प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- सियासत का बाज़ार कितना हसीं है, ये ताक़त का आधार कितना हसीं है। उसूलों की ख़ातिर अलग राह पकड़ी, वो रूठा हुआ यार कितना हसीं है। हमें क्या पड़ी जो उसूलों की सोचें, शरीफ़ों का इंकार कितना हसीं है। करी कोशिशें और अंडे से निकली, ये तितली का इजहार कितना हसीं है। गुज़ारिश करे पसलियों से जो चाकू, दबंगों का इसरार कितना हसीं है। सभी कुछ है इसमें,वफ़ा-बेवफ़ाई, हक़ीक़त का संसार कितना हसीं है। मिले और बन के हर इक शख़्स अब तो, नुमाइश का बाज़ार कितना हसीं है। हवा है रजाई,ज़मीं बिस्तरा है, ज़माना ये सरकार कितना हसीं है। 'Maahir'(collected by)