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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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7:21 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- ज़माने में अक्सर यही तो दिखा है, किसी को बनाने में कोई मिटा है। रुई-तेल को श्रेेय देता न कोई, सभी कहते देखो,दिया जल रहा है। समझना न चाहे,वो समझेगा कैसे ? समझ का इरादे से ही सिलसिला है। बढ़ी भुखमरी,जिंस मँहगी हुईं सब, मगर वोट का कुछ अलग मुद्दआ है। बदल के अमीरों की फ़ितरत दिखाओ, हर इक शय बदलती है,मैंने सुना है। जो सुख - दुःख के गहरे हुए हैं तजारिब, उन्हें ही तो हमने ग़ज़ल में कहा है। लगी चोट दिल पे,तो तड़पा बदन कुछ, मगर कुछ फरिश्तों को इस पर गिला है। 'Maahir'
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