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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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7:06 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीराम के बनवास काल के संस्मरण 14 वर्ष के वनवास काल में राम कहां-कहां रहे? प्रभु श्रीराम ने १४ वर्षों के वनवास काल में कई ऋषि-मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की, तपस्या की और भारत के आदिवासी, वनवासी और सभी तरह के भारतीय समाज को संगठित कर उन्हें धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। संपूर्ण भारत को उन्होंने एक ही विचारधारा के सूत्र में बांधा, लेकिन इस कालखंड में उनके साथ कुछ ऐसा भी घटित हुआ जिसने उनके जीवन को बहुत प्रभावित किया और बदल कर रख दिया। रामायण में वर्णित और अनेक शोधकर्ताओं के अनुसार, भगवान राम ने वनवास के लिए अपनी यात्रा अयोध्या से प्रारंभ करते हुए, पहले रामेश्वरम् तत्पश्चात् श्रीलंका में समाप्त की थी। इस समयावधि में उनके साथ जहां भी जो घटित हुआ उनमें से २०० से अधिक घटनास्थलों की पहचान की गई है। लब्धप्रतिष्ठ इतिहासकार, पुरातत्वशास्त्री और अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे २०० से भी अधिक स्थानों को चिन्हित किया है, जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहां श्रीराम और सीता रुके या ठहरे थे। वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय-काल की परख वैज्ञानिक तरीकों से की गयी है। आईए, उनमें से कुछ प्रमुख स्थानों के बारे में जानते हैं...... पहला पड़ाव : केवट प्रसंग वाल्मीकि रामायण और रामायण पर शोधकर्ताओं के अनुसार, भगवान श्रीराम ने सबसे पहले तमसा नदी पार किया जो अयोध्या से २० किमी दूर है। इसके बाद उन्होंने गोमती नदी पार की और प्रयागराज (इलाहाबाद) से २०-२२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित "श्रृंगवेरपुर" पहुंचे, जो उनके मित्र निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार कराने के लिए कहा था। श्रृंगवेरपुर : प्रयागराज से २२ मील (लगभग ३५.२ किमी) उत्तर-पश्चिम की ओर स्थित 'सिंगरौर' नामक स्थान ही प्राचीन समय में श्रृंगवेरपुर नाम से जाना जाता था। रामायण में इस नगर का उल्लेख श्रीराम के मित्र निषाद राज गुह के राज्य के रूप में आया है। यह नगर गंगा घाटी के तट पर स्थित था। महाभारत में इसे 'तीर्थस्थल' कहा गया है। कुरई : इलाहाबाद जिले में ही कुरई नामक एक स्थान है, जो सिंगरौर के निकट गंगा नदी के तट पर स्थित है। गंगा के इस किनारे सिंगरौर और उस किनारे कुरई है। सिंगरौर घाट से गंगा पार करने के पश्चात श्रीराम इसी कुरई स्थान पर उतरे थे। इस ग्राम में एक छोटा-सा मंदिर है, जो स्थानीय लोकश्रुति के अनुसार उसी स्थान पर है, जहां गंगा को पार करने के पश्चात राम, लक्ष्मण और सीताजी ने कुछ देर विश्राम किया था। दूसरा पड़ाव : प्रयागराज कुरई से आगे चलकर श्रीराम, माता सीता और अपने अनुज लक्ष्मण सहित प्रयाग पहुंचे थे। यहां गंगा-जमुना का संगम स्थल है। हिन्दुओं का यह बड़ा तीर्थस्थान है। चित्रकूट : प्रभु श्रीराम ने संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और चित्रकूट पहुंचे। यहां स्थित स्मारकों में वाल्मीकि आश्रम, मांडव्य आश्रम, भरतकूप इत्यादि हैं। चित्रकूट वही स्थान है, जहां, पिता महाराज दशरथ के स्वर्गवास के बाद, श्रीराम को लौटा कर वापस अयोध्या लेजाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचे थे। लेकिन श्रीराम की अस्वीकृति के पश्चात निराश भरत को यहां से राम की चरण पादुका लेकर ही लौटना पड़ा। श्रीराम की चरण पादुका को ही सिंहासन पर रखकर राज-काज करते रहे। तीसरा पड़ाव : अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट के पास ही सतना (मध्यप्रदेश) में अत्रि ऋषि का आश्रम था। महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। वहां श्रीराम ने कुछ समय व्यतीत किया था। अत्रि ऋषि ऋग्वेद के पंचम मंडल के द्रष्टा हैं। अत्रि ऋषि की पत्नी अनुसूइया, दक्ष प्रजापति की चौबीस कन्याओं में से एक थी। अत्रि पत्नी अनुसूइया के तपोबल से ही भगीरथी गंगा की एक पवित्र धारा चित्रकूट में प्रकट हुई और 'मंदाकिनी' नाम से प्रसिद्ध हुई। त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु व महेश) ने एकबार माता अनसूइया के सतीत्व की परीक्षा लेनी चाही थी, लेकिन तीनों को उन्होंने अपने तपोबल से बालक बना दिया था। तब त्रिदेवियों की प्रार्थना के बाद ही तीनों देवता बाल रूप से मुक्त हो पाए थे। फिर तीनों देवताओं के वरदान से उन्हें एक पुत्र पुत्र की प्राप्ति हुई जिनका नाम "दत्तात्रेय" जो महायोगी थे। अत्रि ऋषि के दूसरे पुत्र अत्यंत क्रोधी 'दुर्वासा' ऋषि को कौन नहीं जानता ? अत्रि के आश्रम के समीपवर्ती क्षेत्र में राक्षसों के समूह सक्रिय थे जिनके आतंक से अत्रि, उनके भक्तगण व माता अनुसूइया भयभीत रहते थे। भगवान श्रीराम ने उन राक्षसों का वध करके चित्रकूट क्षेत्र को मुक्त किया। वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकांड में और गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में इसका वर्णन मिलता है। प्रातःकाल जब राम आश्रम से विदा होने लगे तो अत्रि ऋषि उन्हें विदा करते हुए बोले, 'हे राघव! इन वनों में भयंकर राक्षस तथा सर्प निवास करते हैं, जो मनुष्यों को नाना प्रकार के कष्ट देते हैं। इनके कारण अनेक तपस्वियों को असमय ही काल का ग्रास बनना पड़ा है। मैं चाहता हूं, तुम इनका विनाश करके तपस्वियों की रक्षा करो।' राम ने महर्षि की आज्ञा को शिरोधार्य कर उपद्रवी राक्षसों तथा मनुष्यों को ग्रास बना उनका प्राणांत करने वाले भयानक सर्पों को नष्ट करने का वचन देकर सीता तथा लक्ष्मण के साथ आगे की यात्रा के लिए प्रस्थान किया। चित्रकूट की मंदाकिनी, गुप्त गोदावरी नदियों, छोटी पहाड़ियों, कंदराओं आदि से निकलकर भगवान राम दंडकारण्य के सघन वन प्रदेश में पहुंच गये। चौथा पड़ाव : दंडकारण्य चित्रकूट में अत्रि ऋषि के आश्रम में कुछ दिन रुकने के बाद, श्रीराम ने सघन जंगलों से घिरे क्षेत्र में प्रवेश किया और यहीं अपना आश्रय स्थल बनाया। वास्तव में श्रीराम का वनवास काल यही था। अत्रि-आश्रम क्षेत्र से निकलते ही 'दंडकारण्य' आरंभ हो जाता है। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के अधिकांश भाग शामिल हैं। वास्तव में, उड़ीसा की महानदी से गोदावरी तक दंडकारण्य का क्षेत्र फैला हुआ था। दंडक राक्षस के आतंक से प्रभावित होने के कारण इस क्षेत्र का नाम दंडकारण्य पड़ा। छत्तीसगढ़ के इस क्षेत्र के कुछ हिस्सों पर राम के नाना का और कुछ पर रावण के सहयोगी बाणासुर का राज्य था। उसका इन्द्रावती, महानदी और पूर्व समुद्र तट, गोइंदारी (गोदावरी) तट तक तथा अलीपुर, पारंदुली, किरंदुली, राजमहेन्द्री, कोयापुर, कोयानार, छिन्दक कोया तक राज्य था। वर्तमान बस्तर की 'बारसूर' नामक समृद्ध नगर की नींव बाणासुर ने डाली, जो इन्द्रावती नदी के तट पर था। यहीं पर उसने ग्राम देवी कोयतर मां की बेटी माता माय (खेरमाय) की स्थापना की। बाणासुर द्वारा स्थापित देवी दांत तोना (दंतेवाड़िन) है। यह क्षेत्र आजकल दंतेवाड़ा के नाम से जाना जाता है। यहां वर्तमान में गोंड जाति निवास करती है तथा समूचा दंडकारण्य अब नक्सलवाद की चपेट में है। यहां के नदियों, पहाड़ों, सरोवरों एवं गुफाओं में राम के रहने के सबूतों की भरमार है। यहीं पर राम ने अपने वनवास के लगभग १० वर्ष से भी अधिक समय व्यतीत किया था। 'अत्रि-आश्रम' से निकल कर भगवान श्रीराम मध्यप्रदेश के सतना पहुंचे, जहां 'रामवन' हैं। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ क्षेत्रों में नर्मदा व महानदी नदियों के किनारे उन्होंने कई ऋषि आश्रमों का भ्रमण किया। दंडकारण्य क्षेत्र तथा सतना के आगे वे विराध, सरभंग एवं सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रमों में गए। बाद में सुतीक्ष्ण आश्रम वापस आए। पन्ना, रायपुर, बस्तर और जगदलपुर में कई स्मारक, उदाहरणत: मांडव्य आश्रम, श्रृंगी आश्रम, राम-लक्ष्मण मंदिर आदि विद्यमान हैं। राम वहां से आधुनिक जबलपुर, शहडोल (अमरकंटक) गए होने की संभावना है। शहडोल से पूर्वोत्तर की ओर सरगुजा क्षेत्र है। यहां एक पर्वत का नाम 'रामगढ़' है। ३० फीट की ऊंचाई से एक झरना जिस कुंड में गिरता है, उसे 'सीता कुंड' कहा जाता है। यहां वशिष्ठ गुफा है। दो गुफाओं के नाम 'लक्ष्मण बोंगरा' और 'सीता बोंगरा' हैं। शहडोल से दक्षिण-पूर्व की ओर बिलासपुर के आसपास छत्तीसगढ़ है। वर्तमान में लगभग ९२,३०० वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस इलाके के पश्चिम में अबूझमाड़ पहाड़ियां तथा पूर्व में इसकी सीमा पर पूर्वी घाट शामिल हैं। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के भू-भाग शामिल हैं। इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण तक करीब ३२० किमी तथा पूर्व से पश्चिम तक लगभग ४८० किलोमीटर है। आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम इसी दंडकारण्य का ही भू-भाग है। गोदावरी नदी के तट पर बसा भद्राचलम शहर सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर भी व्यतीत किये थे। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है। दंडकारण्य क्षेत्र की विस्तृत चर्चा पुराणों में मिलती है। इस क्षेत्र की उत्पत्ति कथा महर्षि अगस्त्य मुनि से जुड़ी हुई है। यहीं पर उनका महाराष्ट्र के नासिक के अतिरिक्त एक अन्य आश्रम भी था। डॉ. रमानाथ त्रिपाठी ने अपने बहुचर्चित उपन्यास 'रामगाथा' में रामायणकालीन दंडकारण्य का विस्तृत उल्लेख किया है। पांचवां पड़ाव...पंचवटी 'पंचानां वटानां समाहार इति पंचवटी'। दंडकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद भगवान श्रीराम कई नदियों, पर्वतों और गहन वनों से गुजरने केे पश्चात नासिक में अगस्त्य मुनि के आश्रम पहुंचे। मुनि का आश्रम नासिक के पंचवटी क्षेत्र में था। त्रेतायुग में लक्ष्मण व सीता सहित श्रीरामजी ने वनवास का कुछ समय यहां भी व्यतीत किया था। उस काल में पंचवटी जनस्थान या दंडकवन के अंतर्गत आता था। पंचवटी या नासिक से गोदावरी का उद्गम स्थान त्र्यंम्बकेश्वर लगभग २० मील (लगभग ३२ किमी) दूर है। वर्तमान में पंचवटी महाराष्ट्र के नासिक में गोदावरी नदी के किनारे स्थित विख्यात धार्मिक तीर्थस्थान है। अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को अग्निशाला में बनाए गए शस्त्र भेंट किए। नासिक के पंचवटी में श्रीराम रहे और गोदावरी के तट पर स्नान-ध्यान किया। नासिक में गोदावरी के तट पर पांच वट वृक्षों का स्थान पंचवटी कहा जाता है। ये पांच वृक्ष थे - पीपल, बरगद, आंवला, बेल तथा अशोक वट। यहीं पर सीता माता की गुफा के पास पांच प्राचीन वृक्ष हैं जिन्हें पंचवट के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि इन वृक्षों को राम-सीमा और लक्ष्मण ने अपने हाथों से लगाया था। यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी। राम-लक्ष्मण ने खर व दूषण के साथ युद्ध किया था। । नासिक क्षेत्र स्मारकों से भरा पड़ा है, जैसे कि सीता सरोवर, राम कुंड, त्र्यम्बकेश्वर आदि। यहां श्रीराम का बनाया हुआ एक मंदिर खंडहर रूप में विद्यमान है। मरीच का वध पंचवटी के निकट ही मृगव्याधेश्वर में हुआ था। यहां पर मारीच के वध स्थल का स्मारक भी अस्तित्व में है। गिद्धराज जटायु से श्रीराम की मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड में पंचवटी का मनोहर वर्णन मिलता है। छठा पड़ाव : सर्वतीर्थ नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा की नाक काटने के विवाद में, श्रीराम द्वारा खर व दूषण के वध के बाद ही, मारीच के सहयोग से रावण ने सीता का अपहरण किया और जटायु का भी वध किया।जटायु का स्मारक नासिक से ५६ किमी दूर ताकेड गांव में 'सर्वतीर्थ' नामक स्थान पर आज भी सुरक्षित है। जटायु की मृत्यु "सर्वतीर्थ" नाम के स्थान पर हुई थी जो नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड गांव में मौजूद है। इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया, क्योंकि यहीं पर मरणासन्न जटायु ने सीता माता के बारे में बताया। रामजी ने यहां जटायु का अंतिम संस्कार करके पिता और जटायु का श्राद्ध-तर्पण किया था। इसी तीर्थ पर लक्ष्मण रेखा थी। पर्णशाला : पर्णशाला आंध्रप्रदेश में खम्माम जिले के भद्राचलम में स्थित है। रामालय से लगभग १ घंटे की दूरी पर स्थित पर्णशाला को 'पनशाला' या 'पनसाला' भी कहते हैं। हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से यह एक है। पर्णशाला गोदावरी नदी के तट पर स्थित है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहां से सीताजी का अपहरण हुआ था। हालांकि कुछ मानते हैं कि इस स्थान पर रावण ने अपना विमान उतारा था। इस स्थान से ही रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बिठाया था अर्थात् सीताजी ने धरती यहां छोड़ी थी। इसी से अपहरण का वास्तविक स्थल यही माना जाता है। यहां पर राम-सीता का प्राचीन मंदिर भी है। सातवां पड़ाव : "सर्वतीर्थ" जहां रावण द्वारा जटायु का वध हुआ था, वह स्थान सीता की खोज का प्रथम स्थान था। उसके बाद सीता की खोज करते हुए श्रीराम-लक्ष्मण तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंच गए। तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेकों स्थलों पर वे सीता की खोज में गए। आठवां पड़ाव : शबरी आश्रम तुंगभद्रा और कावेरी नदी को पार कर राम और लक्ष्मण सीता की खोज में आगे बढ़ने लगे।जटायु और कबंध से मिलने के पश्चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे। रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है। शबरी जाति से भीलनी थीं, उसका नाम श्रमणा था। पम्पा नदी केरल राज्य की तीसरी सबसे बड़ी नदी है। इसे 'पम्बा' नाम से भी जाना जाता है। 'पम्पा' तुंगभद्रा नदी का पुराना नाम है। श्रावणकौर रजवाड़े की सबसे लंबी नदी है। इसी नदी के किनारे पर हम्पी बसा हुआ है। यह स्थान बेर के वृक्षों के लिए आज भी प्रसिद्ध है। पौराणिक ग्रंथ 'रामायण' में भी हम्पी का उल्लेख वानर राज्य किष्किंधा की राजधानी के तौर पर किया गया है। केरल का प्रसिद्ध 'सबरिमलय मंदिर' तीर्थ इसी नदी के तट पर स्थित है। नौवां पड़ाव : ऋष्यमूक पर्वत मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़ चले। ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। इसी पर्वत पर श्रीराम की भेंट हनुमान से हुई थी। तत्पश्चात्, हनुमान ने राम और सुग्रीव की भेंट करवाई, जो एक अटूट मित्रता बन गई। जब महाबली बाली अपने भाई सुग्रीव को मारकर किष्किंधा से निष्कासित कर दिया तो वह ऋष्यमूक पर्वत पर ही छिपकर रहने लगा था। ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के जिला बेल्लारी के हम्पी में स्थित है। विरुपाक्ष मंदिर के पास से ऋष्यमूक पर्वत तक के लिए मार्ग जाता है। यहां तुंगभद्रा नदी (पम्पा) धनुष के आकार में बहती है। तुंगभद्रा नदी में पौराणिक चक्रतीर्थ माना गया है। पास ही पहाड़ी के नीचे श्रीराम मंदिर है। पास की पहाड़ी को 'मतंग पर्वत' माना जाता है। इसी पर्वत पर मतंग ऋषि का आश्रम था। दसवां पड़ाव : कोडीकरई हनुमान और सुग्रीव से सेना को संगठित कर श्रीराम लंका की ओर चल पड़े। मलय पर्वत, चंदन वन, अनेक नदियों, झरनों तथा वन-वाटिकाओं को पार करके राम और उनकी सेना समुद्र तट पहुंच गयी। श्रीराम ने पहले अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित किया। तमिलनाडु की एक लंबी तटरेखा है, जो लगभग १,००० किमी तक विस्तारित है। कोडीकरई समुद्र तट वेलांकनी के दक्षिण में स्थित है, जो पूर्व में बंगाल की खाड़ी और दक्षिण में पाल्क स्ट्रेट से घिरा हुआ है। लेकिन राम की सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उपयुक्त भी नहीं है। अतः,श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम की ओर प्रस्थान किया। ग्यारहवां पड़ाव : रामेश्वरम रामेश्वरम समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और धूप-स्नान के लिए आदर्श है। रामेश्वरम प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केंद्र है। संस्कृत महाकाव्य रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पूर्व यहां भगवान शिव की पूजा की थी। रामेश्वरम का शिव ज्योतिर्लिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग है। ारहवां पड़ाव : धनुषकोडी वाल्मीकि रामायण के अनुसार तीन दिन के अन्वेषण के पश्चात श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूंढ ही़ निकाला, जहां से सुगमता से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो। उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करने का निर्णय लिया। धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गांव है। धनुषकोडी पंबन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्नार से करीब १८ मील पश्चिम में है। इसका नाम धनुषकोडी इसलिए है कि यहां से श्रीलंका पहुंचने के लिए नल और नील ने जिस पुल (रामसेतु) का निर्माण किया था उसका आकार मार्ग धनुष के समान ही है। इस पूरे क्षेत्र को मन्नार समुद्री क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है। धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच एकमात्र स्थलीय सीमा है, जहां समुद्र नदी की गहराई जितना है जिसमें कहीं-कहीं भूमि नजर आती है। छेदुकराई तथा रामेश्वरम के इर्द-गिर्द इस घटना से संबंधित अनेक स्मृतिचिह्न अभी भी मौजूद हैं। नाविक रामेश्वरम में धनुषकोडी नामक स्थान से यात्रियों को रामसेतु के अवशेषों को दिखाने ले जाते हैं। वस्तुतः, यहां एक पुल डूबा हुआ है। सन् १८६० में इसकी स्पष्ट पहचान हुई और इसे हटाने के कई प्रयास किए गए। अंग्रेज इसे "एडम ब्रिज" कहने लगे तो स्थानीय लोगों में भी यह नाम प्रचलित हो गया। अंग्रेजों ने कभी इस पुल को क्षतिग्रस्त नहीं किया लेकिन आजाद भारत में पहले तो रेल ट्रैक निर्माण के चक्कर में और बाद में बंदरगाह बनाने के चलते इस पुल को क्षतिग्रस्त किया गया। ३० मील लंबा और १.२५ मील चौड़ा यह रामसेतु ५ से ३० फुट तक पानी में डूबा है। श्रीलंका सरकार इस डूबे हुए पुल (पम्बन से मन्नार) के ऊपर भू-मार्ग का निर्माण कराना चाहती है जबकि भारत सरकार, नौवहन हेतु उसे तोड़कर हटाना चाहती है। इस कार्य को भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट का नाम दिया है। श्रीलंका ने इस डूबे हुए रामसेतु पर भारत और श्रीलंका के बीच भू-मार्ग का निर्माण कराने का प्रस्ताव रखा था। तेरहवां पड़ाव : "नुवारा एलिया" पर्वत श्रृंखला वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। 'नुवारा एलिया' पहाड़ियों से लगभग ९० किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है। श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएं, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है। आजकल भी इन स्थानों की भौगोलिक विशेषताएं, जीव, वनस्पति तथा स्मारक आदि बिलकुल वैसे ही हैं जैसे कि रामायण में वर्णित किए गए हैं। श्री वाल्मीकि ने रामायण की रचना श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद वर्ष ५०७५ ई.पू. के आसपास की होगी (१/४/१-२)। श्रुति-स्मृति की प्रथा के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिचलित रहने के बाद वर्ष १००० ई.पू. के आसपास इसको लिपिबद्ध किया गया होगा। इस निष्कर्ष के बहुत से प्रमाण मिलते हैं। रामायण की कहानी के संदर्भ निम्नलिखित रूप में उपलब्ध हैं:- * कौशाम्बी में खुदाई में मिलीं टेराकोटा (पक्की मिट्टी) की मूर्तियां (दूसरी शताब्दी ईपू) * बौद्ध साहित्य में दशरथ जातक (तीसरी शताब्दी ईपू) * नागार्जुनकोंडा (आंध्रप्रदेश) में खुदाई में मिले स्टोन पैनल (तीसरी शताब्दी) * कौटिल्य का अर्थशास्त्र (चौथी शताब्दी ईपू) * नचार खेड़ा (हरियाणा) में मिले टेराकोटा पैनल (चौथी शताब्दी) * श्रीलंका के प्रसिद्ध कवि कुमार दास की काव्य रचना 'जानकी हरण' (सातवीं शताब्दी)
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