एक ग़ज़ल- भला इंसांनियत का चाहती हो, ज़ुबां पे अब से, बस वो शायरी हो। सुने जो भी, लगे उसको कि जैसे, ग़ज़ल में बात उसकी ही कही हो। ख़ुदा से बस मेरी ये इल्तिजा है, न मुश्किल में किसी की ज़िन्दगी हो। इल्तिजा=प्रार्थना, निवेदन, मेरी ख़्वाहिश यही है दोस्तो बस, करूँ वो काम जिससे बन्दगी हो। हुआ है इश्क़ जब से, बस ये चाहा, जुदा कोई न अपनों से कभी हो। सियासत झेल के मैंने क़सम ली, ग़ज़ल अब जो लिखूँ वो आग सी हो। सुनेगा ग़ौर से तुमको ज़माना, तुम्हारी बात में कुछ बात भी हो। 'Maahir'