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Ghazal-32

एक ग़ज़ल- भुला के हक़ीक़त जो सोता रहेगा, वो अश्क़ों से दामन भिगोता रहेगा। ग़रीबों को ज़ालिम सताते रहे हैं, न जागे वो, तब तो यह, होता रहेगा। किनारे-किनारे ही तैरा जो, उसको, डुबोता है दरिया, डुबोता रहेगा। वही मंज़िलें पा सका है, जो इंसां, इरादों में ख़्वाबों को बोता रहेगा। उसे फ़स्ल वो काटनी ही पड़ेगी, जिसे ज़िन्दगानी में बोता रहेगा। लुटा तू, पिटा तू, मगर कह रहे वो, तमाशा हुआ है, ये होता रहेगा। अदीबो क़लम हक़ की ख़ातिर उठाओ, नहीं तो ग़लत जो है, होता रहेगा। अदीब= साहित्यकार। 'Maahir'

Ghazal-31[ Three ghazals in one kafia)

#ग़ज़ल_غزل: ---------------------- दूँ क़र्ज़ कैसे, तुमको चुकाना तो है नहीं कारूँ का मेरे घर भी खज़ाना तो है नहीं//१ دوں قرض کیسے، تمکو چکانا تو ہے نہیں کاروں کا میرے گھر بھی خزانہ ٹو ہی نہیں//۱ हमको भी कौन उनके इरादों पे है यकीं उनको भी वादा करके निभाना तो है नहीं//२ ہمکو بھی کون اُنکے ارادوں پے ہے یقیں انکو بھی وعدہ کرکے نبھانا تو ہے نہیں//۲ क्यों देखते हो ख़्वाब मुहब्बत के इतने तुम ये ज़िंदगी है दोस्त,फ़साना तो है नहीं//३ کیوں دیکھتے ہو خواب محبّت کے اتنے تم یہ زِندگی ہے دوست، فسانہ تو ہے نہیں//۳ देखूँ मैं तुमको और न मचले तुम्हारा दिल इतना बुरा भी मेरा निशाना तो है नहीं//४ دیکھوں میں تمکو اور نہ مچلے تمہارا دِل اتنا برا بھی میرا نشانہ تو ہے نہیں//۴ सहने का हौसला रखो गर इश्क़ है तुम्हें शैदाई आशिक़ों का ज़माना तो है नहीं//५ سہنے کا حوصلا رکھو گر عشق ہے تمھیں شیدائی عاشقوں کا زمانہ تو ہے نہیں//۵ मुझपे वो आँख मूंद के कर लेगा क्यों यकीं इतना भी अपना रब्त पुराना तो है नहीं//६ مجھپے وہ آنکھ موند کے کر لیگا کیوں یقیں اتنا بھی اپنا ربط پرانا تو ہے نہیں//۶ या तो मिलूँ मैं मैक़दे या कू ए हुस्न में रिंदों का 'राज़' और ठिकाना तो है नहीं//७ یہ تو ملوں میں میکدے یہ کو اے حُسن میں رندوں کا راز اور ٹھکانہ تو ہے نہیں//۷ ' COLLECTION BY Maahir;" #راز_نوادوی (ایک انجان شاعر) कारूँ-किंवदंती में वर्णित एक राजा जो बहुत ही अमीर था शैदाई-आशिक़,लवर रब्त-संबंध,आत्मीयता कू ए हुस्न-सौंदर्य की गली रिंद-शराबी --------------------------------------------------------------------- #जनाब_अब्बास_ताबिश_साहिब_की_ग़ज़ल तुझ जैसा हर तरफ़ नज़र आना तो है नहीं दिल आईना है,आईना-ख़ाना तो है नहीं //१ تجھ جیسا ہر طرف نظر آنا تو ہے نہیں دل آئینہ ہے، آئینہ خانہ تو ہے نہیں ऐ हिज्र तू ही कर ले कोई शक्ल इख़्तियार बिछड़े हुओं ने लौट के आना तो है नहीं //२ اے ہجر تُو ہی کر لے کوئی شکل اختیار بچھڑے ہوؤں نے لوٹ کے آنا تو ہے نہیں क्यों ख़्वाब और साँप में रहती है कश्मकश आँखों की तह में कोई ख़ज़ाना तो है नहीं //३ کیوں خواب اور سانپ میں رہتی ہے کشمکش آنکھوں کی تہ میں کوئی خزانہ تو ہے نہیں तू ने भी इस बलन्दी से महताब की तरह आते दिखायी देना है आना तो है नहीं //४ تُو نے بھی اس بلندی سے مہتاب کی طرح آتے دکھائی دینا ہے,___\\ آنا تو ہے نہیں तुझसे म'आमला तो है ख़ुद से म'आमला तू ज़िंदगी है दोस्त ज़माना तो है नहीं //५ تجھ سے معاملہ تو ہے خود سے معاملہ تُو زندگی ہے دوست زمانہ تو ہے نہیں अब्बास_ताबिश عباس تابش ___________________________ मुहतरमा_रेहाना_रूही_साहिबा_की_ग़ज़ल तेरी गली को छोड़ के जाना तो है नहीं दुनिया में कोई और ठिकाना तो है नहीं //१ تیری گلی کو چھوڑ کے جانا تو ہے نہیں دنیا میں کوئی اور ٹھکانا تو ہے نہیں जी चाहता है काश वो मिल जाए राह में हालाँकि मोजज़ों का ज़माना तो है नहीं //२ جی چاہتا ہے کاش وہ مل جائے راہ میں حالانکہ معجزوں کا زمانا تو ہے نہیں इस घर में उस के नाम का कमरा हैआज भी जिस को कभी भी लौट के आना तो है नहीं //३ اس گھر میں اس کے نام کا کمرہ ہے آج بھی جس کو کبھی بھی لوٹ کے آنا تو ہے نہیں शायद वो रहम खा के मिरी जान बख़्श दे क़ातिल है कोई दोस्त पुराना तो है नहीं //४ شاید وہ رحم کھا کے مری جان بخش دے قاتل ہے کوئی دوست پرانا تو ہے نہیں अश्कों को'रूही'ख़र्च करो देख-भाल के आँखों के पास कोई ख़ज़ाना तो है नहीं //५ اشکوں کو روحیؔ خرچ کرو دیکھ بھال کے آنکھوں کے پاس کوئی خزانا تو ہے نہیں रेहाना_रूही ریحانہ روحی _________________________________ जनाब_रहमान_फ़ारिस_साहिब_की_ग़ज़ल बैठे हैं चैन से कहीं जाना तो है नहीं हम बे-घरों का कोई ठिकाना तो है नहीं //१ بیٹھے ہیں چین سے کہیں جانا تو ہے نہیں ہم بے گھروں کا کوئی ٹھکانا تو ہے نہیں तुम भी हो बीते वक़्त के मानिंद हू-ब-हू तुम ने भी याद आना है आना तो है नहीं //२ تم بھی ہو بیتے وقت کے مانند ہو بہو تم نے بھی یاد آنا ہے آنا تو ہے نہیں अहद-ए-वफ़ा से किस लिए ख़ाइफ़ हो मेरी जान कर लो कि तुम ने अहद निभाना तो है नहीं //३ عہد وفا سے کس لیے خائف ہو میری جان کر لو کہ تم نے عہد نبھانا تو ہے نہیں वो जो हमें अज़ीज़ है कैसा है कौन है क्यूँ पूछते हो हम ने बताना तो है नहीं //४ وہ جو ہمیں عزیز ہے کیسا ہے کون ہے کیوں پوچھتے ہو ہم نے بتانا تو ہے نہیں दुनिया हम अहल-ए-इश्क़ पे क्यूँ फेंकती है जाल हम ने तिरे फ़रेब में आना तो है नहीं //५ دنیا ہم اہل عشق پہ کیوں پھینکتی ہے جال ہم نے ترے فریب میں آنا تو ہے نہیں वो इश्क़ तो करेगा मगर देख भाल के 'फ़ारिस'वो तेरे जैसा दिवाना तो है नहीं //६ وہ عشق تو کرے گا مگر دیکھ بھال کے فارسؔ وہ تیرے جیسا دوانہ تو ہے نہیں रहमान_फ़ारिस رحمان فارس

Ghazal-30

Ghazal ग़म हों फिर भी ज़िन्दगी से दिल लगा के देखिए, और थोड़ा शायरी से दिल लगा के देखिए। कर चुके नुक्सान नासमझी में कितना आजतक, कुछ समझ की रोशनी से दिल लगा के देखिए। वक़्त आगे बढ़ रहा है, छोड़ कर हर चीज़ को, आप भी कुछ ताज़गी से दिल लगा के देखिए। रंग-रोगन से बहुत दिन दिल बहल सकता नहीं, मान्यवर, कुछ सादगी से दिल लगा के देखिए। इस मशीनी दौर में इंसानियत के वास्ते, आँख की भी कुछ नमी से दिल लगा के देखिए। आपको गुज़रा हुआ कुछ वक़्त याद आ जाएगा, हो सके तो चाँदनी से दिल लगा के देखिए। चाँद से चेहरों की रौनक फ़िक्र से होती है कम, कुछ तो 'शेखर' दिल्लगी से दिल लगा के देखिए। Maahir

Ghazal-29

Samvidhaan. देश की जनता ने, कुछ ऐसा लिखा है संविधान, लक्ष्य यह इंसानियत का, दे रहा है संविधान। ये बनाया है हमीं ने, "लोग हम भारत के" हैं, विश्व में सबसे सुखद ये, खिल रहा है संविधान। "लोक" के आलोक को, विस्तार देने के लिए, इस धरा को, स्वर्ग करने को, लिखा है संविधान। "लोग भारत के" जो हैं, उनकी तरक्की के लिए, देश-दुनिया को सजाने, को लिखा है संविधान। "राज्य गण" का ही रहे, औ काबिलों को पद मिलें, "आमजन की बात" कहने, को लिखा है संविधान। लोकमत की धारणा को, सच बनाने के लिए, सोच जनता की जगाने, को लिखा है संविधान। "पंथ से निरपेक्षता" हो, सोच “मानवता" रहे, वास्ते जनहित के जन ने, लिख दिया है संविधान। आमजन के वास्ते, हर काम हो जाए सहज, रंक को सामर्थ्य देने, को बना है संविधान। राष्ट्रपति के वास्ते भी, वोट की दरकार हो, इक नया इतिहास रचने, को रचा है संविधान। सब तरह की हो यहाँ, "आजादी" जनहित के लिए, ख़्वाब जनता के सजाने, को लिखा है संविधान। “नीति के निर्देश” हैं तो, “मूल हैं अधिकार” भी, “मूल कर्तव्यों” को शामिल, कर सजा है संविधान। "अवसरों की" हो यहाँ, "समता" सभी के वास्ते, ज़िन्दगी नैतिक बनाने, को लिखा है संविधान। "एकता” हो देश में, "इंसानियत” उद्देश्य हो, राज्य जनता का बनाने, को लिखा है संविधान। हैसियत का अब कोई, अंतर न हो इंसान में, भेदभावों को मिटाने, को लिखा है संविधान। देश की हर हाल में क़ायम रहे "इंटीग्रिटी", देश को "संप्रभु" बनाने, को खिला है संविधान। बाद करने के "सृजित” ये, "आत्म अर्पित" भी किया, दोस्तो जनहित की ख़ातिर, लिख दिया है संविधान। - वीरेन्द्र कुमार शेखर।

Kavita

कविता : रसोईघर रसोईघर,... देखा है मैं ने, ताक कर नहीं, पत्नी की तरह ही, नाश्ता-खाना बनाकर; रसोईघर की उमस में, पसीने से नहाकर,प्याज के आंसू बहाकर,भात पकाकर, चोखा बनाकर और तड़का लगाकर, आटा गूंध कर,रोटी बेल कर,फुला कर। मैं नहीं मानता कि नहीं कर सकता मैं वह सब,जो करती हैं पत्नी दिन में अनगिनत बार जाकर,रसोईघर। लेकिन इस आधार पर नहीं कर सकता अंडरएस्टीमेट गृहणी के कार्य को,क्योंकि भात-रोटी,दाल-सब्जी,पापड़-चटनी भर नहीं है रसोई घर। नाश्ता-खाना बनाना तो, किसी गृहणी के कार्यों का सबसे छोटा हिस्सा होता है, कार्यों के बीच एक स्वनिर्मित मनोरंजन, अपनी और अपनों की पसंद से बनाने को व्यंजन; घर-द्वार,झाड़ू-पोछा,बर्तन-चौंका जैसे दिखने वाले और हमें नहीं दिखने वाले अनेक कार्यों की खान है 'रसोईघर'। जिस दिन किसी को महसूस हो जाएगा यह सच, डांट-डपट,प्रताड़ना का भाव जाएगा उतर, "यत्र नार्यस्तु पूज्यंते,रमंते तत्र देवता:" का उभरेगा स्वर; नारियों को प्रति आ जाएगी संवेदना जिस दिन घर-घर में, थम जाएगी उनपर होने वाली हिंसा,घर में और सड़क पर! Pavan Kumar Sharma

Ghazal-28

एक ग़ज़ल- प्रेम में इन्कार भी इक़रार है, सोचिये क्या आपको इन्कार है। कण से कण के बीच जो दिखता लगाव, ज़िन्दगी का एक ये आधार है। प्रेम भाषा बंधनों से है परे, प्रेम तो बस भाव का संसार है। प्रेम में दुनिया समायी है मेरे, चर-अचर हर शय से मुझको प्यार है। शर्त कोई प्रेम में होती नहीं, तर्क के आगे का ये संसार है। प्रेम होता है स्वत: ही दोस्तो, जो हुआ करने से वो व्यापार है। तुम अभी से प्रेम में घबरा गए, इस सफ़र में कष्ट अपरम्पार है। प्रेम जिसको हो गया उसके लिए, प्रेम का हर कष्ट सुख का द्वार है। मशवरे के वास्ते आये हो तुम, प्रेम में हर मशवरा बेकार है। तुम बहक सकते हो कुछ सँभलो ज़रा, मेरे वश में दिल कहाँ अब यार है। ढूँढते हो प्रेम का कारण अबस, प्रेम का बस प्रेम ही आधार है। प्रेम से अस्तित्व में आया जहाँ, प्रेम ही संसार का आधार है। 'Maahir'

Geeta-35

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ११ : ध्यानयोग के लिए स्थान और आसन का विवरण : शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरम् आसनम् आत्मन : । न अत्युच्छिृतम् न अतिनीचम् चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥११॥ शुद्ध स्थान पर पहुँचकर स्वयं अपना स्थिर आसन लगाए । जो न बहुत ऊँचा हो न नीचा हो वस्त्र, मृगछाला और कुश का आसन बिछाए ॥११॥ देश और आसन के संबंध में: ज्ञानेश्वरी के रचयिता संत ज्ञानेश्वर जो सिद्ध योगी थे, ने स्थान के बारे में कहा है कि “वह ऐसा होना चाहिए कि उसे देखते ही वैराग्य दुगुना हो जाय। जिस स्थान पर अपने आप अभ्यास हो जाता है और अनुभव स्वयं साधक के अंत:करण को माला पहना देता है और वैराग्य को थपथपाकर जाग्रत करता है । वह स्थान इतना पावन होना चाहिए कि वहाँ साक्षात ब्रह्म ही दृष्टिगोचर हो ।” “आसनम् आत्मन :” रामचरितमानस में शिव-पार्वती संवाद की भूमिका में महान योगेश्वर भगवान शिव का वर्णन करते हुए कवि लिखता है: परम रम्य गिरिबरु कैलासू । सदा जहाँ सिल उमा निवासू ॥ ८/ दोहा १०५ बालकांड तेहि गिरिपरबटबिटपबिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला ॥ एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ ॥ निज कर डासि नागरिपु छाला बैठे सहजहिं संभु कृपाला ॥ २,४ ५/दोहा १०६ बालकांड ध्यान के लिए जैसे स्थान की आवश्यकता होती है और साोधक को जिस प्रकार निराभिमानी और वैराग्योन्मुख होना चाहिए उसका अत्यंत सटीक वर्णन है । Paavan Teerth

Geeta-34

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे अध्याय ६: आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक १० : ध्यानयोग का वर्णन : योगी युंजीत सततम् आत्मानम् रहसि स्थित : । एकाकी यतचित्तात्मा निराशी : अपरिग्रह : ॥१०॥ एकाकी, एकान्त में होकर के स्थित मन, इन्द्रियों और शरीर को कर नियंत्रित आशा-रहित, संग्रह-रहित हो योगी निरन्तर आत्म को ब्रह्म मे रखता निमज्जित ॥१०॥ श्लोक में आए शब्दों पर विचार: योग : युज् समाधौ धातु से योग शब्द बना है जिसका अर्थ चित्त-वृत्तियों का निरोध करना है । एकाकी और एकान्त में स्थित होवे : ध्यान के लिए योगी अकेला हो और एकान्त स्थान में रहे । इसलिए “रहसि स्थित:” कहा। यतचित्तात्मा: साधक अन्त:करण सहित शरीर को वश में रखने वाला हो । अपरिग्रह:अर्थात अपने लिए सुख बुद्धि से कुछ भी संग्रह न करे। क्योंकि ऐसा करने से मन का खिंचाव उन्हीं में लगा रहेगा निराशी : बाहर के संग्रह के साथ भीतर के भोग और संग्रह की इच्छा का त्याग । आत्मानम् सततम् युंजीत : ध्यान से पहले यह दृढ़ निश्चय रखें कि अब मेरे को संसार का कोई काम नहीं करना है, केवल भगवान का ध्यान ही करना है। कर्मयोगी संसार में तो भगवान को मिलाये पर भगवान मे संसार को न मिलाए। Paavan Teerth.

Geeta-33

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ५ और ६ : उद्धरेत् आत्मना आत्मानम् न आत्मानम् अवसादयेत् । आत्मा एव हि आत्मन : बन्धु: आत्मा एव रिपु : आत्मन : ॥५॥ स्वयं ही तू स्वयं का उद्धार कर स्वयं तू बन ना कभी स्वयं के अवसाद का कारण कभी । क्योंकि आप ही तू मित्र अपना आप ही निज शत्रु है ॥५॥ बन्धु : आत्मा आत्मन : तस्य येन आत्मा एवआत्मना जित : । अनात्मन : तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रुवत् ॥६॥ समता-अवस्थित अन्त:करण जिसका ब्रह्म को सम देखता सब लोक में इसलिए स्वयं ही वह बंधु निज का । पर जीत न जो पाया स्वयं को वह स्वयं ही शत्रु बन जाता स्वयं का ॥६॥ अपना उद्धार करने में आत्मस्वातन्त्र्य : पूर्व श्लोक में श्री भगवान ने योगारूढ़ होने में अर्थात अपना उद्धार करने में मनुष्य को स्वतंत्र बताया। अब इन दो श्लोकों में, पहले अन्वय से और बाद में व्यतिरेक से, वर्णन किया है कि आत्मा अपना ही मित्र कब होता है और आत्मा अपना शत्रु कब हो जाता है । इसी तथ्य को अध्याय तेरह मे : समम् पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितम् ईश्वरम् । न हिनस्ति आत्मना आत्मानम् तत: याति पराम् गतिम् ॥२८॥ श्लोक पाँच और छह में आए “आत्मा “ शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थ में : १. अंतरात्मा २. मैंपन अर्थात स्वयं ३. अन्त:करण या मन यहाँ श्री भगवान ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात जो कही ,वह यह है कि शास्त्र, संत, गुरु, सब आपका मार्गनिर्देश तो कर सकते हैं, यथा, तत् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानम् ज्ञानिन : तत्वदर्शिन : ॥३४॥ निष्कर्ष में जो हमारे सहायक, रक्षक, उद्धारक, उनमें भी जब हम स्वयं से उनमें श्रद्धा-भक्ति करेंगे, उनकी बात मानेंगे तभी हमें तत्वज्ञान होगा अन्यथा वे हमारा उद्धार नहीं कर सकते। Paavan Teeth

Geeta -32

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग क्रमश : श्लोक ७ : आत्मा का परमात्मा में लय करने की विधि : जितात्मन : प्रशान्तस्य परमात्मा समाहित : । शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो : ॥७॥ स्वयं के आत्म को करके विजय शान्त अन्त:करण से । जो शीत-उष्ण , सुख-दु:ख को, और मान और अपमान को सम देखता उसको नित्य ही हैं प्राप्त रहते परमात्मा ॥७॥ परमात्मा में लीन होने की विधि : इस श्लोक में परमात्मा शब्द आत्मा के लिए ही प्रयुक्त है। देह का आत्मा सामान्यतः सुख-दु:ख, शीत-उष्ण, मान-अपमान में पड़ कर प्रकृति के गुणों से बद्ध रहने के कारण जीवात्मा कहा जाता है और इन गुणों से मुक्त होकर इन्द्रिय - संयम से वहीं परमात्मा हो जाता है ।तत्वत: शरीर में रहने वाला आत्मा ही परमात्मा है । देखिए: उपद्रष्टा अनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वर: । परमात्मा इति च अपि उक्त: देहे अस्मिन् पुरुष: पर : ॥२२/ अध्याय १३॥ एक और महत्वपूर्ण बात श्लोक में शरीर. मन और विवेक को स्थिर रखने की, शीत-उष्ण, सुख-दु:ख और मान-अपमान को मनको जीत कर प्रशान्त रहने के लिए कहकर कही गयी है । Paavan Teerth.

Kavita(Brahmin) जो जगा नहीं,वह रोयेगा! जो बचा उसे भी खोएगा! सब एक कंठ मिलकर गाओ! बट चुके बहुत अब और नहीं! बिन मिले हमारा ठौर नहीं! यह रात बड़ी भय वाली है! आँधी ने भुजा उठा ली है! बुझ रहे हमारे दीप सकल! डाकू के उमड़े हैं दल बल! स्थिति बिल्कुल त्रेता वाली! जब उठा परशु था विकराली! जब न्याय विमर्दित होता है! सारा समाज जब रोता है! तब ब्राह्मण पोथी तज देता! सौगंध विपुल यह ले लेता! जब तक अधर्म न डोलेगा! तब तक यह लोहित खौलेगा! टंकार परशु की हो जाये! सच आज फैसला हो जाये! 'Paavan Teerth'

Ghazal-27

Kavita (Brahmin) जो जगा नहीं,वह रोयेगा! जो बचा उसे भी खोएगा! सब एक कंठ मिलकर गाओ! बट चुके बहुत अब और नहीं! बिन मिले हमारा ठौर नहीं! यह रात बड़ी भय वाली है! आँधी ने भुजा उठा ली है! बुझ रहे हमारे दीप सकल! डाकू के उमड़े हैं दल बल! स्थिति बिल्कुल त्रेता वाली! जब उठा परशु था विकराली! जब न्याय विमर्दित होता है! सारा समाज जब रोता है! तब ब्राह्मण पोथी तज देता! सौगंध विपुल यह ले लेता! जब तक अधर्म न डोलेगा! तब तक यह लोहित खौलेगा! टंकार परशु की हो जाये! सच आज फैसला हो जाये! Paavan Teerth

Geeta-31

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे :अध्याय ६: आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ३ और ४ : साधक से सिद्ध होने तक : आरुरुक्षो : मुने : योगम् कर्म कारणम् उच्यते । योगारूढस्य तस्य एव शम : कारणम् उच्यते ॥३॥ योग में आरूढ़ मुनि की सफलता मैं निष्काम कर्म बनते हेतु हैं । योग में आरूढ़ जन के कर्म-संकल्प चुक गए होते सभी ॥३॥ यदा हि न इनि्द्रयार्थेषु न कर्मसु अनुषज्जते । सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढ : तदा उच्यते ॥४॥ जब कभी इन्द्रियों की भोग-इच्छा और कर्म में आसक्ति शेष रहती है नहीं । तब ही सभी - संकल्प-त्यागी योग में आरूढ़ कहलाते तभी ॥ ४॥ साधक से सिद्ध-कर्मयोगी तक : इसी अध्याय के प्रथम श्लोक में कहा गया: अनाश्रित: कर्मफलम् कार्यम् कर्म करोति य: स: संन्यासी च योगी च न निरग्नि न च अक्रिय: ॥१॥ इसलिए तीसरे श्लोक तक आते-आते “शम:” का यह अर्थ करना कि योगारूढ़ हो जाने पर कर्म छोड़ देना अन्यायपूर्ण है । इसका अर्थ इतना भर है कि योगारूढ़ कर्मशील का शम अर्थात मन की शांति का कारण हो जाता है ।योगारूढ कर्मयोगी को लोकसंग्रहकारक कर्म करने के लिये अब “शम” “कारण “ या साधन हो जाता है यद्यपि उसका अब कर्म में कोई स्वार्थ नहीं रह गया है । पिछले पाँचवें अध्याय में ही कहा है: युक्त: कर्मफलम् त्यक्त्वा शान्तिम् आप्नोति नेष्ठिकीम् (श्लोक १२/अध्याय ५)। चौथे श्लोक में आए प्रकृति का अंश जानकर इनि्द्रयों और उनसे सम्पन्न होने वाली क्रियाओं में आसक्ति का सर्वथा त्याग कर संसार से प्राप्त साधनों को संसार की सेवा में निष्काम भाव से लगा देना चाहिए । इस प्रकार सभी संकल्पों का त्याग कर लोकमंगल के लिए कर्म करने वाला कर्मयोगी सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाता है । Paavan Teerth

Ghazal-26

ग़ज़ल- दूर करने को बलाएं आजकल की, कुछ मदद लेनी पड़ेगी अब अनल की। झूठ उनका खिलखिला के हँस रहा जब, याद आई तब उन्हें फिर गंगाजल की। सत्य से आँखें चुराकर मीडिया अब, दे रही है बस ख़बर अब राशिफल की। बात हक़ की कर रहा जो भी उसे तो मिल रही धमकी मुसलसल रायफल की। पीढ़ियों की अब उन्हें चिंता कहाँ है, सोचते हैं वो महज बस आजकल की। बागबाँ की मस्लेहत को देखकर अब, रूह कांपी दोस्तो हर फूल-फल की। स्वार्थ का गहरा कुहासा छा रहा है, अब हवा से गंध आती है गरल की। बात दिल की आप तक पहुँचा सके बस, इसलिए ही ली मदद उसने ग़ज़ल की। सोचता, लिखता है अब दिनरात 'शेखर', फ़िक्र से है आँख जो उसने सजल की। Maahir

Ghazal-25

प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- जुर्रत न गर रही तो कहाँ ज़िन्दगी रही, राहें सहल हुईं, जो ये ज़िन्दादिली रही। जाने को जान भी ये चली जाएगी कभी, वो काम करगुज़र कि लगे ज़िन्दगी रही। उसकी ही यह कृपा है बड़ी, मुझ पे दोस्तो, जो सोच में मेरी ज़रा आवारगी रही। जो कामयाब हो न सके, गौर वो करें, ढूँढेंगे तो मिलेगी जो उनकी कमी रही। देखे न जानबूझ के जब वो मेरी तरफ़, तो ज़िन्दगी लगी कि वहीं पर रुकी रही। परछाइयों के क़द पे तो इतना न कर गुरूर, छोड़ेंगी साथ जो न कहीं रोशनी रही। वो रेल, बस, जहाज सभी बंद से हुए, ऐसी बुरी दशा न कभी विश्व की रही। कोरोना वायुयान से आया था देश में, हलकान चप्पलों पे बहुत मुफ़लिसी रही! 'Maahir'

Geeta-30

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : छठा अध्याय : प्रस्तावना और श्लोक १। : प्रस्तावना : पिछले पाँचवें अध्याय में निष्काम कर्मयोगी के लिए श्लोक २५ से योगी के लिए जो व्यवहारिक बातें बताई गई थीं उन्हीं का वर्णन इस अध्याय में विस्तार से किया गया है और अंत में अर्जुन को निराश न होकर अभ्यास और वैराग्य के द्वारा सतत् लगे रहने से शान्तब्रह्म से एकमेक होश्रद्धा-संयुक्तहोकर योगियों में भी परमश्रेष्ठ होने का आश्वासन दिया है । छठे अध्याय को श्रीगीता के भाष्यकारों ने विभिन्न नाम दिए हैं , यथा, ध्यान -योग, अध्यात्म योग, चित्तवृत्ति -निरोध योग, प्रमुख हैं । छठे अध्याय से पूर्व के अध्याय दो से पाँच मे श्री भगवान ने ज्ञान के विभिन्न आयामों का कलेवर प्रस्तुत किया और इस अध्याय में कहा कि हे मानव ! अब मैं तुझे बताता हूँ कि परब्रह्ममय होने के लिए किस प्रकार तुझे अपने शारीरिक और मानसिक क्रिया-कलापों को साधना है । श्री गीता हमें अपना व्यवहार शुद्ध और निर्मल रखकर मन का समाधान और शांति प्राप्त कर परमार्थ के मार्ग पर अग्रसर करती है । गीता हमें यथास्थान, जैसे हैं, जो कर रहे हैं, वहाँ पर ही न छोड़ कर, हाथ पकड़ कर आगे ले जाती है, ऊपर उठाती है और परमार्थिक रूप से सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त कराती है । सूत्र रूप में कहें तो तीसरे अध्याय के: कर्मण : हि अपि बोद्धव्यम् बोद्धव्यम् च विकर्मण : । अकर्मण: च बोद्धव्यम् गहना कर्मण : गति : ॥१७॥ विकर्म अर्थात विशेष कर्म , मन का वह संयोग जिससे मिल कर कर्म में श्रेष्ठता आती है , बताती है । मानसिक साधना की मुख्य बातें : १. चित्त की एकाग्रता २. चित्त की एकाग्रता के लिए उपयुक्त जीवन परिमितता ३. सम-दृष्टि अथवा मंगल दृष्टि ४. वैराग्य ५. अभ्यास का पाठ पढ़ाती हुई अंत में साधक को श्रद्धामय बने रहने का संदेश देती है । श्री भगवान उवाच : अनाश्रित: कर्मफलम् कार्यम् कर्म करोति य : । स: संन्यासी च योगी च न निरग्नि: न च अक्रिय : ॥१॥ श्री भगवान उवाच : कर्मफल आश्रित न हो कर करणीय कर्म करता जो नर । वही संन्यासी, वही योगी अक्रिय, अग्नि का त्यागी नहीं ॥१॥ श्रीमद्भगवद्गीता का प्रमुखतम संदेश : मनुष्यमात्र को शास्त्र विहित सभी कर्म बिना कर्मफल की आशा के करते रहना चाहिए । जो ऐसा करता है वही सच मे योगी है, वही संन्यासी कहलाने योग्य है केवल सब काम-धाम छोड़ कर गृहस्थों के लिए आवश्यक अग्नि सेवन छोड़ने वाला संन्यासी नहीं । यहाँ स्पष्टत: श्री भगवान ने कहा है कि कर्म किसी अवस्था में न छूटते हैं, न छोड़ने की आवश्यकता है केवल कर्मों से फलाशा और आसक्ति के त्याग की आवश्यकता है । Pavan Kumar Sharma (Paavan Teerth)

Geeta-29

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे :अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : आत्म-आनन्द में निमग्न योगी का वर्णन : य : अन्त:सुख : अन्तराराम : तथा अन्तर्ज्योति : एव य : । स : योगी ब्रह्मनिर्वाणम् ब्रह्मभूत : अधिगच्छति ॥२४॥ अन्तरात्मा में सुखानुभूति कर आत्मा में रमा रहता नित्य जो आत्मा के ज्ञान से प्रकाशित जो वही ब्रह्म के साथ एकात्म हुआ ब्रह्म को प्राप्त हुआ योगी है ॥२४॥ ब्रह्म मे मग्न योगी का अन्तर : पिछले तीन श्लोकों में बाह्य संस्पर्शों से युक्त योगी किस प्रकार प्रतिक्रिया करता है तो अब ऐसे योगी की आन्तरिक स्थित का वर्णन करते हैं । १. ऐसे योगस्थ साधक को प्रकृतिजन्यबाह्य पदार्थों मे सुख नहीं अनुभव होता, प्रत्युत एकमात्र परमात्मा मे ही सुख का अनुभव होता है, इसीलिए उसको “अन्त :सुख “ कहा । २. यह साधक भोगों में नहीं रमता,प्रत्युत केवल परमात्म-तत्व मे ही रमण करता है इसलिए उसे “अन्तराराम :” कहा। ३. सभी ज्ञान और उनका प्रकाशक इन्द्रियाँ और बुद्धि न होकर केवल परमात्मतत्व का ज्ञान है इसीलिए यहाँ “अन्तज्योति :” कहा गया है । जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ज्ञान गुन धामू ॥ तुलसीकृत रामचरितमानस ऐसा साधक “ब्रह्मभूत” अर्थात अपना अहं खोकर तत्वनिष्ठ होकर “ ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त कर लेता है और साधक ब्रह्ममय हो जाता है: ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति ब्रहदारण्यकोपनिषद (४।४।६।) 'Paavan Teerth'

Geeta-28

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे :अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक २३ : काम और क्रोध के वेग को सहन करने वाला ही सुखी : शक्नोति इह एव य : सोढुम् प्राक् शरीरविमोक्षणात् कामक्रोधोद्भवम् वेगम् स : युक्त : स : सुखी नर : ॥२३॥ शरीर रहते जो है समर्थ काम-क्रोध के वेग को सहने में सक्षम । वही जन है योगी वहीं जन है सुखी ॥२३॥ इन्द्रिय-जन्य विषयों के संताप के संदर्भ में काम-क्रोध पर विजय: श्लोक में एक बहुत ही महत्वपूर्ण वाक्यांश है,”प्राक् शरीरविमोक्षणात्” , अर्थात शरीर छूटने से पहले , क्योंकि मृत् शरीर पर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं होता। इस संदर्भ में नारदपरिव्राजकोपनिषद का नारद का पितामह ब्रह्मा से पूछे गए प्रश्न , कि संन्यास का अधिकारी कौन? का उत्तर दृष्टव्य है : “प्राणे गते यथा देह :सुखं दु:खं न विन्दति । तथा चेत्प्राणयुक्तोऽपि स कैवल्याश्रमे वसेत ॥तीसरा उपदेश/२७॥ हमारा शरीर : छिति, जल , पावक , गगन, समीरा । पंच रचित यह अधम सरीरा ॥ होने के कारण व्यष्टि में प्रकृति का अंश है और परमात्म से भिन्न है और क्षेत्र है : “इच्छा द्वेष सुखम् दु:खम् संघात : चेतना धृति : । एतत् क्षेत्रम् समासेन सविकारम् उदाह्रतम् ॥६/ अध्याय १३॥ इस प्रकार इन विकारों से अनिद्विग्न होने वाला ही सच्चा कर्मयोगी है ।

Geeta-27

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक २१ : ब्रह्म- युक्त योगी का बाहरी संसार से व्यवहार : बाह्यस्पर्शेषु असक्तात्मा विन्दति आत्मनि यत् सुखम् । स : ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखम् अक्षयम् अश्नुते ॥२१॥ बाहर के विषयों से रह अनासक्त जो आत्मानन्द में रहते निमग्न । स्थित हो नित ब्रह्मध्यान अक्षय सुख का अनुभव करते ॥२१॥ ब्रह्मानन्द में मग्न योगी : पिछले बीसवें श्लोक में स्थिर बुद्धि और संशय-रहित ब्रह्म-स्थित योगी के संसार के मानसिक और बौद्धिक व्यवहार की चर्चा की गई तो अब इस श्लोक में उसके इन्द्रियजन्य व्यवहार का वर्णन किया गया है ।ऐसा योगी अनासक्त रहकर ब्रह्मसुख का अक्षय सुख प्राप्त कर लेता है और सदा उसी में निमग्न रहता है । 'Paavan Teerth '

Ghazal-24

ग़ज़ल- सियासी सोच में यारो ग़रीबों की क़ज़ा-सी है, इसी से दिख रही हर सिम्त ये गहरी उदासी है। पढ़े-लिक्खे भी करते हैं जहालत की बहुत बातें, ग़रीबों को सताने में मियाँ सबकी रज़ा-सी है। न शिक्षा, नौकरी, सेहत, न खाने की उचित चीज़ें, युवाओं में सहन करने की ताक़त तो धरा-सी है। हटाने के किए वादे सभी नेता, न हट पाई, ग़रीबी तो लगे साहिब कि जैसे बेहया-सी है। न अवसर हो बराबर का तो कैसे अद्ल है मुमकिन? ये मुफ़लिस की तो मुझको ज़िन्दगी लगती सज़ा'सी है। नशे में झूमती जनता अभी तक जाति-धर्मों के, कि जैसे अक़्ल को उसने बता रक्खी धता-सी है। बढ़े चीज़ों की जब कीमत, कहाँ अब शोर मचता है? भुला कर कष्ट जनता ले रही इसमें मज़ा-सी है। कज़ा=मृत्यु, ज़हालत=मूर्खता, रज़ा=सहमति,धरा=पृथ्वी, बेहया= बेशर्म, जो आसानी से नष्ट न हो सके, अद्ल =न्याय (सम्पूर्ण न्याय) 'Maahir'

Ghazal-23

प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- जब उसके रास्ते में हम भवन अपने बनाते हैं, नदी के एक दिन दोनों किनारे बोल जाते हैं। बुरा जब वक़्त आता है, अजब मंज़र ये दिखता है, वो जो मज़बूत लगते हैं सहारे, बोल जाते हैं। बुढ़ापे में ज़रूरत जब अधिक होती है सेवा की, ज़ियादा जो हुआ करते दुलारे, बोल जाते हैं। समझ वाले समझते हैं, ज़रा सा ग़ौर करते ही, ज़ुबाँ गर चुप रहा करती, नज़ारे बोल जाते हैं। बहस में जाति-पंथों के किसी मुद्दे पे जब आते, बहुत जो ख़ास बनते हैं तुम्हारे, बोल जाते हैं। मंज़र=दृष्य 'Maahir'

Ghazal-22

ग़ज़ल- ए.आई.दौर में जज़्बे बचाना सीख लो साहिब, ज़रा इंसानियत से दिल लगाना सीख लो साहिब। ए.आई.= A.I=Artificial Intelligence कड़ी मेहनत से पाया है ये तुमने जो मुक़ाम ऊँचा, अना को भी ज़रा अपनी झुकाना सीख लो साहिब। मुकाम=स्थान, अना=अहंकार दिलाई थी क़सम तुमने न रक्खें राब्ता हम से, मेरे ख़्वाबों से भी तो दूर जाना सीख लो साहिब। राब्ता=सम्बन्ध बुरा गर वक़्त आया तो,तजुर्बा काम आयेगा, ज़रा मिल-बाँट के जीवन चलाना सीख लो साहिब। कभी करते हैं वह भी,जिससे वो इंकार करते हैं, सही अनुमान लहजों से लगाना सीख लो साहिब। तजुर्बा है मेरा ये काम होता है इबादत-सा, किसी रोते हुए जन को हँसाना सीख लो साहिब। 'वही’ का आसमानों से तो अब आना न है मुमकिन, जहां अपने तजारिब से सजाना सीख लो साहिब। वही=आदमी को सही रास्ता दिखाने वाली आसमानी किताब 'Maahir'

Ghazal-21

ग़ज़ल- सोच में जब ज़रा सादगी आ गई, ज़िन्दगी में मेरी, हर ख़ुशी आ गई। काम जनहित के जब भी वो करने लगे, बीच में इक न इक बेबसी आ गई। दर्दो ग़म जब ज़ियादा बढ़े दोस्तो, जां बचाने मेरी दिल्लगी आ गई। रास्ता उसका रोका तरक़्क़ी ने जब, बाढ़ पे शान्त सी वो नदी आ गई। हो चुकी जब तबाही, तो टूटा भरम, फिर समझ दोस्तो, काम की आ गई। कोशिशों ने भी जब हार मानी नहीं तब अँधेरों से भी रोशनी आ गई। 'सच' को 'सच' कह सका जब सलीके से मैं, लोग कहने लगे शायरी आ गई। बन्दगी=प्रार्थना, भरम=भ्रम, आतिशी=आग जैसी 'Maahir'

Geeta-26

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेच्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक १९ : ब्रह्मवेत्ता का वर्णन : इह एव तै : जित : सर्ग : येषाम् साम्ये स्थितम् मन : । निर्दोषम् हि समम् ब्रह्म तस्मात् ब्रह्मणि ते स्थिता : ॥ १९॥ जिनका मन समता में स्थित उन्होंने जीत लिया संसार सभी। क्योंकि सम-निर्दोष ब्रह्म है जैसे वे भी ब्रह्मभाव में स्थित वैसे ॥१९॥ ब्रह्म-वेत्ता कैसा ? सर्वत्र और सदा समभाव में रहने वाला जो “एकमेवाद्वितीयम्”ब्रह्म है वह मैं ही हूँ । जो विषयों का संग त्यागे बिना और इन्द्रियों का दमन किये बिना कामनारहित होकर नि:संगता का भोग करता है,जो सामान्य जन की ही भाँति सब प्रकार के आचरण करता है,परन्तु सांसारिक वस्तुओं का अज्ञानजन्य मोह त्याग देता है। समदृष्टि उस व्यक्ति का विशेष लक्षण होता है ।इसी समता को गीता ने योग कहा है-“समत्वं योग उच्यते” (२/४८) और इसकी प्राप्ति को ही गीता मनुष्य-जन्म की पूर्णता मानती है और ऐसा ही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है । Paavan Teerth.

Geeta-25

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक १८ ज्ञानी कर्मयोगी की दृष्टि : विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे , गवि , हस्तिनि । शुनि च एव श्वपाके च पण्डिता : समदर्शिन : ॥१८॥ विनयशील विद्वान ब्राह्मण में गौ, हाथी, श्वान से लेकर चाण्डाल तक में ज्ञानी सभी में देखता एक ही परमात्म को ॥१८॥ ज्ञानी के बाह्य व्यवहार का विवरण : पिछले श्लोक सत्रह में आए “ज्ञाननिर्धूतकल्मषा: “ अर्थात ज्ञान से जिसके सारे कल्मष नष्ट हो गए हैं ,ऐसा साधक सांसारिक धरातल पर विद्वान और विनयशील ब्राह्मण से लेकर सबसे निम्न श्रेणी का कार्य करने वाले चाण्डाल और पशुओं में गौ, हाथी और कुत्ते तक में परमात्म की दृष्टि से सम भाव रखता है ।इस श्लोक को इसी अध्याय के सातवें श्लोक के विशुद्ध आत्मा और अन्त:करण वाले जितेन्द्रिय कर्मयोगी के “सर्वभूतात्मभूतात्मा का ही स्पष्टीकरण समझना चाहिए । 'Paavan Teerth'

Geeta-24

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक १७ : परमात्म-तत्व को प्राप्त साधक की स्थिति: तद् बुद्धय : तदात्मान : तन्निष्ठा : तत्परायणा : । गच्छन्ति अपुनरावृत्तिम् ज्ञाननिर्धूतकल्मषा : ॥१७॥ ज्ञान से कर नष्ट पाप-समूह को बुद्धि, मन सब कर समाहित ब्रह्म मे होकर परायण प्राप्त होता अपुनरावर्तिनी परमगति को ॥१७॥ ज्ञान के सूर्य के प्रकाश में : साधक विवेक के द्वारा असत का त्याग करने पर स्वत: सत् स्वरूप में स्थित हो जाता है । इस कारण मन से स्वत:- स्वाभाविक परमात्मा का ही चिन्तन होने लगता है और तब वह हर समय परमात्मा में स्वयं की स्वत:-स्वाभाविक स्थिति का अनुभव करता है और अपनी सत्ता परमात्मा की सत्ता में लीन कर देता है । इस प्रकार सत-असत् के विवेक की जागृति होने पर असत् की सर्वथा निवृत्ति हो जाती हैं और वह आवागमन से मुक्त हो जाता है । Paavan Teerth.

Geeta-23

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे :अध्याय ५: कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक १६ : सूर्य के प्रकाश के सदृश ज्ञान , अज्ञान को नाश कर परमात्म-तत्व का साक्षात्कार करवा देता है: ज्ञानेन तु तत् अज्ञानम् येषाम् नाशितम् आत्मन : । तेषाम् आदित्यवत् ज्ञानम् प्रकाशयति तत्परम् ॥१६॥ ज्ञान के आलोक से अज्ञान का नाश है जिन ने किया । ज्ञान साधन सूर्य सम अपने प्रकाशसे प्रगट करता परमात्म को ॥१६॥ अज्ञान का नाश होने पर ज्ञान -सूर्य का प्रकाश और इस प्रकार मैं- मेरापन-ममता का मोह नाश होने पर परमात्म-तत्व का विवेक: पिछले पन्द्रहवें श्लोक के सूत्र, “अज्ञानेन आवृतम् ज्ञानम् “ के अज्ञान का आवरण हटने पर ज्ञान अर्थात विवेक होने पर सूर्य के सदृश प्रकाश में उस परम परमात्म - तत्व की अनुभूति । Paavan Teerth.

Ghazal-20

ग़ज़ल ------------------------ माँग लू बोसा तो इक दम से बिगड़ जाता है प्यार की बात पे भी यार तू लड़ जाता है //१ مانگ لو بوسہ تو اک دم سے بگڑ جاتا ہے پیار کی بات پے بھی یار تو لڑ جاتا ہے //١ इश्क़ की धार को बेहतर है रवाँ रक्खें हम पानी ठहरा रहे तो तय है कि सड़ जाता है //२ عشق کی دھار کو بہتر ہے رواں رکھے ہم پانی ٹھہرا رہے تو طے ہے کہ سڑ جاتا ہے //٢ रिश्ते भी ऐंठने लगते हैं नहीं मिलने से जैसे कपड़ा कई सालों का जकड़ जाता है //३ رشتہ بھی اینٹھنے لگتے ہیں نہیں ملنے سے جیسے کپڑا کئی سالوں کا جکڑ جاتا ہے //٣ हम भी कुछ शह्रे नवादा से कटे हैं ऐसे जैसे मिट्टी से कोई पेड़ उखड़ जाता है //४ ہم بھی کچھ شہر نوادہ سے کٹے ہیں ایسے جیسے مٹی سے کوئی پیڑ اکھڑ جاتا ہے //۴ जबकि रह जाते हैं शह्रों में हज़ारों भूखे खाना लाखों घरों में रोज़ ही सड़ जाता है //५ جبکہ رہ جاتے ہیں شہروں میں ہزاروں بھوکھے کھانا لاکھوں گھروں میں روز ہی سڑ جاتا ہے //۵ यूँ ही मिलता नहीं है काम मुसलसल हमको उसपे हर हफ़्ते में इतवार भी पड़ जाता है //६ یوں ہی ملتا نہیں ہے کام مسلسل ہم کو اسپے ہر ہفتے میں اتوار بھی پڑ جاتا ہے //۶ कितना करता है वफ़ा मुझसे पड़ोसी मेरा हफ़्ते दो हफ़्ते में वो आ के झगड़ जाता है //७ کتنا کرتا ہے وفا مجھ سے پڑوسی میرا ہفتے دو ہفتے میں وہ آ کے جھگڑ جاتا ہے //٧ ऐसी भी औरतें देखी हैं हमेशा जिनसे कुछ ज़ियादा ही नमक खाने में पड़ जाता है //८ ایسی بھی عورتیں دیکھی ہیں ہمیشہ جن سے کچھ زیادہ ہی نمک کھانے میں پڑ جاتا ہے //٨ 'राज़' क्यों रब ने बनाई है तबीअत ऐसी नर्म इतना हूँ आ के कोई भी चढ़ जाता है //९ 'راز' کیوں رب نے بنائی ہے طبیعت ایسی نرم اتنا ہوں، آ کے کوئی بھی چڑھ جاتا ہے //٩ 'Maahir' बोसा- चुम्बन, प्रेम के आवेग में होंठ आदि अंगों को स्पर्श करने या या दबाने की क्रिया रवाँ- प्रवहमान शह्रे नवादा- नवादा शह्र, मेरा आबाई शह्र मुसलसल- लगातार

Geeta-22

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक १५ : स्वरूप ज्ञान के अभाव में जीव मोहित हैं : न आदत्ते कस्यचित् पापम् न च एव सुकृतम् विभु : । अज्ञानेन आवृतम् ज्ञानम् तेन मुह्यन्ति जन्तव : ॥१५॥ न ही किसी के पाप को और न ही सुकृत कर्म को ग्रहण करता विभु कभी । मोहित हुए सब जीव हैं क्योंकि अज्ञान से ढका उनका ज्ञान है ॥१५॥) क्यों परमात्मा किसी जीव का पाप और पुण्य नहीं लेता ? प्रकृति के परवश हुआ जीव अपने स्वरूप को भूल कर स्वयं को कर्मों का कर्ता मान बैठता है और सुखी और दुखी होता है । जबकि परमात्मा सत् चित् और आनन्दमय है और जीव उसका अंश होने से उसका स्वरूप भी वही है : “ईस्वर अंस जीव अविनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी ॥ सो मायाबस भयउ गोसाईं । बँध्यो कीर मरकट की नाईं ॥ जड़ चेतनहिं ग्रंथि परि गई।जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥ चौपाई २-३-४/दोहा ११७ उत्तरकांड - रामचरितमानस अज्ञानेन आवृतम् ज्ञानम् : ऊपर कहे अनुसार अपने को ईश्वर का अंश है यह भूल कर बैठता है कि वह कर्ता है इसलिए परमात्मा उसके कर्मों का भागी नहीं बनता ।यदि मनुष्य सद्भाव से किए अपने सभी कर्म ईश्वर को समर्पित कर देता है तो उसे कर्म नहीं बाँधते। ऐसे अज्ञानी मनुष्यों के लिए भगवान ने ताड़ना करते हुए शब्द प्रयोग किया “जन्तु” अर्थात कीड़े मकोड़े के समान। 'Paavan Teerth'

Geeta-21

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रों : अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक ८ और ९ : तत्त्वज्ञानी का अकर्तापन : न एव किंचित् करोमि इति युक्त : मन्येत तत्त्ववित् । पश्यन्, श्रृण्वन्, स्पृशन्, जिघ्रन्, अश्नन्, गच्छन्, स्वपन्, श्वसन् ॥८॥ प्रलपन्, विसृजन्, गृह्वन्, उन्मिषन्, निमिषन्, अपि । इन्द्रियाणि , इन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते इति धारयन् ॥९॥ तत्त्वज्ञानी स्वयम् को रखकर अलग देखता, सुनता, स्पर्श करता, सूँघता और जीमता पैर से चल कर जाता ॥८॥ या कि सोकर, साँस लेता, बात करता त्यागता मल-मूत्र को , ग्रहण करता हाथ से आँखों को खोलता और बंद करता हुआ भी ऐसा समझता, इन्द्रियां ही इन्द्रियों के लिए करती काम कुछ नहीं करता स्वयं से वह ॥९॥ आइए विचार करें : ऊपर के श्लोक सात में जिस योगयुक्त शुद्ध अन्त:करण मन वश में किए जितेन्द्रिय की चर्चा अपने समान सभी भूत प्राणियों की चर्चा हुई थी वही अपने शरीर के कार्य- कलाप को किस प्रकार देखता है उसकी चर्चा इन दो श्लोकों में हुई है । यहाँ पाँचों ज्ञानेंद्रियों और पाँचों कर्मेन्द्रियों और उनके कार्यों की चर्चा के साथ सोना-अन्त:करण की क्रिया श्वास लेना- प्राण की और आँखों का खोलना और मूँदना- कूर्म नामक उपप्राण की बात हुई है । ये सभी क्रियायें प्रकृति मे हो रही हैं स्वरूप में नहीं । संक्षेप में तुलसी की भाषा में कहें तो : “जगत प्रकाश्य प्रकाशक रामू। मायाधीश ज्ञान गुणधामू ॥ 'Paavan Teerth'

Ghazal-19

प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- सोच में जब ज़रा सादगी आ गई, ज़िन्दगी में मेरी, हर ख़ुशी आ गई। काम जनहित के जब भी वो करने लगे, बीच में इक न इक बेबसी आ गई। दर्दो ग़म जब ज़ियादा बढ़े दोस्तो, जां बचाने मेरी दिल्लगी आ गई। रास्ता उसका रोका तरक़्क़ी ने जब, बाढ़ पे शान्त सी वो नदी आ गई। हो चुकी जब तबाही, तो टूटा भरम, फिर समझ दोस्तो, काम की आ गई। कोशिशों ने भी जब हार मानी नहीं तब अँधेरों से भी रोशनी आ गई। 'सच' को 'सच' कह सका जब सलीके से मैं, लोग कहने लगे शायरी आ गई। बन्दगी=प्रार्थना, भरम=भ्रम, आतिशी=आग जैसी 'Maahir'

Ghazal-18

प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- कठिन वो रास्ते अपनी जगह हैं, रवाँ कुछ क़ाफ़िले अपनी जगह हैंl अँधेरे खुश हैं, सूरज ढल रहा जो, वो जुगनू नाचते अपनी जगह हैं ज़ुबाँ खुलने से पहले लोग देखो, इशारे भाँपते अपनी जगह हैंl करें जमहूरियत की बात लेकिन, अधर उनके सिले अपनी जगह हैं। जमहूरियत=प्रजातंत्र क़फ़स की तीरगी के बाद भी तो, दहकते हौसले अपनी जगह हैं। क़फ़स=क़ैदखाना, तीरगी=अँधेरा बधाई चंद्रयानों की है उनको, ज़मीं के मसअले अपनी जगह हैं। मसअले= प्रकरण 'Maahir'

Ghazal-17

प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- सभी क़ानून लिख डाले उन्होंने आज, काग़ज़ पर, हुआ है देश में क़ानून का अब राज, काग़ज़ पर। ग़रीबों को दिलाने अद्ल सब नेता लगे कब से, किये जाते हैं निर्बल के मगर बस काज काग़ज़ पर। अद्ल=न्याय पहुँच वाला जो ज़ालिम है, मदद करते हैं सब उसकी, बची नारी की है देखो यहाँ बस लाज काग़ज़ पर। कड़े क़दमों के आदेशों से अकड़े हैं क़दम उनके, गिरा करती है अपराधी पे लेकिन गाज काग़ज़ पर। जो ज़िम्मेदार बनते थे, ख़यानत कर उन्होंने ही, हड़प ली मुफ़लिसों की भूमि देखो आज काग़ज़ पर। ख़ुशी बच्चे की लिक्खोगे भला तुम किस तरह "शेखर", बनाया जिसने पहली बार सुन्दर ताज, काग़ज़ पर। 'Maahir'

Ghazal-16

प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- जब उसके रास्ते में हम भवन अपने बनाते हैं, नदी के एक दिन दोनों किनारे बोल जाते हैं। बुरा जब वक़्त आता है, अजब मंज़र ये दिखता है, वो जो मज़बूत लगते हैं सहारे, बोल जाते हैं। बुढ़ापे में ज़रूरत जब अधिक होती है सेवा की, ज़ियादा जो हुआ करते दुलारे, बोल जाते हैं। समझ वाले समझते हैं, ज़रा सा ग़ौर करते ही, ज़ुबाँ गर चुप रहा करती, नज़ारे बोल जाते हैं। बहस में जाति-पंथों के किसी मुद्दे पे जब आते, बहुत जो ख़ास बनते हैं तुम्हारे, बोल जाते हैं। मंज़र=दृष्य 'Maahir'

Geeta-20

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे - रणक्षेत्रे : अध्याय ५: कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक ७ : कर्मयोगी का सभी प्राणियों के साथ तादात्म्य स्थापन : योगयुक्त : विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय : । सर्नभूतात्मभूतात्मा कुर्वन् अपि न लिप्यते ॥७॥ अन्त:करण से शुद्ध , मन को वश किए इन्द्रियजित कर्मयोगी । निज आत्म को ही देखता सब प्राणियों में सब कर्म करते भी, उनमें लिप्त होता है नहीं ॥७॥ योगयुक्त कर्मयोगी के लक्षण और व्यवहार: योगयुक्त कर्मयोगी का अन्त: करण शुद्ध,मन और इन्द्रियों को जीते हुए अपनी आत्मा को सब प्राणियों में जानते हुए, सभी कर्म करते हुए भी राग और द्वेष से मुक्त हुआ सभी कर्मों को करता हुआ भी उनमें लिप्त नहीं होता अथवा वह कर्मबन्धन से मुक्त हुआ रहता है । 'Paavan Teerth '

Geeta-19

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे- रणक्षेत्रे :अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक ४ : सांख्य (संन्यास) और कर्मयोग दोनों का लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति: सांख्ययोगौ पृथक् बाला : प्रवदन्ति न पण्डिता : । एकम् अपि आस्थित: सम्यक उभयो : विन्दते फलम् ॥४॥ नासमझ ही सांख्य और योग को पृथक कर हैं जानते न कि ज्ञानी हैं कभी । एक में ही भली विधि स्थित हुआ नर परमात्म-फल पाता सुनिश्चित ॥४॥ युद्ध के परिप्रेक्ष्य में समझिए : सारे विकल्पों के असफल होने पर धर्मराज युधिष्ठिर के नेतृत्व में युद्धक्षेत्र में खड़े होकर अर्जुन का परिस्थिति से निराश होकर शस्त्र छोड़ कर शास्त्र का आधार लेकर पलायन करने और उसे उचित ठहराते देख भगवान श्री कृष्ण ने दूसरे अध्याय में सांख्य की चर्चा कर अर्जुन को स्थितप्रज्ञ के रूप के दर्शन कराए । इसके बाद परवर्ती अध्यायों में विस्तार से कर्मयोग के विभिन्न पहलुओं पर अपना वक्तव्य प्रारम्भ किया । इस पर विचार करते हुए विनोबा जी के अनुसार: “कर्मयोग मार्ग में भी है और मुकाम पर भी है ।परन्तु संन्यास सिर्फ़ मुक़ाम पर ही है, मार्ग में नहीं । यदि यही बात शास्त्र की भाषा में कहनी हो, तो कर्मयोग साधन भी है और निष्ठा भी , परन्तु संन्यास सिर्फ़ निष्ठा है, निष्ठा का अर्थ है, अंतिम अवस्था ।” 'Paavan Teerth'

Geeta-18

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक २ : श्री भगवान उवाच : संन्यास : कर्मयोग : च नि :श्रेयसकरौ , उभौ । तयो : तु कर्मसंन्यासात् कर्मयोग : विशिष्यते ॥२॥ कर्म से संन्यास और कर्मयोग दोनों ही मोक्षदायक हैं तुम सुनो पर दोनों में कर्म को त्यागने से कर्मयोग साधने में सुलभ होने से अति श्रेष्ठ है मैंने कहा ॥२॥ विचारणीय : प्रथम श्लोक में अर्जुन अपने प्रश्न में संन्यास और कर्मयोग में “श्रेय” पूछ रहा है तो श्री भगवान उत्तर मे “नि:श्रेयसकरौ” कह रहे हैं ।मेरे विचार में अर्जुन सांसारिक धरातल पर है जबकि श्री भगवान आध्यात्मिक स्तर पर सांसारिक राग -द्वेष से ऊपर उठकर उसको संसार के पदार्थों को संसार की सेवा में लगा कर उसे मोक्ष का मार्ग दिखा रहे हैं । 'Paavan Teerth'

Geeta-17

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रों : अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक ८ और ९ : तत्त्वज्ञानी का अकर्तापन : न एव किंचित् करोमि इति युक्त : मन्येत तत्त्ववित् । पश्यन्, श्रृण्वन्, स्पृशन्, जिघ्रन्, अश्नन्, गच्छन्, स्वपन्, श्वसन् ॥८॥ प्रलपन्, विसृजन्, गृह्वन्, उन्मिषन्, निमिषन्, अपि । इन्द्रियाणि , इन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते इति धारयन् ॥९॥ तत्त्वज्ञानी स्वयम् को रखकर अलग देखता, सुनता, स्पर्श करता, सूँघता और जीमता पैर से चल कर जाता ॥८॥ या कि सोकर, साँस लेता, बात करता त्यागता मल-मूत्र को , ग्रहण करता हाथ से आँखों को खोलता और बंद करता हुआ भी ऐसा समझता, इन्द्रियां ही इन्द्रियों के लिए करती काम कुछ नहीं करता स्वयं से वह ॥९॥ आइए विचार करें : ऊपर के श्लोक सात में जिस योगयुक्त शुद्ध अन्त:करण मन वश में किए जितेन्द्रिय की चर्चा अपने समान सभी भूत प्राणियों की चर्चा हुई थी वही अपने शरीर के कार्य- कलाप को किस प्रकार देखता है उसकी चर्चा इन दो श्लोकों में हुई है । यहाँ पाँचों ज्ञानेंद्रियों और पाँचों कर्मेन्द्रियों और उनके कार्यों की चर्चा के साथ सोना-अन्त:करण की क्रिया श्वास लेना- प्राण की और आँखों का खोलना और मूँदना- कूर्म नामक उपप्राण की बात हुई है । ये सभी क्रियायें प्रकृति मे हो रही हैं स्वरूप में नहीं । संक्षेप में तुलसी की भाषा में कहें तो : “जगत प्रकाश्य प्रकाशक रामू। मायाधीश ज्ञान गुणधामू ॥ 'Paavan Teerth'

Geeta-16

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे :अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : श्लोक १ : प्रस्तावना: महाभारत के मध्य भीष्मपर्व के अन्तर्गत कही गई श्रीमद्भगवद्गीता का उद्देश्य अर्जुन को माध्यम बनाकर समस्त जीवों के मोह का निवारण कर उनको निष्काम कर्मयोग के मार्ग पर स्वधर्मानुसार प्रवृत्त करना । वक़्ता को श्रोता की मन:स्थित समझ कर उसको श्रेयस्कर मार्ग पर लगाना होता है । यहाँ अर्जुन अपने स्वजनों, पूज्य गुरुजनों को देखकर युद्ध के मैदान से भागने को उद्यत हो रहा था तो श्री कृष्ण जैसे सखा ने पहले ज्ञान का भंडार खोलकर उसे सांख्य और स्थित-प्रज्ञ के रूप से अवगत कराया वहीं शनै: शनै: उसे कर्मयोग के विभिन्न आयामों से उसे स्वधर्म पर चलने के लिए प्रेरित किया लेकिन अर्जुन फिर भी अपनी मोहग्रस्त स्थिति से पूरी तरह से बाहर नहीं आ पा रहा । पिछले चौथे अध्याय के तेंतीसवें से सैंतीसवें श्लोक तक कर्म तथा पदार्थों का स्वरूप से त्यागकर तत्वदर्शीज्ञानी के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करने की बात सुनी तो उसे अपनी मोह-आवेष्टित क्रिया ही ठीक जँचने लगी और उसी अध्याय के अंत में कही बात कि कर्मयोगी उस तत्व को अपने आप ही प्राप्त कर लेता है को उसने किनारे कर श्री भगवान की अन्त में बयालीसव्ं श्लोक की कही बात “आतिष्ठ उत्तिष्ठ” और युद्ध कर , को मानो भूल ही गया और अपना हठपूर्ण मत प्रश्न के रूप में उलाहना देते हुए प्रगट कर दिया । अर्जुन उवाच : संन्यासम् कर्मणाम् कृष्ण पुन: योगम् च शंससि । यत् श्रेय : एतयो : एकम् तत् मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥१॥ अर्जुन उवाच : हे कृष्ण ! करते प्रशंसा आप कर्म के संन्यास और फिर हैं योग की । कल्याणकर दोनों में जो हो एक सुनिश्चित कर उसको कहें ॥१॥ 'Paavan Teerth'

Ghazal-16

प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- कठिन वो रास्ते अपनी जगह हैं, रवाँ कुछ क़ाफ़िले अपनी जगह हैंl अँधेरे खुश हैं, सूरज ढल रहा जो, वो जुगनू नाचते अपनी जगह हैं ज़ुबाँ खुलने से पहले लोग देखो, इशारे भाँपते अपनी जगह हैंl करें जमहूरियत की बात लेकिन, अधर उनके सिले अपनी जगह हैं। जमहूरियत=प्रजातंत्र क़फ़स की तीरगी के बाद भी तो, दहकते हौसले अपनी जगह हैं। क़फ़स=क़ैदखाना, तीरगी=अँधेरा बधाई चंद्रयानों की है उनको, ज़मीं के मसअले अपनी जगह हैं। मसअले= प्रकरण 'Maahir'

Ghazal-15

हुआ गुम-सुम है मंज़र, देखिए तो, मुझे तूफ़ाँ का है डर, देखिए तो। मंज़र=दृष्य, मसाइल आमजन के घूरते हैं, हुए हैं लोग पत्थर देखिए तो। मसाइल = मसअला का बहुवचन, वबा में ढूँढते थे, धूर्तता से, मुनाफ़े का वो अवसर देखिए तो। वबा = पेन्डेमिक, ग़लत हुक्मों पे नेता से तो अफ़सर, कहें बस आज सर-सर देखिए तो। अमीरों के लिए मुफ़लिस मरे फिर, यही होता है अक्सर देखिए तो। मुफ़लिस =ग़रीब, ग़रीबों के लिए हर सू है ज़िल्लत, न चाहें देखना, पर देखिए तो। हर सू= प्रत्येक दिशा में, ज़िल्लत= अपमान, प्रणयरत क्रौंच के इक तेज़-घातक, लगा फिर आज शर है देखिए तो। क्रौंच=एक पक्षी जिस को तीर लगने से प्रथम काव्य के जन्म की जनश्रुति है। शर=तीर। - Maahir

Geeta-16

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे - रणक्षेत्रे : अध्याय ५: कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक ७ : कर्मयोगी का सभी प्राणियों के साथ तादात्म्य स्थापन : योगयुक्त : विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय : । सर्नभूतात्मभूतात्मा कुर्वन् अपि न लिप्यते ॥७॥ अन्त:करण से शुद्ध , मन को वश किए इन्द्रियजित कर्मयोगी । निज आत्म को ही देखता सब प्राणियों में सब कर्म करते भी, उनमें लिप्त होता है नहीं ॥७॥ योगयुक्त कर्मयोगी के लक्षण और व्यवहार: योगयुक्त कर्मयोगी का अन्त: करण शुद्ध,मन और इन्द्रियों को जीते हुए अपनी आत्मा को सब प्राणियों में जानते हुए, सभी कर्म करते हुए भी राग और द्वेष से मुक्त हुआ सभी कर्मों को करता हुआ भी उनमें लिप्त नहीं होता अथवा वह कर्मबन्धन से मुक्त हुआ रहता है । 'Paavan Teerth '

Ghazal-14

ग़ज़ल- बेवजह, आज तक कुछ हुआ ही नहीं, इससे आसां कोई फ़लसफ़ा ही नहीं। फ़लसफ़ा=फ़िलासफ़ी, दर्शन माँगता है यह बैसाखियाँ उम्र भर, झूठ पैरों पे ख़ुद के चला ही नहीं। चाहता हूँ, कि सबको, मिले चैन-सुख, चाह में है मेरी, बस जज़ा ही नहीं। जज़ा=फल, परिणाम कितने किरदार मैं जी चुका आजतक, दिल है प्यासा अभी तक भरा ही नहीं। किरदार=चरित्र उस लड़ाके का तो हश्र सोचो ज़रा, दुश्मनों का जिसे है पता ही नहीं। हश्र=परिणाम छोड़ देता है कोशिश सँवरने की जो, वो बशर दोस्तो फिर बचा ही नहीं। बशर=व्यक्ति ज़ुल्म की वो हदें तोड़ते ही रहे हद है! अहसास तुम को हुआ ही नहीं। क्या वजह है, वो जिससे, यह दुनिया बनी, उसका अब तक मिला है पता ही नहीं। पंथ की ओट में बस ग़ुलामी मिली, था नशे में, वो यह जानता ही नहीं। 'Maahir'

Rasleela Nathdwara Style | Twin Eternals - Matter & Energy

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