की ज़िन्दगी भी क्या ज़िन्दगी थी या रब। मौत और ज़िन्दगी में कुछ फ़र्क चाहिए था।। * 1. रूदादे मुख़्तसर- संक्षेप में माजरा; 2. वजूदे दर्दे मुसल्लिम- कायम रहने वाला दर्द, दर्द का स्थायित्व; 3. गुजश्तनी- गुजर जाने वाली, नापायेदार; 4. सिलसिलाये कैदे हयात्- जीवन बंधन की निरंतरता।

सैयद अनवर हुसैन ‘आरजू’ लख़नवी लख़नवी स्कूल के एक और बेहतरीन शायर थे सैयद हुसैन ‘आरजू’ ये 1872 में लखनऊ में पैदा हुए और वहीं पर पले बसे। आपके पिता ज़ाकिर हुसैन ‘यास’ और बड़े भाई यूसुफ हुसैन ‘कयास’ भी अच्छे शायर थे। जब ‘आरज़ू’ तेरह वर्ष के थे तब उन्हें ‘जलाल’ की शागिर्दी नसीब हो गई। अपने पहले मुशायरे में ‘आरजू’ लख़नवी ने जो गज़ल पढ़ी उसके दो शेर पेशे-ख़िदमत हैं- हमारा जिक्र जो जालिम की अंजुमन में नहीं। जभी तो दर्द का पहलू किसी सुखन में नहीं।। शहीदे-नाज़1 की महशर2 में गवाही दे कौन ? कोई लहू का भी धब्बा मेरे कफ़न में नहीं।। आपके तीन दीवान जारी हुए, ‘फ़ुगाने आरज़ू’, ‘जहाने आरज़ू’ और ‘सुरीली बाँसुरी’। विभाजन के बाद आरज़ू पाकिस्तान चले गये। आपके कलाम के चन्द बेहतरीन नमूने पेशे-खिदमत हैं- दामन उस यूसुफ का आया पुरज़े हो कर हाथ में। उड़ गई सोने की चिड़िया रह गये पर हाथ में।। नादाँ की दोस्ती में जी का ज़रर3 न जाना। इक काम कर तो बैठे, और ‘हाय’ कर न जाना।। नादानियाँ हजारों, दानाई 4 इक यही है। दुनिया को कुछ न जाना और उम्र भर न जाना।। नादानियों से अपनी आफ़त में फँस गया हूँ। बेदादगर को मैंने बेदादगर न जाना।। जिंदगी की हक़ीक़त को कितने सरल और सहज तरीके से बयाँ किया गया है इन शेरों में। इश्क़ का तूफानी जज़्बा और जवानी का शबाब कैसा जुल्म ढाता है इसका बयाँ देखिये‒ 1. शहीदे नाज- हसीनों के नाज से शहीद हुए आशिक; 2. महशर- कयामत में न्याय होते वक्त; 3. जरर- नुकसान; 4. दानाई - समझदारी। मुझे मिटा तो दिया कब्ल-अहदे-पीरी1 के। सलूक और दो रोज़ा शबाब क्या करता।। यह बहरे-इश्क़2 का तूफान और ज़रा सा दिल। जहाज उलट गये लाखों हुबाब क्या करता।। पड़े न होते जो गफ़लत के ‘आरजू’ ! परदे। खुदा ही जाने यह जोशे-शबाब3 क्या करता।। और फ़लसफ़े पर एक दो शेर देखिये - बर्क ने की हर तरफ मेरे नशेमन4 की तलाश। चार तिनकों की बिना पर बाग सारा जल गया।। छोड़ दे दो गज़ ज़मीन है दफ़्न जिसमें इक गरीब। है तेरी मश्क़े-ख़िरामेनाज़5 को दुनिया वसीअ6।। है यह सब किस्मत की कोताही वगर्ना ‘आरजू’। बढ़ कि दामाने-तलब7 से हाथ है उसका वसीअ।। (कम से कम मेरे दफ़्न की दो गज जमीन तो छोड़ दे। वर्ना खेल करने के लिए तो तेरे पास पूरा संसार पड़ा है। ये तो मेरी बदनसीबी ही है कि ये हाल है वर्ना आशा करने वालों के आँचलों से देने वाले हाथ ही बड़े और ऊपर होते हैं।) आराम के थे साथी क्या-क्या जब वक्त पड़ा तो कोई नहीं। सब दोस्त हैं अपने मतलब के दुनिया में किसी का कोई नहीं।। और तसव्वुफ का एक शेर अर्ज है कि - परदा जो दुई का उठ जाये फिर यह न रहें अफ़साने दो। धोखा है नामे-दैरोहरम, बुत एक ही है बुतखाने दो।। खारजी रंग का एक शेर पेश है - वक्त थोड़ा और ये भी तय नहीं, किस जगहँ से कीजिये किस्सा शुरू। देखा ललचाई निगाहों का मअल9, ‘आरजू’ लो हो गया पर्दा शुरू।। इश्क़ मुहब्बत और दिल के सुकून के बारे में ‘आरजू’ साहब का फर्माना है कि- क़फ़स से ठोकरें खाती नज़र जिस पेड़ तक पहुँची। उसी पे लेके इक तिनका बिनाए-आशियाँ10 रख दी।। 1. कब्ल अहदे पीरी- बुढ़ापे के आने के पहले; 2. बहरे इश्क़- इश्क़ का समुद्र; 3. जोशे शबाब- जवानी का जोश; 4. नशेमन- घर; 5. मश्के खिरामेनाज़- इठलाकर चलने की आदत; 6. वसीअ- बहुत बड़ी; 7. दामाने तलब- मांगने को फैलाया गया आंचल; 8. नामे दैरोहरम- मंदिर और मस्जिद के नाम; 9. मआल- नतीजा; 10. बिनाए आशियाँ- घर की नींव। सुकूने-दिल नहीं जिस वक्त से इस बज्म़ में आये। जरा सी चीज घबराहट में न जाने कहाँ रख दी।। बुरा हो इस मुहब्बत का हुए बर्बाद घर लाखों। वहीं से आग लग उठ्ठी ये चिनगारी जहाँ रख दी।। किया फिर तुमने रोता देखकर दीदार1 का वादा। फिर इक बहते हुए पानी में बुनियादे-मकाँ2 रख दी।। लगता ये है कि आरजू साहब को भी किस्मत की नाकामी ने काफी परेशान किया होगा। इसलिए तो उन्होंने लिखा कि - नतीज़ा एक ही निकला कि थी किस्मत में नाकामी। कभी कुछ कह के पछताये कभी चुप रह के पछताये।। और फमार्या कि - रहने दो तसल्ली तुम अपनी, दुख झेल चुके दिल टूट गया। अब हाथ मले से होता है क्या, जब हाथ से नावक3 छूट गया।। अब अलग अलग रंग के उनके कुछ चुनिन्दा अशआर पेशे-खिदमत हैं - इश्क पर भी छा गई रअनाईयाँ4। उफ़ तेरी तोड़ी हुई अँगड़ाईयाँ।। उल्फत भी अजब शय है, जो दर्द नहीं दरमाँ5। पानी पे नहीं गिरता, जलता हुआ परवाना।। जमा हुए हैं कुछ हसीं, गिर्द मेरे मज़ार के। फूल कहाँ से खिल गये दिन तो न थे बहार के।। त़जुरबे सब हेच हैं, कानून सब बेकार हैं। हर जमाना इक नया पैगाम लेकर आये है।। किसने भीगे हुए बालों से ये झटका पानी। झूमकर आई घटा टूट कर बरसा पानी।। दो घड़ी को देदे कोई अपनी आँखों की जो नींद। पाँव फैला दूँ गली में तेरी सोने के लिए।। क्यों किसी रहबर से पूछूँ अपनी मंजिल का पता। मौज़े-दरिया6 खुद लगा लेती है साहिल7 का पता।। 1. दीदार- देखना, दर्शन देने; 2. बुनियादे मकाँ- मकान की बुनियाद; 3. नावक- तीर; 4. रअनाईयाँ- बहारें; 5. दरमाँ- इलाज; 6. मौज़े दरिया- समुद्र की लहर; 7. साहिल-किनारा। राहबर1 रहजन2 न बन जाये कहीं, इस सोच में। चुप खड़ा हूँ भूलकर रस्ते में मंजिल का पता।। नैरंगियाँ 3 चमन की तिलिस्मे-फरेब4 हैं। उस जा भटक रहा हूँ जहाँ आशियाँ न था।। पाबन्दियों ने खोल दी आँखें तो समझे हम। आकर कफ़स में बस गये थे आशियाँ न था।। जो दर्द मिटते-मिटते भी मुझको मिटा गया। क्या उसका पूछना कि कहाँ था कहाँ न था।। अब तक वह चारा-साजिये-चश्मे-करम5 है याद। फाहा6 वहाँ लगाते थे, चरका7 जहाँ न था।। साथ हर हिचकी के लब पर उनका नाम आया तो क्या ? जो समझ ही में न आये वह पय़ाम आया तो क्या ?? मय से हूँ महरूम अब भी जो शरीके-दौर हूँ। पाये-साकी से जो ठोकर खा के जाम आया तो क्या ?? सुरूर-शब का नहीं, सुब्ह का खुमार हूँ मैं। निकल चुकी है जो गुलशन से वोह बहार हूँ मैं।। करम पै तेरे नज़र की तो ढह गया वह गुरूर। बड़ा था नाज़ कि हद का गुनहगार हूँ मैं।। दैरोहरम हुए तो क्या, है ये मकान बेमकीं8। सर तो वहाँ झुकेगा जो तेरा हरीमे-नाज9 हो।। क्यों की उसकी ये दिलजोई, दिल जिसका दुखाना है। ठहरा के निशाने को क्या तीर लगाना है?? अन्दाजे-तगाफुल10 पर दिल चोट तो खा बैठा। अब उनकी निशानी को, उनसे भी छुपाना है।। कम-ताकतिये-नालाँ11 अश्कों से मदद ले ले। बेरब्त12 कहानी में पैबन्द लगाना है।। 1. राहबर- राह दिखलाने वाला; 2. रहजन- लुटेरा; 3. नैरंगियाँ- चमन की बहारें; 4. तिलिस्मे फरेब- धोके का जादू; 5. चारा साजिए चश्मे करम- इलाज करने वाले की कृपा दृष्टि; 6. फाहा- दवा डली रूई; 7. चरका - घाव; 8. बेमकीं- ना आबाद; 9. हरीमे नाज- रहने की जगह; 10. अंदाजे तगाफुल- अंजानेपन की अदा; 11. कम ताकतिये नालाँ- कमजोर आहें; 12. बेरब्त- बिना क्रम की। किसी जा गर्द में मोती, कहीं है गर्द मोती में। तेरी राहों को ए तकदीर हमने खूब छाना है।। अलअमाँ1 मेरे ग़मकदे2 की शाम। सुर्ख शोला सियाह हो जाये।। पाक निकले वहाँ से कौन जहाँ। उज्र-ख़्वाही3 गुनाह हो जाये।। इंन्तहाये-करम4 वो है कि जहाँ। बेगुनाही, गुनाह हो जाये।। * 1. अलअमाँ- खुदा की पनाह; 2. गमकदे- गम में डूबा हुआ घर; 3. उज्र ख़्वाही- आपत्ति करना; 4. इंतिहा ए करम - दयालुता का चरम।

सैयद फजलुलहसन ‘हसरत’ मौहानी देहलवी स्कूल के एक और शायर जिन्हें इस नये दौर में शोहरत हासिल हुई वे थे सैयद फजलुलहसन ‘हसरत’। वह सन् 1875 ई. में उन्नाव जिले के मोहाना कस्बे में पैदा हुए। इसलिये ‘हसरत’ मोहानी के तरवल्लुस से शायरी करते थे। ये कट्टर मुसलमान थे और अंग्रेजों के घोर विरोधी थे। सैयद अहमद के अहमदिया आंदोलन के बावजूद वे अंग्रेजों के ख़िलाफ कायम रहे और लोकमान्य तिलक के हिमायती थे। ‘उर्दू-ए-मोअल्ला’ पत्र का संपादन करते थे और काँग्रेस के कार्यकर्ता थे सो जेल तो जाना ही था। किसी के टर्की से सम्बन्धित एक लेख को छापने के सिलसिले में 1908 में दो वर्ष की कैद भुगत ली। उसी समय का कहा गया एक शेर पेश है- है मश्क़े-सुख़न1 जारी, चक्की की मशक्कत भी। इक तुरफ़ा2 तमाशा है, हसरत की तबीयत भी।। स्वदेशी आन्दोलन के समर्थक होने से विदेशी कपड़ों से सख्त परहेज़ रहता था। जेल में रमज़ान का महीना आया तो रोज़े तो रखे पर इफ़्तारी का प्रबंध न होने से खाना बंद, तो शेर कहा - कट गया कैद में माहे-रमज़ान भी हसरत। गरचे सामान सहर3 का था न इफ़्तारी4 का।। ख़िलाफ़त आन्दोलन में भी नजरबंद हुए तो असहयोग आन्दोलन में भी जेल गये। लेकिन धार्मिक कट्टरता के चलते 1924 में मुस्लिम लीग से जुड़ गये। पाकिस्तान के समर्थक हो गये लेकिन बँटवारे के समय पाकिस्तान नहीं गये क्योंकि जिन्ना साहब से पटरी बैठती न थी। हसरत सिर्फ गज़लें लिखा करते थे। फ़लसफ़ा और तसव्वुफ उनको रास नहीं आता था। परन्तु तबीयत सूफियाना थी। उनकी आशिकाना और सूफियाना शायरी का कलाम बहुत कम है। हसरत की आशिकाना शायरी में सच्चाई की झलक मिलती है। सियासत में वे सदैव मुख़ालफ़त 1. मश्के सुखन- शेरो शायरी का अभ्यास; 2. तुरफा- अजीब; 3. सहर- खुबह का नाश्ता; 4. इफ़्तारी- रोज़ा खोलने के समय का भोजन। की आवाज बुलंद करते थे। इसलिए सियासत में भी वे ज्यादा सफ़ल न हो सके। हसरत ने हक़ीक़त में इश्क़ किया और माशूक को बीबी बना लेने में भी सफल रहे। उनका तजुर्बा रहा कि शादी हो जाने पर माशूक माशूक नहीं रहता वह अपना मर्तबा खो बैठता है। हसरत की इश्क़िया शायरी जवानी की शायरी है और उम्र के चढ़ाव के साथ साथ उसमें उतार आता गया। इश्क़िया शायरी जो उस समय प्रचलित थी के चन्द नमूने पेश हैं। ये शेर हसरत साहब के नहीं है। ईद का दिन है परीज़ाद1 हैं सारे घर में। राजा इंदर का अखाड़ा है हमारे घर में।। परदा उठा के मुझसे मुलाकात भी न की। रूख़सत के पान भेज दिये बात भी न की।। वस्ल की रात चली एक न शोख़ी उनकी। कुछ न बन आई तो चुपके से कहा मान गये।। सुबह को आये हो भूले शाम के, जाओ अब तुम रहे किस काम के। हाथा-पाई से यही मतलब भी था, कोई मुँह चूमे कलाई थाम के।। पान बन बन के मेरी जान कहाँ जाते हैं। ये मेरे कत्ल के सामान कहाँ जाते हैं।। क्यों मुझसे है मुफ़्त की तक़रार2 क्या हुआ ? अच्छा जो मैंने कर ही लिया प्यार क्या हुआ ?? जब वो बाँहें गले का हार नहीं। दूर का प्यार कोई प्यार नहीं।। किसी से वस्ल में सुनते ही जबान सूख गई। ‘‘चलो हटो भी हमारी ज़बान सूख गई’’।। आंखें दिखलाते हो जोबन तो दिखाओ साहब। वोह अलग बाँध के रक्खा है जो माल अच्छा है।। इस तरह की इश्क़िया शायरी में फँसी ऊर्दू शायरी को हसरत ने जिंदगी बख़्शी। वे लखनऊ की ख़ारजी शायरी के विरोधी थे और जनाब ‘नसीम’ को अपना उस्ताद मानते थे- 1. परीज़ाद- परियाँ, परियों के जाये; 2. तकरार- नोंक झोंक। ‘हसरत’ मुझे पसन्द नहीं तर्जे-लखनऊ1। पैरो2 हूँ मैं शायरी में जनाबे-नसीम का।। हसरत की माशूका इतनी पाक थी कि उसकी तरफ अश्लील निगाह से कोई देख भी न पाये- मेरी निगाहे-शौक का शिकवा नहीं जाता। सोते में भी पास से देखा नहीं जाता।। उनकी इश्क़ की पाकीजग़ी के सामने फिरदौस भी कुछ नहीं - वल्लाह ! तुझे छोड़ के ए कूचए-जानाँ। ‘हसरत’ से तो फिरदौस3 में जाया नहीं जाता।। उनकी इश्क़ की आरज़ू और माशूक की तमन्ना दोनों ही पाकीज़ा है। दोनों को ही एक दूसरे से निस्बत4 के सिवा कुछ नहीं। खुद उनको मेरी अर्जे तमन्ना का शौक़ है। क्यूं वरना यूँ सुने है कि गोया सुना नहीं।। हम क्या करें अगर न तेरी आरजू करें। दुनिया में और भी कोई तेरे सिवा है क्या ? दोनों (आशिक और माशूक) सदा एक दूसरे की याद में खोये रहना चाहते हैं। शब वही शब है, दिन वही दिन है जो तेरी याद में गुज़र जाये।। उनके इश्क़ में माशूक़ को अपने हुस्न का पता नहीं और आशिक़ को अपने इश्क़ का और जो मज़े ऐसे इश्क़ में है वो फिर कहाँ से हों। हुस्न से अपने वोह गाफ़िल5 था, मैं अपने इश्क़ से। अब कहाँ से लाऊँ वोह नावाक़फियत6 के मज़े। थोड़ा फ़लसफ़ा और थोड़ा तसव्वुफ भी पाया जाता है उनके शेरों में, बानगी देखिये- वस्ल की बनती हैं इन बातों से तद्बीरें कहीं। आरजूओं से फिरा करती हैं, तकदीरें कहीं।। कुछ भी हासिल ना हुआ, जोहद7 से नखूवत8 के सिवा। शग्ल सब बेकार है, उसकी मोहब्बत के सिवा।। 1. तर्जे लख़नऊ- शायरी का लखनवी अंदाज; 2. पैरो- हिमायती; 3. फिरदौस- स्वर्ग; 4. निस्बत- जुड़ाव, अपनापन; 5. गाफिल- अंजान; 6. नावाकफियत- अपरिचित्ता; 7. जोहद- धार्मिक उन्माद; 7. नखूवत- घमंड, नफ़रत। शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रखनी। दिन हो या रात हमें जिक्र उन्हीं का करना।। वहीं इक्का दुक्का बाज़ारू इश्क़िया शेर भी मिल जाते हैं, जैसे- तुझमें कुछ बात है ऐसी जो किसी में भी नहीं। यूं तो औरों से भी दिल हमने लगा रखा है।। अब ‘हसरत’ मोहानी साहब के कुछ यादगार अशअर पेशे-ख़िदमत हैं - सताईये न मुझे यूँ ही दिल-फ़िगार1 हूँ मैं। रूलाइये न मुझे खुद ही बेकरार हूँ मैं।। ये तेरा रंग है कि बेसबब2 खफ़ा मुझसे। मेरा यह हाल कि बेवजह बेकऱार हूँ मैं।। वो जो देख के बेचैन हुई हालत मेरी। हो गई और परेशान तबीयत मेरी।। मानूस हो चला था तसल्ली से हाले-दिल। फिर तूने याद आ के बदस्तूर कर दिया।। अब तो उठ सकता नहीं आँखों से बारे-इन्तज़ार। किस तरह काटे कोई लैलो-निहारे इंतजार।। उनकी उल्फ़त का यकीं हो, उनके आने की उम्मीद। हों ये दोनों सूरतें, तब है बहारे-इंतज़ार।। उनके खत की आरजू है उनकी आमद का ख़याल। किस कदर फैला हुआ है, कारोबारे-इन्तज़ार3।। निगाहे यार जिसे आश्नाये-राज़4 करे। वो अपनी खूबिये-किस्मत5 पे क्यूं न नाज़ करे।। और तो पास मेरे हिज्र में क्या रक़्खा है। इक तेरे दर्द को पहलू में छिपा रक्खा है।। आह वह याद कि उस याद से हो कर मज़बूर। दिले-मायूस6 ने मुद्दत से भुला रक़्खा है।। जाह़िर मलाले-रश्को-रक़ाबत7 न कीजिए। बेहतर यही है उनसे शिकायत न कीजिए।। 1. दिल फ़िगार- घायल दिल वाला; 2. बेसबब- बिना कारण; 3. कारोबारे इन्तजार- इंतजार का व्यापार; 4. आश्नाये राज- किसी गुप्त बात से परिचित; 5. खूबिये किस्मत- अच्छी किस्मत; 6. दिले मायूस- निराश दिल; 7. मलाले रश्को रकाबत- ईर्ष्या और दुश्मनी का रंज। उज्रे-सितम जरूर न था आपके लिए। हसरत को शर्मसारे-नदामत1 न कीजिए।। शरफ़2 हासिल हो उस जाने-जहाँ से मुझको निस्बत का। ग़ुलामी का सही गर हो न सकता हो मुहब्बत का।। ऐ सहरे-हुस्ने-यार3 मैं अब तुझसे क्या कहूँ। दिल का जो हाल तेरी बदौलत है आजकल।। इक तरफा बेखुदी का है आलम कि इश्क़ में। तकलीफ़ आजकल है न राहत है आजकल।। खुदा जाने यह अपना हाल क्या है हिज्रेजानाँ में। न आहें लब तलक आतीं हैं, न अश्क़ आँखों से बहते हैं।। खामोशी की अज़ब यह गुफ़्तगू है वस्ल में बाहम। न कहते हैं वोह कुछ हमसे, न हम कुछ उनसे कहते हैं।। परदे से इक झलक जो वह दिखला के रह गये। मुश्ताके-दीद4 और भी ललचा के रह गये।। टोका जो बज़्मे-गैर से आते हुए उन्हें। कहते बना न कुछ तो कसम खा के रह गये।। किस्मते-शौक आज़मा न सके, उनसे हम आँख भी मिला न सके। हम तो क्या भूलते उन्हें ‘हसरत’ ! दिल से वोह भी हमें भुला न सके।। रौनके-दिल यूं बढ़ा ली जायेगी, ग़म की इक दुनिया बसाली जायेगी। दिल को न तोड़ो हसरते-नाकाम5 के, जुल्फ़ तो फिर भी बना ली जायेगी।। ‘हसरत’ मोहानी साहब गज़लगो शायर थे। आपने बहुत ही अच्छी अच्छी गजलें कही हैं। आपकी एक गज़ल है ‘चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है।’ यह गज़ल बहुत मशूहर है और नग्मे के रूप में फिल्माई भी गई है। इस फिल्म का नाम था ‘निकाह’। यह गज़ल पेशे-खिदमत है- चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है। हमको अब तक आशिकी का वो जमाना याद है।। खींच लेना वोह मेरा परदे का कोना दफ़्अतन6। और दुपटे से तेरा वोह मुँह छुपाना याद है।। 1. शर्मसारे नदामत- पश्चाताप से शर्मिन्दा; 2. शरफ़ - सम्मान, इज्जत; 3. सहरे हुस्ने यार- यार के हुस्न का जादू; 4. मुश्ताके दीद- देखने के अभिलाषी; 5. हसरते नाकाम- मायूस, जिसकी इच्छा पूरी न हुई हो; 6. दफ़्अतन- सहसा, अचानक। दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिये। वोह तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है।। गैर की नजरों से बचकर सबकी मर्ज़ी से खिलाफ। वोह तेरा चोरी छुपे रातों को आना याद है।। तुझ से मिलते ही वो कुछ बेबाक1 हो जाना मेरा। और तेरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है।। चोरी चोरी हम से तुम आकर मिले थे जिस जगह। मुद्दतें गुज़री पर अब तक वो ठिकाना याद है।। ‘हसरत’ मोहानी साहब ने 700 से ऊपर ग़जलें कहीं और उनमें से तकरीबन आधी नजरबंदी की हालत में कहीं। लेकिन उन्होंने अपनी जो पहली गज़ल कही वह 22 या 23 साल की उम्र में कही और खूब कही, पेशे खिदमत है - मैं तो समझा था कयामत आ गई। ख़ैर फिर साहब सलामत हो गई।। मस्जिदों में कौन जाये बायज़ा। अब तो इक बुत से इरादत2 हो गई।। जब मैं जानूँ दिल में भी आओ न याद। गरचे जाहिर में अदावत3 हो गई।। उनको कब मालूम था तर्जे-जफ़ा। गैर की सुहबत कयामत हो गई।। इश्क़ ने उसको सिखा दी शायरी। अब तो अच्छी फिक्रे-‘हसरत’ हो गई।। अब गज़लें इतनी और हविस ऐसी कि मिटाये न मिटे, बकौल मोहानी साहब, हविसे-दीद मिटी है न मिटेगी ‘हसरत’। बार-बार आप उन्हें शौक से देखा न करें।। बार-बार का देखना और बार बार का पढ़ना दोनों ही अपने बस की बातें तो है नहीं लेकिन आगे तो बढ़ना ही है और उसी में है ख़ैर अपनी, सो ‘हसरत’ साहब को अलविदा! * 1. बेबाक - गुस्ताख, निडर, बेहया; 2. इरादत- आस्था, श्रद्धा; 3. अदावत - दुश्मनी।

मिर्ज़ा ज़ाकिर हुसैन ‘साकिब’ लख़नवी लख़नवी स्कूल के एक और अज़ीम शायर हुए मिर्जा जाकिर हुसैन ‘साकिब’ ये ‘साकिब’ लख़नवी के नाम से जाने जाते हैं व इनका जन्म आगरे में सन् 1868 में हुआ। इनको जन्म के बाद इनके पिता लखनऊ ले आये। अपने पिता की शायरी से खिलाफ़त के चलते आपको शायरी के शौक से जाहिरा तौरपर काफी समय तक वंचित रहना पड़ा। फिर आप 1885 से 1891 तक अँग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के लिये आगरे में रहे। उस समय आपको मोमिन हुसैन खाँ ‘सफ़ी’ जैसे उर्दू, फ़ारसी और अरबी के अच्छे जानकार उस्ताद मिले। मिर्जा साक़िब जितनी अच्छी गज़ल कहते थे उतने ही अच्छे तरन्नुम में पढ़ भी लेते थे। आप अक़्सर चलते हुए शेर बनाते थे और उसमें खो जाने के कारण राहगीरों से टकरा भी जाते थे। इनको फिलबदी शेर कहने का भी अच्छा अभ्यास था। आप राजा मेहमूदाबाद के यहाँ मुलाज़िम रहे और 50 रुपये माहवार की तनख़ा पर जीवनयापन करते रहे। मिर्जा ‘साकिब’ की शायरी की शुरुआत भी ‘नासिख’ के खारजी रंग की शायरी से ही हुई। इसके चन्द नमूने पेश हैं‒ मेरे लहू से अगर होके सुर्खरू1 आये। मलो तो बर्गे-हिना2 में वफ़ा की बू आये।। देर-पा3 है किस क़दर ‘साकिब’ हसीनों का शबाब। उम्र भर अपनी जवानी की कसम खाते रहे।। जख़्मे-ज़िगर से अबरूए-कातिल4 ने चाल की। दिल तक शिगाफ़5 दे गई, चोट उस हिलाल6 की।। खफ़ा क्यों हो जो पैग़ामे - कज़ा अब तक नहीं आया। बुरे दिल से तुम्हें खुद कोसना अब तक नहीं आया।। साफ कह दीजिए वादा ही किया था किसने। उज्र7 क्या चाहिए झूठों को मुकरने के लिए।। 1. सुर्खरू- लाल चेहरे वाले, कामयाब; 2. बर्गे हिना- मेंहदी के पत्ते; 3. देर पा- देर तक ठहरने वाला; 4. अबरू ए कातिल- कातिल की भौहें; 5. शिगाफ़- चीरा, नश्तर लगाना; 6. हिलाल- दूज का चाँद; 7. उज्र- बहाना, आपत्ति। पर जल्द ही मिर्ज़ा की शायरी पर से ख़ारजी रंग का जादू उतर गया और वे भावपूर्ण शायरी करने लगे। उस समय भारत अपनी आजादी की जंग लड़ रहा था और जवानों के दिलों में अंग्रेजों की ख़िलाफत की आग धधकती थी। इस बात, इस ज़ज़्बे को उन्होंने इस शेर से बयाँ किया‒ तमाशा सोजे-दिल1 का देख जाकर सहने-गुलशन2 में। क़फ़स में हूँ, मगर शोले भड़कते हैं नशेमन में।। संसार में सुख और दुःख के संगम और बनने बिगड़ने के संयोग को उन्होंने इस शेर में बयाँ किया- रस्मे-दुनिया है कोई खुश हो कोई नाशाद3 हो। जब उजड़ गये नशेमन4 तो कफ़स आबाद हो।। भारत और पाकिस्तान की माँग और उस पर खून खराबे ने मिर्ज़ा को मजबूर किया यह शेर कहने को - हमदम चमन की खैर मना आशियाँ तो क्या ? दो चार दिन अगर ये हवा और चल गई।। मिर्ज़ा ने बाज़ारी इश्किया कलाम से परहेज रखा, वे पाक इश्क़िया शायरी के कायल रहे। वे दिल में इश्क़ को छिपाये रखने की ताकीद5 करते हैं‒ दिल ने रग-रग से छिपा रखा है, राजे-इश्क़ ए दोस्त। जिसको कह दे नब्ज ऐसी मेरी बीमारी नहीं।। मिर्ज़ा इश्क़ को ज़ाहिर कर बदगुमाँ6 करने के हिमायती नहीं थे बल्कि इश्क़ में खामोशी के साथ शम्अ की तरह जलने के तरफ़दार रहे। उम्र भर जलता रहा दिल और खामोशी के साथ। शम्अ को इक रात की सोज़े-दिली7 पर नाज़ था।। मिर्ज़ा का माशूक भी बेहया और बेशर्म नहीं बल्कि पाक पर्दानशीं होता था- फैला है हुस्ने-आरिज़े-रोशन8 नकाब में। क्या-क्या तड़प रही है, तज़ल्ली9 हिज़ाब10 में।। शबे-वस्ल में भी इक हिज्र का अंदाज पैदा है। इधर मैं हूँ, उधर वोह हैं, हया हाइल11 है, परदा है।। 1. सोजे दिल- दिल की तपिश; 2. सहने गुलशन- बाग का आँगन; 3. नाशाद- नाखुश, दुखी; 4. नशेमन- घर, घौंसला; 5. ताकीद- आग्रह, चेतावनी; 6. बदगुमाँ- नाराज; 7. सोजे दिली- दिल की तपिश; 8. हुस्ने आरिजे रोशन- सुंदरी के गालों का चमकता सौन्दर्य; 9. तजल्ली- रोशनी, नूर; 10. हिज़ाब- पर्दा; 11. हया हाइल- शर्म रुकावट। हुस्न की बड़ाई करने में भी उनका अंदाज जुदा होता था। दीद-बाज़ी जैसे हल्के मौजू पे भी वे सिर्फ़ ये कहते थे कि‒ दीदये-दोस्त तेरी चश्म-नुमाई1 की कसम। मैं तो समझा कि दर खुल गया मैख़ाने का।। और अंगड़ाई लेने की अदा की तारीफ़ देखिये - वोह उठे अँगड़ाईयाँ लेते हुए। मैं ये समझा हश्र बरपा हो गया।। इश्क़ हुआ तो दिल गया और आशिक बेचारा खो गया। इस मंजर पर उन्होंने फरमाया- इश्क़ में दिल गँवा के हाल यह है। कुछ मैं खोया हुआ सा रहता हूँ।। लेकिन लाख छुपाओ, इश्क वो आग है जो छिपाये न छिपे और दिखाये न बने। अब इस मौज़ू पर उनका शेर पेशे-ख़िदमत है - हिचकियों से राजे-उल्फ़त खुल गया। आ गई मुँह पर जो दिल में बात थी। और जब बात खुल गई तो फिर दास्ताने-बयाँ का अंदाज देखिये‒ बड़े शौक से सुन रहा था जमाना। हमीं सो गये दास्ताँ कहते कहते।। मिर्जा ‘साकिब’ शेरों में मुहावरों का प्रयोग भी बहुत कौशल से करते थे। बानगी देखिए- लहद पर चलने वाले थम कि हम कुछ कह नहीं सकते। जमीं रखती है, ‘मुँह पर हाथ’ जब हम फ़रियाद करते हैं।। (मुँह पर हाथ रखना, मुहावरा चुप कर देने के लिए प्रयुक्त है।) बाग़बाँ ने ‘आग दी’ जब आशियाने को मेरे। जिन पै ‘तकिया था’ वही पत्ते हवा देने लगे।। (आग देना-जला देना। तकिया था-विश्वास था।) इश्क़ के बाद अब हवादिस की जरूरत क्या रही। आस्माँ दम ले, मेरे मरने का सामाँ हो गया।। (दम लेना-ठहरना) (हवादिस-दुर्घटनायें) 1. चश्म नुमाई- आँखें दिखाने। अब हम मिर्ज़ा ‘साकिब’ के चन्द यादगार अशअर देखेंगे - बताइये, रहेगी शम्अ किस तरह हिज़ाब में। यह क्या समझ के हुस्न को छिपा दिया नकाब में।। अपने ही दिल की आग में आखिर पिघल गई। शम्ए-हयात मौत के साँचे में ढल गई।। जो कुछ हुआ आलम में होता न तो क्या होता। बेहतर था बिगड़ने को यह दिल न बना होता।। शादी में भी कुछ गम के पहलू निकल ही आते हैं। बेसाख़्ता1 हँसने में आँसू ढ़ल ही जाते हैं।। उम्र भर गफ़लत रही, हस्तिए बे-बुनियाद से। उठ गये इक नींद लेकर आलमे-ईजाद2 से।। छुपाओ आपको जिस रंग या जिस भेस में चाहो। मगर चश्मे-हक़ीक़तबीं3 से परदा हो नहीं सकता।। दिले-मुर्दा कभी जीने का तलबगार4 न था। होशियारी को समझता था पै हुश्यार न था।। दर्द से इक आह भी करने नहीं देते मुझे। मौत है आसाँ मगर मरने नहीं देते मुझे।। उरूसे-दहर5 को दिल देके आजमाऊँ क्या ? सँवारने में जो बिगड़े उसे बनाऊँ क्या ? या न था उनके सिवा दहर में ज़ालिम कोई। या सिवा मेरे कोई और गुनहगार न था।। किस मुँह से जबाँ करती इज़हारे-परेशानी। जब तुमने मेरी हालत सूरत से न पहचानी।। मुख़्तार6 है बंदा कोई मज़बूर नहीं है। फिर क्या है जो दिल पर मेरा मक़दूर7 नहीं है।। दिले-ग़मनाक ऐसा है कि दर्द ईजाद करता है। जमाना रो रहा है, यूँ कोई फरियाद करता है।। 1. बेसाख्ता- बेबाक, खुलकर; 2. आलमे ईजाद- ईश्वर की दुनिया; 3. चश्मे हकीकतबीं- वास्तविकता खोजने (देखने) वाली आँखें; 4. तलबगार- इच्छा रखने वाला; 5. उरूसे दहर- संसार रूपी दुल्हन; 6. मुख़्तार- आजाद ख्याल, अधिकार सम्पन्न; 7. मक़दूर- मजाल, बस। ख़ामोशी पर मेरे क्यों बदगुमानी है मेरे दिल से। वो क्या नाला करे जो साँस लेता हो मुश्किल से।। हाथों की ख़ता हो कि मुकद्दर की जफ़ा1 हो। जो चाक न होता हो वो गरेबाँ नहीं देखा।। हमारी दस्ताने-गम रूलाती है जमाने को। वो हम हैं जो ज़बाने-ग़ैर से फ़रियाद करते हैं।। वोह काँटे जिन को चुन लाया हूँ मैं वादीए-वहशत2 से। निकालूंगा अगर वुसअत3 हुई सहरा के दामन से।। या इलाही कौन सी बिजली गिरी थी बाग में। जो नशेमन4 से सरक कर मेरे दिल पर आ गई।। शब को जिंदाँ5 में मेरा सर फोड़ना अच्छा हुआ। आज कुछ कुछ रोशनी आने लगी दीवार से।। कैद करता मुझको लेकिन जब गुज़र जाती बहार। क्या बिगड़ जाता जरा सी देर में सैयाद का।। चोट देकर आजमाते हो दिले आशिक का सब्र। काम शीशे से नहीं लेता कोई फ़ौलाद का।। ‘साकिब’ जहाँ में इश्क़ की राहें है बेशुमार। हैरान अक्ल है कि चलूं किस निशान पर।। हादसों के जलजले से जामे दिल छलका किया। एक चुल्लू खून ही क्या ? बहते-बहते बह गया।। सैकड़ों नाले करूँ लेकिन नतीज़ा भी तो हो। याद दिलवाऊँ किसे जब कोई भूला भी तो हो।। उनपै दावा कत्ल का महशर6 में आसाँ है मगर। बाका का खून है खंजर पै जाहिर भी तो हो।। सदायें देके हमने एक दुनिया आज़मा देखी। यही सुनते चले आये-बढ़ो आगे यहाँ क्या है।। मैं जो रो रहा हूँ दिल को तो बेकसी के लिए। वगरना मौत तो दुनिया में है सभी के लिए।। 1. जफा- बेवफाई; 2. वादीए वहशत- दीवानगी की वादी; 3. वुसअत- जगह, लगाव; 4. नशेमन- घर, घौंसला, आशियाना; 5. जिंदाँ - कैद खाना; महशर- कयामत के दिन, न्याय के वक्त। इक नया दिल जुल्म सहने को बनाना चाहिए। हो तो सकता है मगर उसको जमाना चाहिए।। जिंदगी में क्या मुझे मिलती बलाओं से निज़ात। जो दुआऐं की वो सब तेरी निगेहबाँ1 हो गई।। कम न समझो दहर में सरमाये-अरबाबे-ग़म2। चार बूँदें आँसुओं की बढ़ के तूफाँ हो गई।। मकां-मुनअम3 का सोने से, यह खूने-दिल से बनता है। ख़सो-ख़ाशाक4 का घर भी, बड़ी मुश्किल से बनता है।। किसी का रंज देखूँ यह नहीं होगा मेरे दिल से। नज़र सैयाद की झपके तो कुछ कह दूं अनादिल5 से।। बर्क़ के गिरने से मातम एक ही होता तो खैर। आशियाँ के साथ आँच आई मेरी हसरत पै भी।। हो गये बरसों कि आँखों की खटकी जाती नहीं। जब कोई तिनका उड़ा घर अपना याद आया मुझे।। गनीमत है कफ़स, फिक्रे-रिहाई6 क्या करे हमदम। नहीं मालूम अब कैसी हवा चलती है गुलशन में।। देखा किये वो चाँद को अपने गुमान पर। मैं खुश हुआ कि तीर चले आसमान पर।। कुछ वफ़ा कुछ ज़ुल्म के आसार रहने दीजिए। खून में डूबी हुई तलवार रहने दीजिए।। शिकायत जुल्मे-खंजर की नहीं, गम है तो इतना है। जबाने-गैर से क्यूं मौत का पैग़ाम आता है।। मुट्ठियों में ख़ाक लेकर दोस्त आये वक़्ते-दफ़न। जिंदगी भर की मुहब्बत का सिला देने लगे।। * 1. निगेहबाँ- रक्षा करने वाली; 2. सरमाये अरबाबे गम- गम की दौलत; 3. मकां मुनअम का- मालदार लोगों का घर; 4. खसो खाशाक- सूखी घास और कूड़ा करकट; 5. अनादिल- बुलबुलों, अन्दलीबों; 6. फिक्रे रिहाई- मुक़्त होने की चिन्ता।

नवाब अली मुहम्मद खाँ ‘शाद’; अज़ीमाबादी अब देहलवी स्कूल के नये दौर के पहले शायर ‘शाद’ आज़ीमाबादी का जिक्र करेंगे। उनकी शायरी की तुलना कभी लोग ‘आतिश’ से करते है तो कभी ‘ग़ालिब’ से। तीनों ही की शायरी सूफियाना थी। लेकिन ‘शाद’ की शायरी ‘आतिश’ से इस मायने में जुदा थी कि वे दिल के रंजोगम को ख़िलवत में ही सही लेकिन खुलकर बयां करते थे जबकि आतिश और ग़ालिब दर्द को बयां करने से बचते थे। जहां आतिश का यह मानना था कि‒ ज़ौरो-जफ़ाये1 यार रंजो-महन2 न हो। दिलपर हुजूमे-ग़म हो, जबीं पर शिकन न हो।। और ‘गालिब’ का यह फरमाना था कि‒ रंज से खूगर हुआ इसांन तो मिट जात है रंज। मुश्किलें इतनी पड़ीं मुझ पर कि आसाँ हो गईं।। वहीं ‘शाद’ यह मानते थे कि‒ ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है। तड़प ए दिल, तड़पने से जरा तस्कीन3 होती है।। उनके समय में जो माहौल था उसके कारण खुदाए सुखन ‘मीर’ भी इब्तज़ाल (निम्न स्तरीय विचारों वाली शायरी) से न बच पाये और ग़ालिब तथा मोमिन ने भी इनमें पेशदस्ती4 कर दी। परन्तु शाद ने कभी भी निम्न स्तरीय विचारों को अपनी शायरी में न आने दिया। जब कभी हल्के शब्दों जैसे बोसा, आदि का जिक्र उनके शेरों में आया तो इस कदर पाक हो गया कि ऐय्याशी को भी शर्म आ जाये। जहाँ ग़ालिब ने कहा कि‒ ले तो लूँ सोते समय उनके पांव का बोसा मगर। ऐसी बातों से वह काफ़िर बदगुमाँ5 हो जाएगा।। और आतिश ने फरमाया कि- बोसे-बाजी से मेरी होती है ईजा6 उनको। मुंह छुपाते हैं जो होते हैं मुँहासे पैदा।। 1. जौर ओ जफा- जुल्मो सितम; 2. रंजो महन- दुख और कष्ट; 3. तस्कीन- तसल्ली, राहत; 4. पेशदस्ती- हाथ डालना; 5. बदगुमाँ- शंकालु, बदजन; 6. ईजा- दुःख, पीड़ा। वहां ‘शाद’ साहब ने बोसा दिया और चाहा भी तो यार के मुँह और कदमों का नहीं बल्कि शहीदों की मज़ार का‒ शहीदाने-कब्र की ख़ाक, क्या अक्सीर1 से कम है। न हाथ आये कदम बोसा, तो ले जाकर मज़ारों का।। ‘शाद’ ने हमेशा पाक इश्क़िया शायरी की और इस मामले में आतिश, द़ाग और ग़ालिब से भी आगे निकल गये। ‘शाद’ उस शम्अ के कायल नहीं जो सरे-बाज़ार जलती है। जो शम्अ हुआ करती है रोशन सरे-बाज़ार। उस शम्अ पै गिरता नहीं परवाना हमारा।। फ़लसफ़े और तसव्वुफ के कलाम में भी शाद बहुत आगे थे। इंसान को काम तो अपने हाथों ही से करना होता है और खुदा उसी का मददगार है जिसने हिम्मत की और कोई काम किया। इस बात को सागरो-मीना पर ढाल कर उनकी पेशकश काबिले तारीफ है। यह बज़्मे-मै है याँ कोताह-दस्ती2 में है महरूमी3। जो बढ़कर खुद उठा ले हाथ में मीना उसीका है।। (यह संसार एक मैख़ाना है, यहां हाथ खींच लेने से आदमी महरूम रह जाता है, पैमाना उसी के हाथ आता है जो हाथ बढ़ाकर उसे उठा लेता है।) यहां जो कुछ भी करना है कर लो और जब तक समर्थ हो उससे पहले ही करलो, इस बात को किस अन्दाज में कहा गया है देखिये- क्या गलत ज़ोम4 है बाद अपने किसे गम अपना। हाथ काबू में है करले आज ही मातम अपना।। शिकस्त मिलने पर निराश न होकर कोशिश करते रहने से अन्त में सफलता मिल ही जाती है। इस बात को कुछ यूं कहा कि- यह मुमकिन है कि लिक्खी हो, कलम ने फतेह आखिर में। जो हैं अरबाबे-हिम्मत5 गम नहीं करते शिकस्तों में।। इच्छा ही मनुष्य के दुःख और पतन का कारण है अन्यथा इंसान एक अनमोल नगीना है। इस बात को कहने का अंदाज देखिये- बशर के दिल में न पड़ता जो आरजू का द़ाग। खुदा गवाह कि अनमोल ये नगीं होता।। 1. अक्सीर- राम बाण औषधी; 2. कोताह दस्ती- हाथ खींच लेना; 3. महरूमी- वंचित होना (गैर हासिली); 4. जोम- घमण्ड; 5. अरबाबे हिम्मत- हिम्मत रखने वाले। ‘शाद’ के दीवान ‘मैख़ानये-इलहाम’ के चुनिदां अशआर पेशे-खिदमत हैं‒ कहां है उसका कूचा कौन है वह ? क्या ख़बर कासिद। पर इतना जानते हैं नाम है आशिक-नवाज़ उसका।। न छोड़े जुस्तजू1 ये यार खिज़रे-शौक2 से कह दो। किसी दिन खुद लगा लेगी पता उम्रे-दराज़3 उसका।। अगर मरते हुए लब पर न तेरा नाम आयेगा। तो मैं मरने से दरगुज़रा4 मेरे किस काम आयेगा।। शबे-हिज्रँ की सख़्ती हो तो लेकिन ये क्या कम है। कि लब पर रात भर रह रह के तेरा नाम आयेगा।। हर निवाला अब तो उसका तल्ख़5 है। उम्र नेमत6 थी मगर जी भर गया।। जिस गली में था वहां थी क्या कमी। ऐ गदा क्यों मांगने दर-दर गया।। हमारे जख़्मे-दिल ने दिल्लगी अच्छी निकाली है। छुपाये से तो छुप जाना मगर नासूर हो जाना।। ख़याले-वस्ल को अब आरजू झूला झुलाती है। करीब आना दिले-मायूस के फिर दूर हो जाना।। शबे-वस्ल अपनी आंखों ने अज़ब अंधेर देखा है। नक़ाब उनका उलटना रात का काफ़ूर हो जाना।। किबला क्या अदांज पाया है ‘शाद’ साहब ने जरा गौर फरमायें‒ मुहं पै आशिक के मुहब्बत की शिकायत नासेह। बात करने का भी नादाँ न क़रीना7 आया।। आ गया था जो ख़राबात8 में पी लेनी थी। तुझको सुहबत का भी ज़ाहिद न करीना आया।। अब ज़रा इस गज़ल पर भी गौर फरमाएं- सुबू9 अपना अपना है, जाम अपना अपना। किये जाओ मयख़्वार काम अपना अपना।। न फिर हम, न अफ़सानागो-ऐ-शबे-ग़म। सहर तक है किस्सा तमाम अपना-अपना।। 1. जुस्तजू- तलाश, खोज; 2. खिज़रे शौक- रहनुमा को ढूंढ़ने का प्रयास करने वाले; 3. उम्रे दराज- लम्बी आयु; 4. दरगुजरा- बाज आना; 5. तल्ख़- कडुवा, अप्रिय; 6. नेमत- बख़्शीश; 7. करीना- सही तरीका, सलीका, शऊर; 8. खराबात- खराब काम करने की जगह; 9. सुबू - मटका, खुम। जिनाँ1 में है जाहिद, तेरे दर पै हम हैं। महल अपना-अपना मुकाम अपना अपना।। हुबाबों2 ! हम अपनी कहें या तुम्हारी। बस एक दम के दम है क़याम3 अपना अपना।। कहां निकहते-गुल4 कहां बू-ए-गेसू5। दमाग अपना अपना मशाम6 अपना अपना।। ख़राबात में मयकशों ! आ के चुन लो। नबी7 अपना अपना इमाम8 अपना अपना।। खुदा के कमाल को आदमी अगर तो समझ ही नहीं पाता है और फिर जो जितना समझ पाता है उतना ही हैरान हो जाता है। अपनी अपनी समझ तो सभी रखते हैं पर उसके सारे राज़ आज तक कोई भी खोल नहीं पाया। इस भावना को क्या खूब कहा है- तेरे कमाल की हद कब कोई बशर समझा। उसी कदर उसे हैरत है, जो जिस कदर समझा।। कभी न बैठे बन्दे-कबा9 खोल कर एक दिन। गरीब खाने को तुमने न अपना घर समझा।। पयामे-वस्ल का मजमून बहुत है पेचीदा। कई तरह इसी मतलब को नामाबर समझा।। न खुल सका तेरी बातों का एक से मतलब। मगर समझने को अपनी सी हर बशर समझा।। चाहे मन्दिर हो मयख़ाना हो या मस्जिद हम तो सिर्फ खुदा के तलबगार हैं। हमें न तो मुसल्ले10 की जरूरत है न मस्जिद की या उस जगहँ जाने की जहाँ से फतवे11 जारी हों। हम तो जिस जगह तुम्हें याद करलें वहीं मस्जिद समझ लेते हैं। इस बात का खुलासा करते हुए उन्होंने लिखा कि- बुतकदा है कि ख़राबात है या मस्जिद है। हम तो सिर्फ आपके तालिब12 हैं खुदा शाहिद13 है।। न मुसल्ले की जरूरत न मिम्बर दरकरार। जिस जगह याद करें तुझको वहीं मस्जिद है।। 1. जिनाँ- जन्नत; 2. हुबाब- पानी का बुलबुला; 3. कयाम- ठिकाना, मुकाम; 4. निकहते गुल- फूलों की सुगंध; 5. बू ए गेसू- बालों की खूशबू; 6. मशाम- सोच; 7. नबी- पैगम्बर; 8. इमाम- मार्ग दर्शक, पुरोहित; 9. बन्दे कबा- चोगे की डोरी; 10. मुसल्ला-नमाज पढ़ने की जगहँ; 11. फतवा- धार्मिक आदेश; 12. तालिब- चाहने वाला; 13. शाहिद- गवाह, साक्षी। अब चन्द और यादगार अशआर लिखके ‘शाद’ साहब से रूख़सत लूँगा। निकालें बहरे-ग़म1 से डूबतों को यह कहाँ हिम्मत। खुद अपने हाथ से अपना डुबोना हम को आता है।। निचौड़ें बैठकर, फिर खुश्क़ करलें, यह नहीं आता। जहाँ बैठें वहाँ दामन भिगोना हम को आता है।। (हमें ग़मजदों के ग़म को मिटाना नहीं आता अपितु खुद को ग़म में डुबो लेने में जरूर महारत है। किसी के अश्क़ हम क्या सुखायेंगे हम तो खुद अश्क़ों से दामन भिगोते रहते हैं।) इतना भी मैकेशों को नहीं मैकेशी में होश। हदसे अगर सिवा हो तो पीना हराम है।। (अति सर्वत्र वर्जयेत के नियम का खुलासा मैकश और मैकशी पर तंज करके किया है।) आदमी की रूह एक मुसाफ़िर है और उसका शरीर एक सराय। रूह इस तन जिसका नाम ‘शाद’ है में बतौर महमाँ रहकर जब चलने लगी तो हाय! कह कर बोली कि अब दुबारा इस घर में नहीं आयेंगे अगर इस का नाम ‘शाद’ हुआ। महमाँ सराये-तन से चली रूह कह के हाय ! इस घर में अब न आयेंगे गर ‘शाद’ नाम है।। अपने पर इस तरह का व्यंग बस केवल ‘शाद’ के ही बस की बात थी। मरने के बाद भी उनकी यह आरजू थी कि जलवा गाह में जाकर हज़ार आंखों से उसका नूर देखें। यह आरज़ू है तेरी जलवागाह2 में जाकर। हज़ार आँखें हों और सब से यार हम देखें।। * 1. बहरे गम - गम का सागर; 2. जलवा गाह- रहने और दिखने की जगह, मकान।

उर्दू शायरी का सफरनामा-III हमारा सफ़र अब काफ़ी आगे बढ़ गया है परन्तु अब भी काफ़ी बाकी है। सच ही कहा है कि- मुझसे पहले कितने शायर आये और आकर चले गये। कुछ नग्मे गा कर लौट गये कुछ गीत सुनाकर चले गये।। और यह सिलसिला चलता ही रहा है, चलता ही रहेगा पर थोड़ा सा ठहर लेना हर सफ़र में लाज़मी होता है सो यहां पर भी है। आइए कुछ और बात करें। आप जानना चाहेंगे न कि गज़ल क्या है? और इसकी इज़ाद कहाँ पर हुई। जी हां हम आपको यह जरूर बतायेंगे। गज़ल शब्द अरबी भाषा से लिया गया है लेकिन गज़ल कहने और सुनने का ज्यादा प्रचलन ईरान, फ़ारस में रहा। फ़ारसी किताबों में गज़ल को ‘सुखन अज़ज़नान’ बताया गया है जिसका सही मतलब निकलता है औरतों की बात करना या औरतों के बारे में लिखना। गज़ल का मुख़्य विषय होता है औरतों की नाज़ोनज़ाकत और हुस्न का शेरों से बखान और उनसे इश्क़ का दम भरना। गज़ल का इश्क़ आशिक़ और माशूक़ का इश्क़ है, वह और कोई तरह की मुहब्बत पर नहीं लिखी जा सकती। हिन्दी में यदि कविता से गज़ल की तुलना करें तो गज़ल वह कविता है जिसमें प्रेमी-प्रमिकाओं के भावों को प्रदर्शित किया गया हो। लेकिन हर किसी प्रकार की प्रेम कविता गज़ल नहीं कहीं जा सकती। गज़ल का अपना अलग व्याकरण है। अपनी एक खास जबान-अदबी1 और लबो-लहज़ा2 है। इसका विषय एक सीमित लेकिन खास विषय है। बाद में गज़ल में तसव्वुफ और फ़लसफ़ा भी विषय स्वरूप शामिल कर लिये गये। ऐसा होने पर गज़लगो शायर दो शाखाओं में बंट गये। एक तो वो जो खुदाई इश्क़ पर गज़लें कहते और दूसरे वो जो दुनियावी या मज़ाज़ी इश्क़ पर गज़लें कहते। इस बात का जिक्र हम इस क़िताब की शुरूआत में कर चुके हैं कि ‘इश्क़े-हक़ीक़ी’ और ‘इश्क़े-मज़ाज़ी’ में क्या फ़र्क है। हम यह भी देख चुके हैं कि इश्क़े-मज़ाजी में भी फिर दो अलग तरीके के शायर हुए। एक वो जो हक़ीक़त के इश्क़ का जिक्र करते थे जिसके तजुर्बात से वो गुज़र चुके थे ओर दूसरे वो जो केवल कल्पना के धरातल पर गज़लगोई करते थे। 1. ज़बान अदबी- भाषा का व्याकरण, शिष्टाचार; 2. लबो लहजा- अदायगी का तरीका। इश्क़ को दो अलग अलग तरीकों से इन मज़ाज़ी शायरों ने शेरों गज़लों में बांधा। कुछ शायरों ने इश्क़ को बहुत ऊँचा दर्जा दिया और माना कि मुहब्बत खुदा है। उनका इश्क़ ता-उम्र किसी एक का दम भरता रहा और ‘पाक इश्क़’ कहलाया। दूसरे शायरों ने मुहब्बत को विषयों तथा कामनाओं का गुलाम बना दिया और निचले स्तर पर ला छोड़ा। इस प्रकार का इश्क़ ‘बाज़ारी इश्क़’ कहलाया। वास्तव में पाक इश्क़िया शायरी का कलाम उर्दू भाषा में बहुत ही कम पाया जाता है। इसका कारण यह रहा कि उस समय जब उर्दू शायरी का जन्म हुआ यहां के समाज में तमाशाबीनी और बादाख़्वारी एक रोग की तरह फैली हुई थी। एय्याशी के इस दौर में पाक इश्क़ के ज़ज़्बे की कोई कद्रोकीमत नहीं थी। अब तक हमने कई शायरों के बाज़ारी इश्किया कलाम देख लिये हैं। इंशा को देखा, जुरअत को देखा, जलील को देखा, रंगीन को देखा। इन सबके कलाम का माशूक़ शोख, बेअदब, बेवफ़ा, बे-मुरव्वत, बेरहम, बदज़बान, संगदिल, ज़ालिम, हरज़ाई, और कातिल होता है। ऐसे हबीब1 का तसव्वुर उर्दू शायरी में वैश्याओं की वज़ह से आया। सभी शायरों को हक़ीकत की मोहब्बत तो नसीब होती न थी। वे वैश्याओं से इश्क़ फरमा लिया करते थे। तवाइफें2 महफ़िलें सजाती थीं और उनमें आने वाले रईसों, जागीरदारों नावाबों आदि से मोहब्बत का नाटक करती थीं। ये नाटक तब तक चलता था जब तक आशिक़ की जेबों में पैसा रहता था। पैसा हज़म खेल ख़तम। फिर यह खेल दूसरे से खेला जाता। एक साथ कईयों के साथ खेला जाता। इस कारण से माशूक़ बाज़ारी हो गया और इश्क़ भी भौंडा और बाज़ारी हो गया। इन तवाईफों में जो शायराना नाज़ो-अन्दाज़ होता था वो अस्ल के इश्क़ में भला कहाँ से आये। सभी शरीफ़ जादियाँ तो गैरत के मारे पर्दे में रहती थीं, सो उनसे दीदबाजी3 कैसे हो, बार बार मुलाक़ातें कैसे हों, हिज्र और वस्ल की बात कैसे हो? इसलिए उस समय रईस तवाइफें रखा करते थे। यहां तक कि अपने बच्चों को तवाइफ़ों के यहां बाकायदा तौर-तरीके सीखने के लिये भेजा करते थे। तवाइफ़ों के यहां पहुँच आसान थी और उनकी नाज़ो-अदा ही को इश्क़ समझ लेते थे। जो ज्यादा दौलत लुटाता था तवाइफ़ें उसी की मुहब्बत का दम भरतीं, दूसरे आशिकों को धता बता दी जाती। सरे बज़्म उनको उठवा दिया जाता और अगर वह ज्यादा अड़े तो पिटवा दिया जाता। ऐसा आशिक! माशूक़ के हरज़ाई होने का, बेवफ़ा होने का, ज़ालिम होने का शिकवा न करे तो क्या करे। जो शायर खुद ऐसे आशिक न होते थे वे भी पैसों के खातिर इन जैसे आशिकों के मज़मून पर सुखन फहमी करते थे, गज़लगोई करते थे। इस तरह से उर्दू शेरो-शायरी का सफ़र आगे बढ़ता रहा। शायरी में दाखिली रंग से ज्यादा खारजी रंग आता गया जो ज़नाब नासिख़ के समय लखनऊ में परवान पर पहुंचा। 1. हबीब- माशूका; 2. तवाइफ- वैश्या; 3. दीदबाजी - आँखें लड़ाना। देहली के शायरों को ऐतिहासिक कारणों से कष्टों से दो-चार होना पड़ा और उनकी शायरी में दर्द/टीस का समावेश हुआ जो उनको लख़नवी शायरों से जुदा करता था। देहली वाले शायरों ने ज़्यादातर पाक इश्किया, तसव्वुफ1 और फ़लसफ़े की शायरी की जिसे ‘दाखिली शायरी’ के नाम से जाना जाता है और लखनऊ वालों ने ज्यादातर ‘बाज़ारी इश्क़िया’ शायरी की जो ‘खारजी शायरी’ के नाम से जानी जाती है। यह दो अलग अलग स्कूलों की शायरी के नामों से भी जानी जाती है, ‘लख़नवी स्कूल’ और ‘देहलवी स्कूल’। रामपुर और टांडा के नवाबों के यहां और हैदराबाद के निज़ामों के यहां इन दोनों तरीकों की शायरी का मिलान हुआ और एक नई तर्ज़ की शायरी का जन्म हुआ जिसके पहुंचे हुए फ़नकार2 थे ‘अमीर’ मीनाई और ‘दाग’ देहलवी साहब। ये शायरी गालिबाना तसव्वुफ और फ़लसफ़ा भी रखती थी तो नासिखाना रंगो-रवायत भी। लेकिन यह मान लिया गया कि गहराई के बिना सिर्फ़ ख़ारजी शायरी को आला दर्ज़े की शायरी नहीं कहा जा सकता। इसी कारण से मिर्ज़ा ग़ालिब और आतिश जिन्हें अपनी जिन्दगी में वो शुहरत न मिली को बाद में शायरे आज़म कुबूल किया जाने लगा और ‘जुरअत’, ‘इंशा’ तथा ‘नासिख’ जिनकी तूती बोला करती थी उनको हल्के दर्ज़े का शायर माना जाने लगा। इस बात का असर आगे आने वाले शायरों के कलाम पर पड़ा जो हम देखेंगे। हमने नज़ीर अकबराबादी को भी पढ़ा और देखा कि वे गज़ल-गो शायर न थे। उन्होंने इश्क़िया शायरी को अपने शेरों ओर नज़्मों से बरतरफ3 रखा। उनकी नज़्मों को दाद तो बहुत मिली पर उस समय के उर्दू सुखन फहमों ने उन्हें शायर मानने से इन्कार कर दिया था। उनका कोई शर्गिद न रहा और उनकी नज्में उनका तौर तरीका उन्हीं के साथ दफ़्न कर दिया गया। वह ज़माना गजलों का ज़माना था, ख़ारजी रंग का ज़माना था। तब गज़ल का वह पतन नहीं हुआ था जो मुगलिया सल्तनत की समाप्ति के बाद हुआ। 1857 के ग़दर के बाद मुसलमानों की शोचनीय हालत ने हाली और आज़ाद जैसे शायरों को सोचने के लिये मज़बूर किया। मुसलमान अपने पतन को दर किनार कर के भी इश्क़िया शायरी और गज़ल ग़ोई में मशगूल थे। यह बात सर सैयद अहमद खान जैसे विचारक और ‘हाली’ तथा ‘आज़ाद’ जैसे चिन्तकों को नागवार गुज़रीं। उन्हें गज़ल से ही नफ़रत हो गई और उन्होंने कौम को ललकारती नज़्में कहनी शुरू कर दीं। वे इश्क़ से नफ़रत करने लगे, जिसने कौम की रगों में विलासिता और कायरता भर दी थी। उनकी ये नज़्में गज़ल को कल्पना के आकाश से उतार कर हक़ीक़त की ज़मीन पर ले आई। गज़ल अपने ख़ारजी, रवायती, फ़हाशी4, और बनावटी उसूलों को छोड़कर आज़ादी की सांसें लेने लगी। 4. तसव्वुफ- खुदा का ध्यान; 2. फ़नकार- ज्ञान रखने वाला, हुनरवान; 3. बरतरफ- जुदा, अलग; 4. फ़हाशी- अश्लीलता। हालांकि अब भी कई गज़ल-गो शायरों ने इस बदलाव को मंजूर करने से मना कर दिया और लकीर के फकीर बन गये लेकिन दाग जैसे रंगीन गज़ल उस्ताद के चन्द शार्गिदों ने नज़्मों की और उनके कारण से आये गज़ल में बदलाव दोनों की न सिर्फ़ हिमायत की बल्कि खुद गज़ल गोई छोड़कर नज़्में कहने लगे। इनमें अज़ीम नाम थे सर इकबाल, ‘सीमाब’ अकबराबादी और ‘जोश’ मलसियानी। इन शायरों को बड़े साहस से काम लेना पड़ा क्योंकि उस समय भी उर्दू जबान के 60 फ़ीसदी शायर हज़रत दाग़, ‘अमीर’ मीनाई और ‘जलाल’ के रंगों में रंगे थे। फिर नज़्म के साथ कुछ और नाम जुड़े जो दम खम वाले सुखन-फहम थे। इनमें मुख्य थे ‘सफ़ी’ लख़नवी, ‘साकिब’ लख़नवी, ‘आरजू’ लख़नवी, यास यागाना ‘चंगेजी’, ‘फानी’ बदायूनी, ‘असगर’ गौण्डवी, ‘हसरत’ मोहानी और ‘ज़िगर’ मुरादाबादी। इन्होंने गजलें भी लिखीं और नज़्में भी लेकिन उनके विषय बदल गये और इश्क़, आशिक, माशूक़ उनका हुस्न, सितम, नाज़ो-अदा, आहोज़ारी से ऊपर उठकर गज़ल ने नये आयाम प्राप्त कर लिये। वतन के लिए सरफ़रोशी, कौम की इज़्ज़त-अस्मत, दीन दुखियों के जीवन का दर्द आदि इसके विषयों में शामिल हो गये। शायरी अब रियाज़1 का विषय न रही, केवल उन लोगों की अमानत हो गई जो शायराना मिज़ाज़ और दिलो-दिमाग लेकर पैदा हुए थे। कुदरत और हक़ीक़त के जज़्बे अब रवायात की जगह लेने लगे। ‘मीर’ जिन्हें ‘खुदाये-सुखन’ की पदवी अता फरमाई गई है ने इश्क़िया शायरी तब की जब उनका खुद का इश्क़ नाकामयाब रहा और इससे उनकी पाक इश्क़िया शायरी में जो सोज़ो-गुदाज़2 और असर पैदा हुआ वह आज तक भुलाया न जा सका। इसीके चलते ज़ौक़ जैसे उस्तादे-शहंशाह तक को कहना पड़ा कि‒ न हुआ पर न हुआ, मीर का अन्दाज़ नसीब। ज़ौक़ यारों ने बहुत जोर गज़ल में मारा।। केवल लफ़्फ़ाजी से शेर या गज़ल में यह सोज़ो-गुदाज़, यह असर नहीं आता अन्यथा मीर को यह नहीं कहना पड़ता कि- हमको शायर न कहो मीर कि साहब हमने। दर्दे-ग़म कितने किये जमा तो दीवान बने।। जब तक दिल में कोई बात का दर्द नहीं हो या कोई जज्बा न हो तब तक शेर दमदार बन ही नहीं सकते। उर्दू के ज़्यादातर शायरों ने बिना जज्बात, बे-मुरव्वत3 शायरी में शिरकत4 कर अपना नाम कमाने के लिये या फिर पैसे के लिये पेशेवर शायरी की थी। उनके शेरों में और गज़लों में वोह दम जो होना चाहिए नज़र नहीं आता। यह बात उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे 10 वर्षों के शायरों पर लागू नहीं होती और उनमें से जिसे भी शोहरत मिली अपने दम पर और काम के बल पर मिली। अब हम इन नये युग के शायरों की शायरी का सफ़र तय करेगें और उसका लुत्फ उठायेंगे। 1. रियाज- अभ्यास; 2. सोज़ो गुदाज़- मर्म को छू सकने की क्षमता; 3. बे मुरव्वत- लगाव न रखने वाला; 4. शिरकत- भाग लेना, शामिल होना। यहां पर भी देहलवी शायर और लख़नवी शायर दोनों की अलग अलग ज़मातें कायम रहीं। लख़नवी स्कूल के शोहरत-मंद शायर थे, ‘साकिब’ लख़नवी, ‘आरजू’ लख़नवी, ‘रियाज़’ ख़ैराबादी, ‘ज़लील’ मानेकपुरी, ‘दिल’ शाहजहानपुरी, ‘हफ़ीज़’ ज़ौनपुरी, ‘नातिक’ लख़नवी और ‘असर’ लख़नवी जबकि देहलवी स्कूल के नामी गिरामी शायर थे ‘शाद’ अज़ीमाबादी, ‘हसरत’ मोहानी, ‘फ़ानी’ बदायूनी, ‘यास’ यागाना चंगेजी, ‘आसी’ गाज़ीपुरी, ‘असगर’ गौण्डवी और ‘ज़िगर’ मुरादाबादी। हम इन सभी शायरों और उनके कलामों पर एक एक नज़र डालेंगे। देहलवी और लख़नवी शायरी की सबसे अच्छी तुलना तभी की जा सकती है जब एक शायर एक स्कूल से लिया जावे और दूसरा दूसरी स्कूल से। आगे का सफ़र हमें इसी प्रकार तय करना है। नई लख़नवी स्कूल वास्तव में ‘नज़्म’ तबातबाई से शुरू हुई जो सन् 1850 में जन्मे और जिनका इंतकाल 1933 में हो गया। उनकी शायरी खारजी रंग में ही रंगी थी लेकिन उन्होंने अंग्रेजी की कविताओं का उर्दू तर्जुमा1 बहुत ही कुदरती तरीके से कर नाम कमाया। ये ‘दाग’ के रंग में कलाम लिखते थे, बानगी देखिये‒ अदाये सादगी में कंघी चोटी ने खलल2 डाला। शिकन3 माथे पै, अबरू4 में गिरह5, गेसू में बल डाला।। कहने सुनने से जरा पास आके बैठ गये। निगाह फेर के त्यौरी चढ़ा के बैठ गये।। निगाहे यास6 मेरी काम कर गई अपना। रूलाके उठे थे वोह मुस्कराके बैठ गये।। इसके बाद ‘सफ़ी’ लख़नवी का नाम लूंगा जो 1862 में लखनऊ में जन्मे और जिनका 1950 में इंतकाल हुआ। इनकी कौमी नज़्मों ने काफी शुहरत पाई और मुसलमान इन्हें कौम की आवाज मानने लगे। सफ़ी साहब गज़लों को आकाश की कल्पना से उतारकर यर्थाथ के धरातल पर लाये। इनके चन्द चुने हुये शेर पेशे खिदमत है‒ निकले है तीन नाम मिरे तिफ़्ले-इश्क7 के। नूरे-निगाह8, लख़्ते-ज़िगर9, यादगारे-दिल।। कैसी कैसी सूरतें ख्वाबे-परीशां10 हो गईं। सामने आँखों के आईं और पिन्हा हो गईं।। 1. तर्जुमा- अनुवाद; 2. ख़लल- व्यवधान; 3. शिकन- सलवट; 4. अबरू- भवें; 5. गिरह- गाँठ; 6. यास- मायूसी, निराशा; 7. तिफ़्ले इश्क- बचपन का इश्क; 8. नूरे निगाह- आँखों की रोशनी; 9. लख़्ते जिगर- दिल का टुकड़ा; 10. ख्वाबे परीशां- बुरा सपना। इन्सान मुसीबत में हिम्मत न अगर हारे। आसानों में वह आसाँ है मुश्किल से जो मुश्किल।। दुनिया की तरक्की है इस राज़ से वाबस्ता1। इंसान के कब्जे में सब कुछ है अगर दिल है।। जो चीज नहीं बस की फिर उसकी शिकायत क्या। जो कुछ नज़र आता है अच्छा नज़र आता है।। * 1. वाबस्ता - जुड़ी हुई। मुंशी नौबतराय ‘नज़र’ लख़नवी नयी उम्र के लख़नवी शायरों में जो नाम पहले पहल शुहरत की बुलंदी पर आया वो था जनाब नौबतराय ‘नज़र’ साहब का। वे 1766 में पैदा हुए और 1823 में खुदा को प्यारे हुये। खुद का कोई पुत्र न था सो नवासे को गोद लिया पर खुदा ने उसे भी छीन लिया। उसी मौत पर उन्होंने फरमाया कि‒ थमो थमो कि इस उजड़े मकां का था ये चराग। बहार पर था इसी नौनिहाल से ये बाग।। न होगा मुझे अब हासिल कभी जहाँ में फराग1। तमाम उम्र दिल नातवां है और यह दाग।। फुगाने-बुलबुले-जाँ2 दिल के पार होती है। ‘नज़र’ के बाग से रूख़सत3 बहार होती है।। नज़र ने फिर इस सदमें से उबरने के लिये पड़ौसी के एक बच्चे को अपने साथ रखा पर जब वह भी छत से गिर कर मर गया तो नज़र का इंतकाल हो गया। जाते जाते उन्होंने जो शेर कहा वह उनके जीवनकाल की व्यथा को साकार करता है। ऐ इनकलाबे-आलम4 तू भी गवाह रहना। काटी है उम्र हमने पहलू बदल बदल कर।। नज़र के कलाम में दर्द के साथ जो सादगी थी उससे उसका असर, उसका सोजो-गुदाज़ और बढ़ जाता था। उनकी शायरी का एक भी शेर ज़लील या हकीर5 विचारों से भरा नहीं है। उनके कहे चन्द शेर पेशे-खिदमत हैं‒ फ़ना होने में सोजे-शम्अ6 की मिन्नत-कशी7 कैसी। जले जो आग में अपनी उसे परवाना कहते हैं।। 1. फराग- अमन चैन, मुक्ति; 2. फुगाने बुलबुले जाँ- आत्मी रूपी बुलबुल की आवाज़, माशूक के रोने की आवाज; 3. रूखसत- विदा; 4. इन्कलाबे आलम- संसार की उलट-पलट; 5. हकीर- नीच, ओछा; 6. सोजे शमअ- शमा की तपिश (ज्वाला); 7. मिन्नत कशी- प्रार्थना करना। दिल की हालत नहीं बदलने की। अब ये दुनिया नहीं संभलने की।। तबाही दिल की देखी है जो हमने अपनी आँखों से। हो अब कैसी ही बस्ती हम उसे वीराना कहते हैं।। कोई मुझसा मुस्तहके-रहमो-गम-ख़्वारी1 नहीं। सौ मरज़ है और बज़ाहिर कोई बीमारी नहीं।। इश्क़ की नाकामियों ने इस कदर खींचा है तूल। मेरे गमख़्वारों को अब चाराये-गमख़्वारी2 नहीं।। खिजां अन्जाम3 है सबकी बहारें, चन्द रोजा की। बहुत रोता हूं सूरत को देखकर गुल-हाये-खन्दा4 की।। वोह एक तुम कि सरापा बहारो-नाज़िशे-गुल5। वोह एक मैं कि नहीं सूरत आशनाये-बहार6।। जमीं पै लाल-ओ-गुल बन के आशकार7 हुआ। छुपा न खाक में जब हुस्न खुदनुमाए-बहार8।। वोह शम्अ नहीं कि हो इक रात के मेहमाँ। जलते हैं तो बुझते नहीं हम वक्ते-सहर भी।। कफ़स से छूटकर पहुंचे न हम दीवारे-गुलशन तक। रसाई9 आशियां तक किस तरह बे-बालो-पर होगी।। फ़कत इक सांस बाकी है मरीज़े-हिज्र के तन में। यह कांटा भी निकल जाये तो राहत से बसर होगी।। दिल था तो हो रहा था अहसासे-जिन्दगी भी। जिन्दा हूँ कि अब मुर्दा मुझको ख़बर नहीं है।। मरने पर ज़िस्मे-ख़ाकी10 क्या साथ रूह का दे। राहे-अदम में गाफ़िल ! गर्दे-सफ़र नहीं है।। 1. मुस्तहके रहमो गमख़्वारी- गम बाँटने और रहम पाने का हकदार; 2. चाराए गमख़्वारी- गमों के इलाज; 3. खिजाँ अन्जाम- पतझड़ का अन्त; 4. गुल हाये खन्दा- मुरझाया फूल; 5. बहारो नाज़िशे गुल- ऐसी बहार जिस पर फूल भी घमण्ड करे; 6. आशनाये बहार-बहार की सूरत से परिचित; 7. आशकार- प्रकट, पैदा; 8. खुदनुमाए बहार- खुद बहार बन कर प्रकट हुआ; 9. रसाई- पहुँच; 10. जिस्मे ख़ाकी- माटी से बना शरीर; । सोजाँ ग़मे-जाविद1 से दिल भी है जिगर भी। इक आह का शोला कि इधर भी है उधार भी।। वोह अंजुमने-नाज है और रंगे-तगाफुल। याँ है मरहला-ए-आह2 भी अन्दोहे-असर3 भी।। अभी मरना बहुत दुश्वार है ग़म की कशाकश से। अदा हो जायेगा ये फर्ज़ भी फुर्सत अगर होगी।। मुआफ-ए-हमनशीं ! गर आह कोई लब पै आ जाये। तबीयत रफ़्ता-रफ़्ता खूगरे-दर्दे-ज़िगर4 होगी।। * 1. गमे जाविद- स्थायी गम; 2. मरहल ए आह- आह की मंजिल; 3. अन्दोहे असर- रंजीदा, रंज से प्रभावित; 4. खूगरे दर्दे ज़िगर- दिल के दर्द को सहने का आदी (अभ्यास)।

Rasleela Nathdwara Style | Twin Eternals - Matter & Energy

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