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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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7:07 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- खरे सिक्के सहमते जा रहे हैं, जो खोटे थे,वो चलते जा रहे हैं। हमारी आर्थिक हालत जो बदली, सभी रिश्ते बदलते जा रहे हैं। जहाँ मैं धूल उड़ती देखता हूँ, वहीं कुछ लोग बनते जा रहे हैं। निखरता आ रहा है रूप उनका, तो खर-पतवार जलते जा रहे हैं। हुआ जो इश्क़ तो हमने ये जाना, कि दुनिया को समझते जा रहे हैं। समझ वाले नहीं बर्दाश्त उनको, तुम्हें हुशियार करते जा रहे हैं। किसी भी बात पे सोचा,तो पाया, नए पहलू निकलते जा रहे हैं। 'Maahir'(cpollection)
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