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Laxman Rekha

लक्ष्मण रेखा लक्ष्मण रेखा आप सभी जानते हैं पर इसका असली नाम शायद नहीं पता होगा। लक्ष्मण रेखा का नाम(सोमतिती विद्या है!) यह भारत की प्राचीन विद्याओ में से जिसका अंतिम प्रयोग महाभारत युद्ध में हुआ था चलिए जानते हैं अपने प्राचीन भारतीय विद्या को सोमतिती विद्या(लक्ष्मण रेखा) महर्षि श्रृंगी कहते हैं कि एक वेदमन्त्र है--'सोमंब्रही वृत्तं रत:स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति' यह वेदमंत्र कोड है उस सोमना कृतिक यंत्र का,पृथ्वी और बृहस्पति के मध्य कहीं अंतरिक्ष में वह केंद्र है जहां यंत्र को स्थित किया जाता है,वह यंत्र जल,वायु और अग्नि के परमाणुओं को अपने अंदर सोखता है,कोड को उल्टा कर देने पर एक खास प्रकार से अग्नि और विद्युत के परमाणुओं को वापस बाहर की तरफ धकेलता है! जब महर्षि भारद्वाज ऋषिमुनियों के साथ भृमण करते हुए वशिष्ठ आश्रम पहुंचे तो उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से पूछा--राजकुमारों की शिक्षा दीक्षा कहाँ तक पहुंची है?? महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि यह जो ब्रह्मचारी राम है-इसने आग्नेयास्त्र वरुणास्त्र ब्रह्मास्त्र का संधान करना सीख लिया है! यह धनुर्वेद में पारंगत हुआ है महर्षि विश्वामित्र के द्वारा! यह जो ब्रह्मचारी लक्ष्मण है यह एक दुर्लभ सोमतिती विद्या सीख रहा है,उस समय पृथ्वी पर चार गुरुकुलों में वह विद्या सिखाई जाती थी, महर्षि विश्वामित्र के गुरुकुल में,महर्षि वशिष्ठ के गुरुकुल में,महर्षि भारद्वाज के यहां,और उदालक गोत्र के आचार्य शिकामकेतु के गुरुकुल में! श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि लक्ष्मण उस विद्या में पारंगत था! एक अन्य ब्रह्मचारी वर्णित भी उस विद्या का अच्छा जानकार था! 'सोमंब्रहि वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत:अवस्ति'--इस मंत्र को सिद्ध करने से उस सोमना कृतिक यंत्र में जिसने अग्नि के वायु के जल के परमाणु सोख लिए हैं उन परमाणुओं में फोरन आकाशीय विद्युत मिलाकर उसका पात बनाया जाता है! फिर उस यंत्र को एक्टिवेट करें और उसकी मदद से एक लेजर बीम जैसी किरणों से उस रेखा को पृथ्वी पर गोलाकार खींच दें! उसके अंदर जो भी रहेगा वह सुरक्षित रहेगा,लेकिन बाहर से अंदर अगर कोई जबर्दस्ती प्रवेश करना चाहे तो उसे अग्नि और विद्युत का ऐसा झटका लगेगा कि वहीं राख बनकर उड़ जाएगा ! जो भी व्यक्ति या वस्तु प्रवेश कर रहा हो,ब्रह्मचारी लक्ष्मण इस विद्या के इतने जानकर हो गए थे कि कालांतर में यह विद्या सोमतिती न कहकर "लक्ष्मण रेखा" कहलाई जाने लगी! महर्षि दधीचि,महर्षि शांडिल्य भी इस विद्या को जानते थे, श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण इस विद्या को जानने वाले अंतिम थे! उन्होंने कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में मैदान के चारों तरफ यह रेखा खींच दी थी,ताकि युद्ध में जितने भी भयंकर अस्त्र शस्त्र चलें उनकी अग्नि उनका ताप युद्धक्षेत्र से बाहर जाकर दूसरे प्राणियों को संतप्त न करे! मुगलों द्वारा करोडों करोड़ो ग्रन्थों के जलाए जाने पर और अंग्रेजों द्वारा महत्वपूर्ण ग्रन्थों को लूट लूटकर ले जाने के कारण कितनी ही अद्भुत विधाएं जो हमारे यशस्वी पूर्वजों ने खोजी थी लुप्त हो गई,जो बचा है उसे संभालने में प्रखर बुद्धि के युवाओं को जुट जाना चाहिए!

Ghazal-150

ग़ज़ल, अर्ज़ किया है- तुम ग़रीबों के घर जलाने लगे इतनी नफ़रत कहाँ से लाने लगे//1 तू तड़ाके पे आ गये इकदम अपनी औक़ात तुम दिखाने लगे//2 तुमने भी दूरियां बढ़ा ली हैं तुम भी अब बात को छुपाने लगे//3 बज़्म-ए-शो'रा में लग गयी आदत खाली बैठे थे,मुँह चलाने लगे//4 चुप थे,जागे थे जब तलक,लेकिन नींद आते ही बड़बड़ाने लगे//5 कौन सी रस्म है ये उल्फ़त की बोसा माँगा था,आज़माने लगे//6 राज़,ख़ाली थे हम भी क्या करते घर पे दो पैग ही लगाने लगे//7

Ghazal-149

न ग़म से,न आँसुओं से,न दीवानगी से, हम वाक़िफ़ नहीं थे आपसे पहले किसी से। ज़िंदा रखीं बुज़ुर्गों की हमने रिवायतें, दुश्मन से भी मिले तो मिले आजिज़ी से। सब सर-फिरी हवाओं को दुश्मन बना लिया, रौशन हुये थे लड़ने को इक तीरगी से। साँसें महक रही हैं,निगाहों में नूर है, आज मिल के आये हैं इक शख्स से। सूरज तो सिर्फ़ दिन के उजाले का है, हम हैं चराग़,लड़ते हैं अंधेरी रात से। बदनाम हो रहा है मुक़द्दर तो बे-सबब, बर्बाद हैं ख़ुद अपने अमल की कमी से।

Ghazal-148

ग़ज़ल- आधुनिकता झेलने को बोलिए तैयार हैं, घर में घुस के आज हमला कर रहे बाज़ार हैं। सोच अपनी कुंद रख के लोग जो देते हैं वोट, आदमीयत के लिए वो लोग तो बेकार हैं। पास जिनके धन ज़रूरत से अधिक है,देेख लो, लग रहा है ज़िदगी से आज वो बेज़ार हैं। कुछ अगर गहराई से सोचें,तो पायेंगे यही, आपदाओं के तो जैसे हम भी हिस्सेदार हैं। आपदाओं तक में दिखते लोग कुछ बेफिक्र से, हैं वही चिंतित यहाँ पर लोग जो बेदार हैं। अब पता करना बहुत मुश्किल है झंडा देख कर, आज नेता इस तरफ़ हैं या कि वो उस पार हैं। हम करें उपभोग अब संसाधनों का,सोच के, पीढ़ियों के वास्ते हम-आप ज़िम्मेदार हैं। बेज़ार = खिन्न, ऊबे हुए बेदार= जागरूक

A .P.J Abdul Kalaam

27जुलाई/ पुण्यतिथि भारत रत्न एपीजे अब्दुल कलाम एपीजे अब्दुल कलाम का जन्म एक गरीब तमिल मुस्लिम परिवार में 15 अक्टूबर, 1931 को तमिलनाडु के तीर्थ नगरी रामेश्वरम में हुआ था। उनकी माँ, आशियम्मा, एक गृहिणी थीं और उनके पिता जैनुलेदीन एक स्थानीय मस्जिद के इमाम और साथ ही साथ एक नाविक भी थे। वह चार बड़े भाइयों और एक बहन के साथ परिवार में सबसे छोटे थे । हालाँकि, परिवार आर्थिक रूप से संपन्न नहीं था लेकिन सभी बच्चों को एक ऐसे माहौल में पाला गया था जो प्यार और करुणा से भरा था। परिवार की आय के लिए, कलाम को अपने शुरुआती वर्षों के दौरान समाचार पत्रों भी बेचने पड़े । वह अपने स्कूल के दौरान एक औसत छात्र थे , लेकिन उनमे सीखने की तीव्र इच्छा थी और वह बहुत मेहनती थे । वह गणित से प्यार था और विषय का अध्ययन करने में घंटों बिताते थे । उन्होंने 1954 में ‘स्चार्ट्ज हायर सेकेंडरी स्कूल’ से शिक्षा ग्रहण की और फिर ‘सेंट जोसेफ कॉलेज, तिरुचिरापल्ली’ से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। वे एक लड़ाकू पायलट बनना चाहते थे, लेकिन उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका क्योंकि यहाँ केवल आठ पद उपलब्ध थे उन्होंने नौवां स्थान हासिल किया था । 1960 में, उन्होंने ‘रक्षा प्रौद्योगिकी और विकास सेवा’ के सदस्य बनने के बाद ‘मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी’ से स्नातक किया और ‘वैमानिकी विकास प्रतिष्ठान’ में एक वैज्ञानिक के रूप में शामिल हुए। कलाम ने प्रख्यात अंतरिक्ष वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के अधीन भी काम किया। कलाम को 1969 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) ’में स्थानांतरित कर दिया गया था। वह देश के सबसे पहले सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (SLV-III) के प्रोजेक्ट हेड बन गए। जुलाई 1980 में, SLV-III ने कलाम के नेतृत्व में ’रोहिणी’ उपग्रह को सफलतापूर्वक पृथ्वी के निकट कक्षा में तैनात किया। 1983 में, कलाम प्रमुख के रूप में DRDO में लौटे क्योंकि उन्हें ” इंटीग्रेटेड गाइडेड मिसाइल डेवलपमेंट प्रोग्राम ’(IGMDP) का नेतृत्व करने के लिए कहा गया था । मई 1998 में, उन्होंने भारत द्वारा ” पोखरण-द्वितीय ” परमाणु परीक्षण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन परमाणु परीक्षणों की सफलता ने कलाम को राष्ट्रीय नायक बना दिया और उनकी लोकप्रियता आसमान छू गई। एक तकनीकी दूरदर्शी के रूप में, उन्होंने भारत को 2020 तक विकसित राष्ट्र बनाने के लिए तकनीकी नवाचारों, कृषि और परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में कई सिफारिशें कीं। 2002 में, सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) द्वारा कलाम को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुना गया, और वह 25 जुलाई, 2002 को भारत के 11 वें राष्ट्रपति बने और 25 जुलाई, 2007 तक इस पद पर रहे। वह राष्ट्रपति का पद संभालने से पहले “भारत रत्न ” प्राप्त करने वाले भारत के तीसरे राष्ट्रपति भी बने। आम लोगों, विशेष रूप से युवाओं के साथ काम करने और बातचीत करने की उनकी शैली के कारण, उन्हें प्यार से ‘द पीपुल्स प्रेसिडेंट‘ कहा जाता था। डॉ कलाम के अनुसार, उनके कार्यकाल के दौरान उन्होंने जो सबसे कठोर निर्णय लिया था, वह था ‘ऑफिस ऑफ़ प्रॉफिट बिल “पर हस्ताक्षर करने का। अपने राष्ट्रपति कार्यकाल की समाप्ति के बाद, वह ‘भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM), अहमदाबाद,’ ‘भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM), इंदौर’ और ‘भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM), शिलांग में विजिटिंग प्रोफेसर बन गए। उन्होंने अन्ना विश्वविद्यालय में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग के प्रोफेसर के रूप में कार्य किया, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेस साइंस एंड टेक्नोलॉजी तिरुवनंतपुरम’ में चांसलर के रूप में, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (आईआईएससी), बैंगलोर ’के मानदके रूप में और देश भर के कई अन्य शोध और अकादमिक संस्थानों में उन्होंने अपनी सेवा दी । उन्होंने ‘अन्ना विश्वविद्यालय,’ , ‘बनारस हिंदू विश्वविद्यालय’ और ‘अंतर्राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईआईटी), हैदराबाद में सूचना प्रौद्योगिकी सिखाई।’ भ्रष्टाचार को हराने और दक्षता लाने के उद्देश्य से, कलाम ने 2012 में युवाओं के लिए एक कार्यक्रम शुरू किया, जिसे “व्हाट कैन आई गिव मूवमेंट ’कहा जाता है। कलाम को भारत सरकार की ओर से प्रतिष्ठित ‘भारत रत्न,’ ‘पद्म विभूषण’ और ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया था। उन्होंने 40 विश्वविद्यालयों से डॉक्टरेट की मानद उपाधि भी प्राप्त की। संयुक्त राष्ट्र ने कलाम के 79 वें जन्मदिन को विश्व छात्र दिवस के रूप में मान्यता दी। 2003 और 2006 में, उन्हें Icon एमटीवी यूथ आइकन ऑफ द ईयर ’के लिए नामांकित किया गया था। कलाम 27 जुलाई 2015 को ” क्रिएटिंग ए लिवेबल प्लैनेट अर्थ ’पर व्याख्यान देने के लिए आईआईएम शिलांग गए, सीढ़ियां चढ़ते समय, उन्होंने कुछ असुविधा व्यक्त की, लेकिन सभागार के लिए अपना रास्ता बना लिया। व्याख्यान में केवल पाँच मिनट, लगभग 6:35 बजे IST, वह व्याख्यान कक्ष में गिर गया। उन्हें गंभीर हालत में “बेथानी अस्पताल ’ले जाया गया। उन्हें गहन देखभाल इकाई में रखा गया था, लेकिन उनकी हालत खराब थी । 7:45 बजे IST में, कार्डियक अरेस्ट के कारण उन्हें मृत घोषित कर दिया गया l

Ghazal-147

ग़ज़ल- मेरी ग़ज़लों में मिलती है, माटी की बू-बास ज़रा, कल की झलक सहित है इनमें,वर्तमान-इतिहास ज़रा। मर्म भाव का जो जानेगा वो ही इन्हें समझ सकता, समझो इनको,आ जाएगा,जीवन में,उल्लास ज़रा। जीवन के वो सूत्र मिलेंगे,जो अब तक कहते आए, ऋषि,मुनि,जैन,बौद्ध,कबीर,मार्क्स और रैदास ज़रा। कितने चढ़े मुलम्मे इन पर,जन-जीवन ढँग से देखो, आमआदमी की पीड़ा का तब होगा अहसास ज़रा। आज सत्य के संवाहक ख़तरे में ख़ुद को डाल रहे, ऐसे लोगों के कामों से दिखती हमको आस ज़रा। मीठा बोलें,सज धज के,जो दोषी हैं,लेकिन देखो, देवतुल्य प्रचारित करते उनको,चमचे ख़ास ज़रा। राष्ट्र,धर्म,सभ्यता,आदि के मीठे सपने दिखला कर, वो कहते झेलो चुप रह कर,उनका है जो त्रास जरा। वो कहते हैं सत्य वही है जो वो कहते अपने मुख से, गर्मी को भी कहना सीखो अब मादक मधुमास ज़रा।

Ghazal-146

ग़ज़ल- मुसलसल ज़िन्दगी बल खा रही है, जहां पे रीझ के इतरा रही है। मुसलसल=लगातार, सतत, वही दुनिया में इक जल्वानुमा है, मगर दुनिया तो धोखा खा रही है। वही=यहाँ ईश्वर के लिए प्रयुक्त हुआ है,जल्वानुमा=दृष्टिगोचर होना, दिखना नज़र जो आ रही हर शय अलग कुछ, अना हमको यहाँ भरमा रही है। शय=वस्तु,अना=अहंकार अना देखो तो कितनी नासमझ है, इबादत से जो ये टकरा रही है। वो जीते ज़िन्दगी लम्हों की लेकिन, बक़ा की मुझको तो चिंता रही है। लम्हा=क्षण,बक़ा=शाश्वतता कमी अपनी भी कुछ तुमको मिलेगी, कली कोई अगर मुरझा रही है। जो ख़ुद की फ़िक्र ही उनको है,तो हो, मेरी सब के लिए चिंता रही है। तुम्हारे दिल में,बेेशक़,घर करेगी, ग़ज़ल जो दिल से दिल की आ रही है।

Sanatan Dharma

*धर्म क्या है ? - धर्म किसे कहते हैं ??* धर्म एक संस्कृत शब्द है। धर्म का अर्थ बहुत व्यापक है। जो धारण करने योग्य है, वही धर्म कहलाता है।जैसे हम किसी नियम को, व्रत को धारण करते हैं इत्यादि। इस अनुसार धर्म का अर्थ है कि जो सबको धारण किए हुए है अर्थात धारयति- इति धर्म:!। अर्थात जो सबको संभाले हुए है वे धर्म ।धर्म के बिना यह सारा संसार सारी सृष्टी चल ही नही सकती जैसे पृथ्वी समस्त प्राणियों को धारण किए हुए है यह पृथ्वी का धर्म / व्रत है। हर वस्तु का धर्म गुण होता है जैसे पानी का धर्म शीतलता। अग्नि का धर्म जलना और प्रकाश करना। पशु पक्षियों का धर्म निश्चित है लेकिन मनुष्य धर्म गुण अपनाने में स्वतंत्र है। तभी वे मनुष्य से अमनुषय भी बन जाता है।धर्म वे नियम या कर्म है जिस पर चलना पुण्य और जिन पर न चलना पाप कहलाता है। हर व्यक्ति पूर्व जन्म के संस्कारों से या जन्म के बाद शिक्षा से धर्म और अधर्म के गुण प्राप्त करता है। अगर वे जीवन में मनुष्यता के गुण लेकर चलता है तो उसे धार्मिक व्यक्ति कह सकते हैं। ईशवर ने जो हर मनुष्य के हृदय में मनुष्यता के गुण दिये है उन गुणों पर चलने और अपनाने से ही व्यक्ति को धार्मिक कहा जा सकता है। वास्तव में धर्म आत्म उन्नती व आत्म कल्याण का एक मात्र पवित्र मार्ग है. उससे हट कर सभी क्रिया कलाप डकोसले पाखण्ड है या सम्प्रदाय कहलाते है धर्म नहीं। जिसका कोई लाभ नहीं। मनुष्य के क्या गुण है ? उसके लिए क्या धारण करने योग्य है ? जिससे वे आपना लोक व परलोक सुधार सकता है और मनुष्य कहला सकता है ? वे हैं धैर्य रखना दया करना क्षमा करना सत्यता मन और कर्मो में क्रोद्ध न करना चोरी न करना इन्द्रियों पर कंट्रोल करना शरिरक मानसिक स्वच्छता ज्ञान बढ़ाना यह सब धर्म है धर्म के नियम है जो इन को धारण करने से वे धार्मिक कहलाता है।* बाहरी चिन्ह मनुष्य को धार्मिक नहीं बनाते अपितु आत्मिक व मानसिक गुण व्यक्ति को धार्मिक बनाते है। तिलक,टीका,भगवा,टोपी, भस्म, पगड़ी लगा लेने से कोई धर्मात्मा या धार्मिक नहीं बनता। धर्म सभी काल में सभी स्थान पर सभी व्यक्तियों के लिए एक ही है क्योंकि धर्म के नियम सत्य तर्क विज्ञान और अटल सृष्टि नियमों पर आधारित होते है । धर्म का कोई नाम नही होता जहाँ नाम है वे धर्म नही सम्प्रदाय है। धर्म की परिभाषा इस प्रकार भी कि गई है जो पक्ष पात रहित न्याय सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार व्यवहार हैं उसी का नाम धर्म और उससे विपरीत का अधर्म हैं।जो ईश्वर आज्ञा के विरुद्ध नहीं हैं और आत्मा की आवाज को सुन कर कार्य करना उसको ही धर्म मानना चाहिए। जो व्यवहार स्वयं को प्रिय नही वे दुसरो से भी न करना धर्म है। इन बातों को जो व्यक्ति मत संघ संस्था नहीं मानती वे सभी मज़हब या सम्प्रदाय कहलाते है जिनके अपने अलग अलग नियम अलग अलग शिक्षाएँ व सिद्धांत है। किसी विशेष स्थान पर जाना और माथे टेकना इबादत या नाम रटना धर्म नही। महार्षि मनु ने धर्म के दस लक्ष्मण बताऐ हैं जिन को अपना कर ही मनुष्य धार्मिक कहला सकता है. जो कि इस प्रकार है :- धर्ति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचम् इन्द्रियनिग्रह धी विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्। 1.धृति-सुख,दुःख ,हानि,लाभ,मान,अपमान मे धैर्य रखना 2.क्षमा- शरीर मे सामर्थ्य होने पर भी बुराई का प्रतिकार न करना या बदला न लेना क्षमा है। 3.दम-मन मे अच्छी बातो का चिंतन करना बुरी बातों को दबाना हटाना 4.अस्तेय-बिना दूसरे की आज्ञा के कोई वस्तु न लेना चोरी न करना 5.शौच-शरीर की आत्मिक और शारीरिक शुद्धि रखना 6-इन्द्रियनिग्रह हाथ,पांव,आंख,मुख,नाक आदिको अच्छे कार्यो मे लगाना।इन्द्रियों को संयम में रखना। 7.धी-बुद्धि बढाने हेतू प्रयत्न करना 8.विद्या-ईश्वर द्वारा बनाये गए प्रत्येक पदार्थ का ज्ञान प्राप्त करना तथा उनसे उपयोग लेना 9.सत्य-जो हम जानते है उसको वैसा ही अपने द्वारा कहना मानना सत्य कहलाता है।हमेशा सत्य ही बोलना। 10.अक्रोध-इच्छा से उत्पन्न क्रोध का त्याग करना ही अक्रोध है। महर्षि पतंजलि ने अनुशासन को धर्म कहा जो योग द्वारा प्रप्त किया जा सकता है। महर्षि पतंजलि ने योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' (योगः चित्तवृत्तिनिरोधः) के रूप में परिभाषित किया है। उन्होंने 'योगसूत्र' नाम से योगसूत्रों का एक संकलन किया है, जिसमें उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है। अष्टांग योग (आठ अंगों वाला योग), यह आठ आयामों वाला मार्ग है। योग के ये आठ अंग हैं:- १) यम, २) नियम, ३) आसन, ४) प्राणायाम, ५) प्रत्याहार, ६) धारणा ७) ध्यान ८) समाधि यम:- 1. अहिंसा – शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना 2. सत्य – विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना 3. अस्तेय – चोर-प्रवृति का न होना 4. ब्रह्मचर्य – दो अर्थ हैं: * चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना * सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना 5. अपरिग्रह – आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना 2. नियम:- 1. शौच – शरीर और मन की शुद्धि 2. संतोष – अपनी स्थिति में सदा सन्तुष्ट रहना 3. तप – स्वयं से अनुशाषित रहना 4. स्वाध्याय – आत्मचिंतन करना 5. ईश्वर-प्रणिधान – इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा यह पांच यम और पाँच नियम ही धर्म की यात्रा का आरम्भ है। धर्म मूल रूप में संस्कृत शब्द है। इंग्लिश की किताबों में धर्म का अर्थ परिभाषा के रूप में नही मिलता। इंग्लिश में Man का अर्थ भी नही है।धर्म को इंग्लिश में विश्वास / belief अर्थात अलग अलग विश्वासों को धर्म कहा है,वहाँ एक व स्पष्ट परिभाषा नही मिलती । man के लिये इंग्लिश में अर्थ human लिखा और human मतलब शरिरक ढाँचा। जबकि उनके अनुसार बन्दर वग़ैरा भी human कहलाएँगे। जबकि वैदिक ग्रंथों में मानव को “मनुर्भव “ कहा गया है अर्थात जिसमें मनुष्यता के गुण हो वही मनुष्य कहलाने लायक है। मानव कि परिभाषा “जो प्राणी विचार करके उचित और अनुचित को सोच विचार कर कार्य करता है वे मनुष्य कहलाता है “ जो इसके वपरित कार्य करेगा वे आमनुष्य कहलायेगा। जिस समाज में हम रह रहे हैं वे धर्म की बुनियाद पर ही चल रहा है और जो गिरावट देख रहे हैं वे धर्म पर न चलने वाले सम्प्रदायों के कारण हुई जिन्होंने अपने अपने नियम व सिद्धांत गढ़ लिए और मनुष्य जाति को गुटों में बाँट दिया ।धर्म और सम्प्रदाय को एक मानने से ही कुछ लोग धर्म को गाली या रोग कह देते है। महर्षी दयानन्द सरस्वती के अनुसार *मनुष्य किसे कहते हैं!* मनुष्य उसी को कहना जो मननशील होकर अपनी आत्मा के समान अन्यों के सुख – दुख और हानि – लाभ को समझे । अन्यायकारी बलवान से न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे । इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं – कि चाहे वे महाअनाथ , निर्बल क्यों न हों – उनकी रक्षा , उन्नति , प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती महाबलवान और गुणवान भी हो तथापि उसका नाश , अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वदा किया करें । इस काम में चाहे कितना ही दारुण दुख प्राप्त हो , चाहे प्राण भी भले ही जावें परन्तु इस मनुष्यरुप धर्म से पृथक कभी न होवे । महर्षी दयानन्द सरस्वती

Kavita

जब कभी मन मे व्यथा हो आँसूओं का संग जुदा हो बात मन की कह सको ना तब मुझे तुम याद करना। मुझसे तुम संवाद करना व्यक्त सब जज्बात करना मै सुनूँगा सब धीर रखकर और मार्ग भी प्रशस्त करूँगा। जानता हूँ बहुत कठिन यह गैर से निज जज्बात कहना पीर जब नासूर बनने लगे बेहतर होता उपचार करना। है यही बस वश मे अपने दीप बन जलूँ, तम मिटाऊँ खुद की खातिर जी चुका अब किसी के काम आऊँ।

You and I (English Poem)

You and I Wanderer I, wanderer you, This has been the story for ages. Moment by moment, grain by grain, The world’s ways are charming stages. We meet by coincidences, And through them, we part here. In the making of these chances, Our own conduct must steer. Since we gained life, We have become somewhat aware. Understood a bit about the world, And our minds became somewhat clear. At the time of making decisions, Personal interest deepens in the mind. When thought of everyone’s welfare, We often found ourselves in a bind. From the world's deeds, it seems, Self-interest outweighs altruism. Maintaining balance here, Is our solemn responsibility, our prism. When we meet by chance, We stay together for some time. Share and listen to a few words, And then move on to new climbs. Some things we like, Some things we resent. From whatever experiences we gather, Life’s maturity is what we augment. Some grievances occur, Some laughter and teasing fill our days. From these colorful emotions, The tapestry of life is set ablaze. Everyone has their own experiences, friends, Which seem unique and profound. Some express these in songs, Some endure silently, sound. You and I, our life, Must be lived with compromises and grace. If there are a hundred ways to fall, There is a narrow staircase to embrace. There are many excuses to fight, From which the world suffers a lot. If we see everyone like ourselves, Then life’s battles are better fought. When personal interest grows too much, Nature restores balance true. Even from the darkness of thoughts, It lights up life’s flame anew.

अमर शहीद मंगल पाण्डे

19 जुलाई / जन्मदिवस अमर शहीद मंगल पाण्डे अंग्रेजी शासन के विरुद्ध चले लम्बे संग्राम का बिगुल बजाने वाले पहले क्रान्तिवीर मंगल पांडे का जन्म 19 जुलाई 1827 ग्राम नगवा (बलिया, उत्तर प्रदेश) में हुआ था। युवावस्था में ही वे सेना में भर्ती हो गये थे। उन दिनों सैनिक छावनियों में गुलामी के विरुद्ध आग सुलग रही थी। अंग्रेज जानते थे कि हिन्दू गाय को पवित्र मानते हैं, जबकि मुसलमान सूअर से घृणा करते हैं। फिर भी वे सैनिकों को जो कारतूस देते थे, उनमें गाय और सूअर की चर्बी मिली होती थी। इन्हें सैनिक अपने मुँह से खोलते थे। ऐसा बहुत समय से चल रहा था; पर सैनिकों को इनका सच मालूम नहीं था। मंगल पांडे उस समय बैरकपुर में 34 वीं हिन्दुस्तानी बटालियन में तैनात थे। वहाँ पानी पिलाने वाले एक हिन्दू ने इसकी जानकारी सैनिकों को दी। इससे सैनिकों में आक्रोश फैल गया। मंगल पांडे से रहा नहीं गया। 29 मार्च, 1857 को उन्होंने विद्रोह कर दिया। एक भारतीय हवलदार मेजर ने जाकर सार्जेण्ट मेजर ह्यूसन को यह सब बताया। इस पर मेजर घोड़े पर बैठकर छावनी की ओर चल दिया। वहां मंगल पांडे सैनिकों से कह रहे थे कि अंग्रेज हमारे धर्म को भ्रष्ट कर रहे हैं। हमें उसकी नौकरी छोड़ देनी चाहिए। मैंने प्रतिज्ञा की है कि जो भी अंग्रेज मेरे सामने आयेगा, मैं उसे मार दूँगा। सार्जेण्ट मेजर ह्यूसन ने सैनिकों को मंगल पांडे को पकड़ने को कहा; पर तब तक मंगल पांडे की गोली ने उसका सीना छलनी कर दिया। उसकी लाश घोड़े से नीचे आ गिरी। गोली की आवाज सुनकर एक अंग्रेज लेफ्टिनेण्ट वहाँ आ पहुँचा। मंगल पांडे ने उस पर भी गोली चलाई; पर वह बचकर घोड़े से कूद गया। इस पर मंगल पांडे उस पर झपट पड़े और तलवार से उसका काम तमाम कर दिया। लेफ्टिनेण्ट की सहायता के लिए एक अन्य सार्जेण्ट मेजर आया; पर वह भी मंगल पांडे के हाथों मारा गया। तब तक चारों ओर शोर मच गया। 34 वीं पल्टन के कर्नल हीलट ने भारतीय सैनिकों को मंगल पांडे को पकड़ने का आदेश दिया; पर वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। इस पर अंग्रेज सैनिकों को बुलाया गया। अब मंगल पांडे चारों ओर से घिर गये। वे समझ गये कि अब बचना असम्भव है। अतः उन्होंने अपनी बन्दूक से स्वयं को ही गोली मार ली; पर उससे वे मरे नहीं, अपितु घायल होकर गिर पड़े। इस पर अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें पकड़ लिया। अब मंगल पांडे पर सैनिक न्यायालय में मुकदमा चलाया गया। उन्होंने कहा, ‘‘मैं अंग्रेजों को अपने देश का भाग्यविधाता नहीं मानता। देश को आजाद कराना यदि अपराध है, तो मैं हर दण्ड भुगतने को तैयार हूँ।’’ न्यायाधीश ने उन्हें फाँसी की सजा दी और इसके लिए 18 अप्रैल का दिन निर्धारित किया; पर अंग्रेजों ने देश भर में विद्रोह फैलने के डर से घायल अवस्था में ही 8 अप्रैल, 1857 को उन्हें फाँसी दे दी। बैरकपुर छावनी में कोई उन्हं फाँसी देने को तैयार नहीं हुआ। अतः कोलकाता से चार जल्लाद जबरन बुलाने पड़े। मंगल पांडे ने क्रान्ति की जो मशाल जलाई, उसने आगे चलकर 1857 के व्यापक स्वाधीनता संग्राम का रूप लिया। यद्यपि भारत 1947 में स्वतन्त्र हुआ; पर उस प्रथम क्रान्तिकारी मंगल पांडे के बलिदान को सदा श्रद्धापूर्वक स्मरण किया जाता है।

Ghazal-145

ग़ज़ल- बोलते थे और कुछ वो मानते थे और कुछ. लोग समझें इस से पहले वो किए हैं और कुछ। वक़्त पर करता नहीं है,वक़्त की परवाह जो, पेच उसका वक़्त भी कसता रहा है और कुछ। बिस्मिलों की बात कैसे हाकिमों तक जाएगी? जो बयां वो दे रहे हैं हलफ़िया,है और कुछ। बिस्मिल=घायल,हल्फिया बयान=शपथ लेकर दिया गया बयान दलबदल करके वो अबतक,राज-सुख पाते रहे, लोग बस कहते रहे,उनकी सज़ा है और कुछ। उनके दल के मुजरिमों को,पारसा समझा गया, क्या सियासत में बताने को बचा है और कुछ? पारसा=पवित्र वो ज़ियादा जोर देकर बात को समझा रहे, लग रहा मुझको इसी से,माज़रा है और कुछ। सीख दे-दे कर चुकी पैगम्बरों की इक क़तार, आदमी फिर भी यहाँ करता रहा है और कुछ। धर्मग्रंथों,रीतियों के नाम पर वो ठग रहे, ज़िन्दगी जीने का उनका फ़लसफ़ा है और कुछ। फ़लसफ़ा=दर्शन,फिलोसफी आमजन के हक़ की ख़ातिर जो निज़ामत से लड़ा, दोस्तो वो ज़िन्दगी को जी सका है और कुछ। निजामत= व्यवस्था

Ghazal-144

ग़ज़ल- भला इंसानियत का चाहती हो, ज़ुबां पे आज बस वो शायरी हो। सुने जो भी,लगे उसको कि जैसे, ग़ज़ल में बात उसकी ही कही हो। ख़ुदा से मेरी बस ये इल्तिज़ा है, न मुश्किल में किसी की ज़िन्दगी हो। मेरी कोशिश यही है दोस्तो बस, कि सब की ज़िन्दगी में रोशनी हो। हुआ है इश्क़ जब से,बस ये चाहा, जुदा कोई न अपनों से कभी हो, अपेक्षा है समय की अब,कलम से, ग़ज़ल बस वो लिखूँ जो आग-सी हो। सुनेगा ग़ौर से तुमको ज़माना, तुम्हारी बात में कुछ बात भी हो।

Mushaira,Ghazal-143

ग़ज़ल ---- दोस्तो,बह्र-ए-खफ़ीफ़ में लिखने का सिलसिला जारी है.और मैं फिर से आपकी बज़्म में हाज़िर हूँ एक और नयी ग़ज़ल के साथ,उम्मीद है आपको पसंद आएगी.बराए मेहेरबानी मुलाहिज़ा फ़रमाएँ,अर्ज़ किया है- कपड़े सबके उतारे जाएँगे जब अदम में पुकारे जाएँगे//1 सबका मुंसिफ़ वहाँ पे बैठा है उसकी पेशी में सारे जाएँगे//2 जो हैं बालिग़ उन्हें मिलेगा सबक़ जो हैं बच्चे,दुलारे जाएंगे//3 दूसरों को जिन्होंने मारा है वो भी इक रोज़ मारे जाएँगे//4 गर तुम्हारी रिज़ा है हम हस्ती मुफ़्लिसी में गुज़ारे जाएँगे//5 लेके रिश्ता हमारी शादी का चाँद के घर सितारे जाएँगे//6 तुम भी आलोचना किए जाओ हम भी ग़लती सुधारे जाएँगे//7 ज़िंदगी कट गयी है लेकिन'राज़' आगे किसके सहारे जाएँगे//8 शब्दार्थ- ------------- •अदम-परलोक •मुंसिफ़-न्याय या इंसाफ़ करने वाला व्यक्ति,न्यायिक,न्यायाधीश,न्याय करने वाला,न्यायकर्ता •पेशी-न्यायालय या अधिकारी के सामने किसी अभियोग या मुकदमे के पेश होने और सुने जाने की कार्रवाई •बालिग़-वयस्क,समझदारी की आयु तक पहुँचा हुआ •रिज़ा-स्वीकृति,मंज़ूरी •हस्ती-वुजूद,जीवन,प्राण,ज़िदगी,संसार,दुनिया,प्राणीवर्ग,मख्लूक़ात,सामर्थ्य,मक्दूर •मुफ़्लिसी-मुफ़्लिस होने की अवस्था या भाव,दरिद्रता,निर्धनता

Ghazal-142

ग़ज़ल- इल्म के साथ जब फ़िक्र भी आ गई, शायरी में लगा,जान सी आ गई। साथ देने को हम-आप राज़ी हुए, साथ देने को तब हर खुशी आ गई। साथ तनहाइयाँ तब कहाँ रह सकीं, याद कुछ जिस घड़ी आपकी आ गई। देर तक उसने मुझको न सोने दिया, फिर जगाने मुझे रोशनी आ गई। वक़्त ने ऐसे सूरत बदल दी मेरी, आइना देखते ही हँसी आ गई। कोशिशें मैंने कीं तो अँधेरों से भी, देखते-देखते राह-सी आ गई। सोच पर भी लगा बंद अब दोस्तो, आदमी की कहाँ ज़िन्दगी आ गई। आज मक़्तूल पे जुर्म साबित करे, किस गिरावट पे यह मुंसिफ़ी आ गई। कुछ उसूलों पे भी बात होने को थी, क्या कहूँ बीच में दोस्ती आ गई। फेसबुक नाम जैसे ही उसने सुना, मरते-मरते उसे साँस-सी आ गई। जो है क़ातिल,उन्हें,वो मसीहा लगे, क्या ग़जब दोस्तो बेख़ुदी आ गई। उनको देखा तो ये मोजिज़ा हो गया, लब हिले और मुझे शायरी आ गई।

Ghazal-141

ग़ज़ल- हुआ जब शेर कोई अनकहा-सा, लगा लम्हा वो मैंंने जी लिया-सा। कमी मेरी बताता जब भी कोई, मुझे वो टोकना लगता दुआ-सा। मेरे आशिक़ की ये ज़िंदादिली है, मिला हर बार पहली मर्तबा-सा। हुआ वर्षों पुराना इश्क़ अपना, लगे है वाकिया हो हालिया- सा जो अपने होश में यारो नहीं है, जताता है वो ख़ुद को नाख़ुदा-सा। ज़ुबां का काम लेता वो नज़र से, किसी से इश्क़ है उसको हुआ-सा। किया है इश्क़ इतनी सादगी से, कभी लगता मुझे वो बेवफ़ा-सा। न बोले देर तक आपस में वो पर, लगा हर लम्हा जैसे बोलता-सा। नहीं जो कह सका,वो वक़्त ए रुख़सत, दिखा लब पे कहीं सहमा हुआ-सा। नाख़ुदा= नाव चलाने वाला (नेतृत्व प्रदान करने वाला) -

भामाशाह

28 जून/जन्म-दिवस अनुपम दान : भामाशाह दान की चर्चा होते ही भामाशाह का नाम स्वयं ही मुँह पर आ जाता है। देश रक्षा के लिए महाराणा प्रताप के चरणों में अपनी सब जमा पूँजी अर्पित करने वाले दानवीर भामाशाह का जन्म अलवर (राजस्थान) में 28 जून, 1547 को हुआ था। उनके पिता श्री भारमल्ल तथा माता श्रीमती कर्पूरदेवी थीं। श्री भारमल्ल राणा साँगा के समय रणथम्भौर के किलेदार थे। अपने पिता की तरह भामाशाह भी राणा परिवार के लिए समर्पित थे। एक समय ऐसा आया जब अकबर से लड़ते हुए राणा प्रताप को अपनी प्राणप्रिय मातृभूमि का त्याग करना पड़ा। वे अपने परिवार सहित जंगलों में रह रहे थे। महलों में रहने और सोने चाँदी के बरतनों में स्वादिष्ट भोजन करने वाले महाराणा के परिवार को अपार कष्ट उठाने पड़ रहे थे। राणा को बस एक ही चिन्ता थी कि किस प्रकार फिर से सेना जुटाएँ,जिससे अपने देश को मुगल आक्रमणकारियों से चंगुल से मुक्त करा सके। इस समय राणा के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या धन की थी। उनके साथ जो विश्वस्त सैनिक थे, उन्हें भी काफी समय से वेतन नहीं मिला था। कुछ लोगों ने राणा को आत्मसमर्पण करने की सलाह दी; पर राणा जैसे देशभक्त एवं स्वाभिमानी को यह स्वीकार नहीं था। भामाशाह को जब राणा प्रताप के इन कष्टों का पता लगा, तो उनका मन भर आया। उनके पास स्वयं का तथा पुरखों का कमाया हुआ अपार धन था। उन्होंने यह सब राणा के चरणों में अर्पित कर दिया। इतिहासकारों के अनुसार उन्होंने 25 लाख रु. तथा 20,000 अशर्फी राणा को दीं। राणा ने आँखों में आँसू भरकर भामाशाह को गले से लगा लिया। राणा की पत्नी महारानी अजवान्दे ने भामाशाह को पत्र लिखकर इस सहयोग के लिए कृतज्ञता व्यक्त की। इस पर भामाशाह रानी जी के सम्मुख उपस्थित हो गये और नम्रता से कहा कि मैंने तो अपना कर्त्तव्य निभाया है। यह सब धन मैंने देश से ही कमाया है। यदि यह देश की रक्षा में लग जाये, तो यह मेरा और मेरे परिवार का अहोभाग्य ही होगा। महारानी यह सुनकर क्या कहतीं, उन्होंने भामाशाह के त्याग के सम्मुख सिर झुका दिया। उधर जब अकबर को यह घटना पता लगी, तो वह भड़क गया। वह सोच रहा था कि सेना के अभाव में राणा प्रताप उसके सामने झुक जायेंगे; पर इस धन से राणा को नयी शक्ति मिल गयी। अकबर ने क्रोधित होकर भामाशाह को पकड़ लाने को कहा। अकबर को उसके कई साथियों ने समझाया कि एक व्यापारी पर हमला करना उसे शोभा नहीं देता। इस पर उसने भामाशाह को कहलवाया कि वह उसके दरबार में मनचाहा पद ले ले और राणा प्रताप को छोड़ दे; पर दानवीर भामाशाह ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। इतना ही नहीं उन्होंने अकबर से युद्ध की तैयारी भी कर ली। यह समाचार मिलने पर अकबर ने अपना विचार बदल दिया। भामाशाह से प्राप्त धन के सहयोग से राणा प्रताप ने नयी सेना बनाकर अपने क्षेत्र को मुक्त करा लिया। भामाशाह जीवन भर राणा की सेवा में लगे रहे। महाराणा के देहान्त के बाद उन्होंने उनके पुत्र अमरसिंह के राजतिलक में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। इतना ही नहीं, जब उनका अन्त समय निकट आया, तो उन्होंने अपने पुत्र को आदेश दिया कि वह अमरसिंह के साथ सदा वैसा ही व्यवहार करे, जैसा उन्होंने राणा प्रताप के साथ किया है।

डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी

23 जून/बलिदान-दिवस डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का बलिदान छह जुलाई, 1901 को कोलकाता में श्री आशुतोष मुखर्जी एवं योगमाया देवी के घर में जन्मे डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को दो कारणों से सदा याद किया जाता है। पहला तो यह कि वे योग्य पिता के योग्य पुत्र थे। श्री आशुतोष मुखर्जी कलकत्ता विश्वविद्यालय के संस्थापक उपकुलपति थे।1924 में उनके देहान्त के बाद केवल 23 वर्ष की अवस्था में ही श्यामाप्रसाद को विश्वविद्यालय की प्रबन्ध समिति में ले लिया गया। 33 वर्ष की छोटी अवस्था में ही उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति की उस कुर्सी पर बैठने का गौरव मिला, जिसे किसी समय उनके पिता ने विभूषित किया था। चार वर्ष के अपने कार्यकाल में उन्होंने विश्वविद्यालय को चहुँमुखी प्रगति के पथ पर अग्रसर किया। दूसरे जिस कारण से डा. मुखर्जी को याद किया जाता है, वह है जम्मू कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय की माँग को लेकर उनके द्वारा किया गया सत्याग्रह एवं बलिदान। 1947 में भारत की स्वतन्त्रता के बाद गृहमन्त्री सरदार पटेल के प्रयास से सभी देसी रियासतों का भारत में पूर्ण विलय हो गया; पर प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू के व्यक्तिगत हस्तक्षेप के कारण जम्मू कश्मीर का विलय पूर्ण नहीं हो पाया। उन्होंने वहाँ के शासक राजा हरिसिंह को हटाकर शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंप दी। शेख जम्मू कश्मीर को स्वतन्त्र बनाये रखने या पाकिस्तान में मिलाने के षड्यन्त्र में लगा था। शेख ने जम्मू कश्मीर में आने वाले हर भारतीय को अनुमति पत्र लेना अनिवार्य कर दिया। 1953 में प्रजा परिषद तथा भारतीय जनसंघ ने इसके विरोध में सत्याग्रह किया। नेहरू तथा शेख ने पूरी ताकत से इस आन्दोलन को कुचलना चाहा; पर वे विफल रहे। पूरे देश में यह नारा गूँज उठा - एक देश में दो प्रधान, दो विधान, दो निशान: नहीं चलेंगे। डा. मुखर्जी जनसंघ के अध्यक्ष थे। वे सत्याग्रह करते हुए बिना अनुमति जम्मू कश्मीर में गये। इस पर शेख अब्दुल्ला ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। 20 जून को उनकी तबियत खराब होने पर उन्हें कुछ ऐसी दवाएँ दी गयीं, जिससे उनका स्वास्थ्य और बिगड़ गया। 22 जून को उन्हें अस्पताल में भरती किया गया। उनके साथ जो लोग थे, उन्हें भी साथ नहीं जाने दिया गया। रात में ही अस्पताल में ढाई बजे रहस्यमयी परिस्थिति में उनका देहान्त हुआ। मृत्यु के बाद भी शासन ने उन्हें उचित सम्मान नहीं दिया। उनके शव को वायुसेना के विमान से दिल्ली ले जाने की योजना बनी; पर दिल्ली का वातावरण गरम देखकर शासन ने विमान को अम्बाला और जालन्धर होते हुए कोलकाता भेज दिया। कोलकाता में दमदम हवाई अड्डे से रात्रि 9.30 बजे चलकर पन्द्रह कि.मी दूर उनके घर तक पहुँचने में सुबह के पाँच बज गये। 24 जून को दिन में ग्यारह बजे शुरू हुई शवयात्रा तीन बजे शमशान पहुँची। हजारों लोगों ने उनके अन्तिम दर्शन किये। आश्चर्य की बात तो यह है कि डा. मुखर्जी तथा उनके साथी शिक्षित तथा अनुभवी लोग थे; पर पूछने पर भी उन्हें दवाओं के बारे में नहीं बताया गया। उनकी मृत्यु जिन सन्देहास्पद स्थितियों में हुई तथा बाद में उसकी जाँच न करते हुए मामले पर लीपापोती की गयी, उससे इस आशंका की पुष्टि होती है कि यह नेहरू और शेख अब्दुल्ला द्वारा करायी गयी चिकित्सकीय हत्या थी। डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अपने बलिदान से जम्मू-कश्मीर को बचा लिया। अन्यथा शेख अब्दुल्ला उसे पाकिस्तान में मिला देता।

बंकिमचन्द्र चटर्जी

26 जून/जन्म-दिवस वन्देमातरम् के गायक:-बंकिमचन्द्र चटर्जी भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में वन्देमातरम् नामक जिस महामन्त्र ने उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक जन-जन को उद्वेलित किया, उसके रचियता बंकिमचन्द्र चटर्जी का जन्म ग्राम काँतलपाड़ा, जिला हुगली,पश्चिम बंगाल में 26 जून, 1838 को हुआ था। प्राथमिक शिक्षा हुगली में पूर्ण कर उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के प्रेसीडेंसी कालिज से उच्च शिक्षा प्राप्त की। पढ़ाई के साथ-साथ छात्र जीवन से ही उनकी रुचि साहित्य के प्रति भी थी। शिक्षा पूर्ण कर उन्होंने प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी और उसमें उत्तीर्ण होकर वे डिप्टी कलेक्टर बन गये। इस सेवा में आने वाले वे प्रथम भारतीय थे। नौकरी के दौरान ही उन्होंने लिखना प्रारम्भ किया। पहले वे अंग्रेजी में लिखते थे। उनका अंग्रेजी उपन्यास ‘राजमोहन्स वाइफ’ भी खूब लोकप्रिय हुआ; पर आगे चलकर वे अपनी मातृभाषा बंगला में लिखने लगे। 1864 में उनका पहला बंगला उपन्यास ‘दुर्गेश नन्दिनी’ प्रकाशित हुआ। यह इतना लोकप्रिय हुआ कि इसके पात्रों के नाम पर बंगाल में लोग अपने बच्चों के नाम रखने लगे। इसके बाद 1866 में ‘कपाल कुण्डला’ और 1869 में ‘मृणालिनी’ उपन्यास प्रकाशित हुए। 1872 में उन्होंने ‘बंग दर्शन’ नामक पत्र का सम्पादन भी किया; पर उन्हें अमर स्थान दिलाया ‘आनन्द मठ’ नामक उपन्यास ने, जो 1882 में प्रकाशित हुआ। आनन्द मठ में देश को मातृभूमि मानकर उसकी पूजा करने और उसके लिए तन-मन और धन समर्पित करने वाले युवकों की कथा थी, जो स्वयं को ‘सन्तान’ कहते थे। इसी उपन्यास में वन्देमातरम् गीत भी समाहित था। इसे गाते हुए वे युवक मातृभूमि के लिए मर मिटते थे। जब यह उपन्यास बाजार में आया, तो वह जन-जन का कण्ठहार बन गया। इसने लोगों के मन में देश के लिए मर मिटने की भावना भर दी। वन्देमातरम् सबकी जिह्ना पर चढ़ गया। 1906 में अंग्रेजों ने बंगाल को हिन्दू तथा मुस्लिम आधार पर दो भागों में बाँटने का षड्यन्त्र रचा। इसकी भनक मिलते ही लोगों में क्रोध की लहर दौड़ गयी। 7 अगस्त, 1906 को कोलकाता के टाउन हाल में एक विशाल सभा हुई, जिसमें पहली बार यह गीत गाया गया। इसके एक माह बाद 7 सितम्बर को वाराणसी के कांग्रेस अधिवेशन में भी इसे गाया गया। इससे इसकी गूँज पूरे देश में फैल गयी। फिर क्या था, स्वतन्त्रता के लिए होने वाली हर सभा, गोष्ठी और आन्दोलन में वन्देमातरम् का नाद होने लगा। यह देखकर शासन के कान खड़े हो गये। उसने आनन्द मठ और वन्देमातरम् गान पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इसे गाने वालों को सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे जाते थे; लेकिन प्रतिबन्धों से भला भावनाओं का ज्वार कभी रुक सका है ? अब इसकी गूँज भारत की सीमा पारकर विदेशों में पहुँच गयी। क्रान्तिवीरों के लिए यह उपन्यास गीता तथा वन्देमातरम् महामन्त्र बन गया। वे फाँसी पर चढ़ते समय यही गीत गाते थे। इस प्रकार इस गीत ने भारत के स्वाधीनता संग्राम में अतुलनीय योगदान दिया। बंकिम के प्रायः सभी उपन्यासों में देश और धर्म के संरक्षण पर बल रहता था। उन्होंने विभिन्न विषयों पर लेख, निबन्ध और व्यंग्य भी लिखे। इससे बंगला साहित्य की शैली में आमूल चूल परिवर्तन हुआ। 8 अपै्रल, 1894 को उनका देहान्त हो गया। स्वतन्त्रता मिलने पर वन्देमातरम् को राष्ट्रगान के समतुल्य मानकर राष्ट्रगीत का सम्मान दिया गया।

महाराजा रणजीत सिंह

27 जून/पुण्यतिथि महाराजा रणजीत सिंह महाराजा रणजीत सिंह शेर-ए पंजाब के नाम से प्रसिद्ध हैं। महाराजा रणजीत एक ऐसी व्यक्ति थे, जिन्होंने न केवल पंजाब को एक सशक्त सूबे के रूप में एकजुट रखा, बल्कि अपने जीते-जी अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के पास भी नहीं फटकने दिया। महाराजा रणजीत सिंह का जन्म: 13 नवंबर 1780, गुजरांवाला, (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था l बात सन् 1812 की है। पंजाब पर महाराजा रणजीत सिंह का एकछत्र राज्य था। उस समय महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर के सूबेदार अतामोहम्मद के शिकंजे से कश्मीर को मुक्त कराने का अभियान शुरू किया था। इस अभियान से भयभीत होकर अतामोहम्मद कश्मीर छोड़कर भाग गया। कश्मीर अभियान के पीछे एक अन्य कारण भी था। अतामोहम्मद ने महमूद शाह द्वारा पराजित शाहशुजा को शेरगढ़ के किले में कैद कर रखा था। उसे कैदखाने से मुक्त कराने के लिए उसकी बेगम वफा बेगम ने लाहौर आकर महाराजा रणजीत सिंह से प्रार्थना की और कहा कि मेहरबानी कर आप मेरे पति को अतामोहम्मद की कैद से रिहा करवा दें, इस अहसान के बदले बेशकीमती कोहिनूर हीरा आपको भेंट कर दूंगी। शाहशुजा के कैद हो जाने के बाद वफा बेगम ही उन दिनों अफगानिस्तान की शासिका थी। इसी कोहिनूर को हड़पने के लालच में भारत पर आक्रमण करने वाले अहमद शाह अब्दाली के पौत्र जमान शाह को स्वयं उसी के भाई महमूद शाह ने कैदखाने में भयंकर यातनाएं देकर उसकी आंखें निकलवा ली थीं। जमान शाह अहमद शाह अब्दाली के बेटे तैमूर शाह का बेटा था, जिसका भाई था महमूद शाह। अस्तु, महाराजा रणजीति सिंह स्वयं चाहते थे कि वे कश्मीर को अतामोहम्मद से मुक्त करवाएं। अत: सुयोग आने पर महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर को आजाद करा लिया। उनके दीवान मोहकमचंद ने शेरगढ़ के किले को घेर कर वफा बेगम के पति शाहशुजा को रिहा कर वफा बेगम के पास लाहौर पहुंचा दिया। राजकुमार खड्गसिंह ने उन्हें मुबारक हवेली में ठहराया। पर वफा बेगम अपने वादे के अनुसार कोहिनूर हीरा महाराजा रणजीत सिंह को भेंट करने में विलम्ब करती रही। यहां तक कि कई महीने बीत गए। जब महाराजा ने शाहशुजा से कोहिनूर हीरे के बारे में पूछा तो वह और उसकी बेगम दोनों ही बहाने बनाने लगे। जब ज्यादा जोर दिया गया तो उन्होंने एक नकली हीरा महाराजा रणजीत सिंह को सौंप दिया, जो जौहरियों के परीक्षण की कसौटी पर नकली साबित हुआ। रणजीत सिंह क्रोध से भर उठे और मुबारक हवेली घेर ली गई। दो दिन तक वहां खाना नहीं दिया गया। वर्ष 1813 की पहली जून थी जब महाराजा रणजीत सिंह शाहशुजा के पास आए और फिर कोहिनूर के विषय में पूछा। धूर्त शाहशुजा ने कोहिनूर अपनी पगड़ी में छिपा रखा था। किसी तरह महाराजा को इसका पता चल गया। अत: उन्होंने शाहशुजा को काबुल की राजगद्दी दिलाने के लिए "गुरुग्रंथ साहब" पर हाथ रखकर प्रतिज्ञा की। फिर उसे "पगड़ी-बदल भाई" बनाने के लिए उससे पगड़ी बदल कर कोहिनूर प्राप्त कर लिया। पर्दे की ओट में बैठी वफा बेगम महाराजा की चतुराई समझ गईं। अब कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह के पास पहुंच गया था और वे संतुष्ट थे कि उन्होंने कश्मीर को आजाद करा लिया था। उनकी इच्छा थी कि वे कोहिनूर हीरे को जगन्नाथपुरी के मंदिर में प्रतिष्ठित भगवान जगन्नाथ को अर्पित करें। हिन्दू मंदिरों को मनों सोना भेंट करने के लिए वे प्रसिद्ध थे। काशी के विश्वनाथ मंदिर में भी उन्होंने अकूत सोना अर्पित किया था। परन्तु जगन्नाथ भगवान (पुरी) तक पहुंचने की उनकी इच्छा कोषाध्यक्ष बेलीराम की कुनीति के कारण पूरी न हो सकी। महाराजा रणजीतसिंह अस्वस्थ हो रहे थे। 1838 में लकवा का आक्रमण हुआ, यद्यपि उपचार किया गया और अंग्रेज डाक्टरों ने भी इलाज किया, लेकिन 27 जून 1839 ई. को उनका प्राणांत हो गया।

ब्राह्मणों की वंशावली-

ब्राह्मणों की वंशावली भविष्य_पुराण के अनुसार #ब्राह्मणों का इतिहास है की प्राचीन काल में #महर्षि_कश्यप के पुत्र #कण्वय की #आर्यावनी नाम की देव कन्या पत्नी हुई। ब्रम्हा की आज्ञा से दोनों कुरुक्षेत्र वासनी सरस्वती नदी के तट पर गये और कण् व चतुर्वेदमय सूक्तों में सरस्वती देवी की स्तुति करने लगे एक वर्ष बीत जाने पर वह देवी प्रसन्न हो वहां आयीं और ब्राम्हणो की समृद्धि के लिये उन्हें वरदान दिया । वर के प्रभाव कण्वय के आर्य बुद्धिवाले दस पुत्र हुए जिनका क्रमानुसार नाम था - १. उपाध्याय २. दीक्षित ३. पाठक ४. शुक्ला ५. मिश्रा ६. अग्निहोत्री ७. दुबे ८. तिवारी ९. पाण्डेय १०. चतुर्वेदी इन लोगो का जैसा नाम था वैसा ही गुण। इन लोगो ने नत मस्तक हो #सरस्वती देवी को प्रसन्न किया। बारह वर्ष की अवस्था वाले उन लोगो को #भक्तवत्सला शारदा देवी ने अपनी कन्याए प्रदान की। वे क्रमशः १. उपाध्यायी २. दीक्षिता ३. पाठकी ४. शुक्लिका ५. मिश्राणी ६. अग्निहोत्रिधी ७. द्विवेदिनी ८. तिवेदिनी ९. पाण्ड्यायनी १०. चतुर्वेदिनी फिर उन कन्याआं के भी अपने-अपने पति से सोलह-सोलह पुत्र हुए हैं वे सब गोत्रकार हुए जिनका नाम - १. कष्यप २. भरद्वाज ३. विश्वामित्र ४. गौतम ५. जमदग्रि ६. वसिष्ठ ७. वत्स ८. गौतम ९. पराशर १०. गर्ग ११. अत्रि १२. भृगडत्र १३. अंगिरा १४. श्रंगी १५. कात्याय १६. याज्ञवल्क्य इन नामो से सोलह-सोलह पुत्र जाने जाते हैं मुख्य 10 प्रकार ब्राम्हणों ये हैं- (1) तैलंगा, (2) महार्राष्ट्रा, (3) गुर्जर, (4) द्रविड, (5) कर्णटिका, यह पांच "द्रविण" कहे जाते हैं, ये विन्ध्यांचल के दक्षिण में पाये जाते हैं तथा विंध्यांचल के उत्तर में पाये जाने वाले या वास करने वाले ब्राम्हण (1) सारस्वत, (2) कान्यकुब्ज, (3) गौड़, (4) मैथिल, (5) उत्कलये, उत्तर के पंच गौड़ कहे जाते हैं। वैसे ब्राम्हण अनेक हैं जिनका वर्णन आगे लिखा है। ऐसी संख्या मुख्य 115 की है। शाखा भेद अनेक हैं । इनके अलावा संकर जाति ब्राम्हण अनेक है । यहां मिली जुली उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हणों की नामावली 115 की दे रहा हूं। जो एक से दो और 2 से 5 और 5 से 10 और 10 से 84 भेद हुए हैं,फिर उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हण की संख्या शाखा भेद से 230 के लगभग है तथा और भी शाखा भेद हुए हैं, जो लगभग 300 के करीब ब्राम्हण भेदों की संख्या का लेखा पाया गया है। उत्तर व दक्षिणी ब्राम्हणां के भेद इस प्रकार है 81 ब्राम्हाणां की 31 शाखा कुल 115 ब्राम्हण संख्या, मुख्य है - (1) गौड़ ब्राम्हण, (2)गुजरगौड़ ब्राम्हण (मारवाड,मालवा) (3) श्री गौड़ ब्राम्हण, (4) गंगापुत्र गौडत्र ब्राम्हण, (5) हरियाणा गौड़ ब्राम्हण, (6) वशिष्ठ गौड़ ब्राम्हण, (7) शोरथ गौड ब्राम्हण, (8) दालभ्य गौड़ ब्राम्हण, (9) सुखसेन गौड़ ब्राम्हण, (10) भटनागर गौड़ ब्राम्हण, (11) सूरजध्वज गौड ब्राम्हण(षोभर), (12) मथुरा के चौबे ब्राम्हण, (13) वाल्मीकि ब्राम्हण, (14) रायकवाल ब्राम्हण, (15) गोमित्र ब्राम्हण, (16) दायमा ब्राम्हण, (17) सारस्वत ब्राम्हण, (18) मैथल ब्राम्हण, (19) कान्यकुब्ज ब्राम्हण, (20) उत्कल ब्राम्हण, (21) सरयुपारी ब्राम्हण, (22) पराशर ब्राम्हण, (23) सनोडिया या सनाड्य, (24)मित्र गौड़ ब्राम्हण, (25) कपिल ब्राम्हण, (26) तलाजिये ब्राम्हण, (27) खेटुवे ब्राम्हण, (28) नारदी ब्राम्हण, (29) चन्द्रसर ब्राम्हण, (30)वलादरे ब्राम्हण, (31) गयावाल ब्राम्हण, (32) ओडये ब्राम्हण, (33) आभीर ब्राम्हण, (34) पल्लीवास ब्राम्हण, (35) लेटवास ब्राम्हण, (36) सोमपुरा ब्राम्हण, (37) काबोद सिद्धि ब्राम्हण, (38) नदोर्या ब्राम्हण, (39) भारती ब्राम्हण, (40) पुश्करर्णी ब्राम्हण, (41) गरुड़ गलिया ब्राम्हण, (42) भार्गव ब्राम्हण, (43) नार्मदीय ब्राम्हण, (44) नन्दवाण ब्राम्हण, (45) मैत्रयणी ब्राम्हण, (46) अभिल्ल ब्राम्हण, (47) मध्यान्दिनीय ब्राम्हण, (48) टोलक ब्राम्हण, (49) श्रीमाली ब्राम्हण, (50) पोरवाल बनिये ब्राम्हण, (51) श्रीमाली वैष्य ब्राम्हण (52) तांगड़ ब्राम्हण, (53) सिंध ब्राम्हण, (54) त्रिवेदी म्होड ब्राम्हण, (55) इग्यर्शण ब्राम्हण, (56) धनोजा म्होड ब्राम्हण, (57) गौभुज ब्राम्हण, (58) अट्टालजर ब्राम्हण, (59) मधुकर ब्राम्हण, (60) मंडलपुरवासी ब्राम्हण, (61) खड़ायते ब्राम्हण, (62) बाजरखेड़ा वाल ब्राम्हण, (63) भीतरखेड़ा वाल ब्राम्हण, (64) लाढवनिये ब्राम्हण, (65) झारोला ब्राम्हण, (66) अंतरदेवी ब्राम्हण, (67) गालव ब्राम्हण, (68) गिरनारे ब्राम्हण सभी ब्राह्मण बंधुओ को मेरा नमस्कार बहुत दुर्लभ जानकारी है जरूर पढ़े। और समाज में शेयर करे हम क्या है इस तरह ब्राह्मणों की उत्पत्ति और इतिहास के साथ इनका विस्तार अलग अलग राज्यो में हुआ और ये उस राज्य के ब्राह्मण कहलाये। ब्राह्मण होने पर गर्व करो और अपने कर्म और धर्म का पालन कर सनातन संस्कृति की रक्षा करें। आप ब्राह्मण हैं आप धर्म के प्रथम पायदान पर विराजमान है आपका कर्तव्य बनता है सनातन धर्म तथा संस्कृति की रक्षा हेतु सभी जातियों का परस्पर सहयोग लेकर धर्म को उन्नति की ओर ले कर चलें... आप ब्राह्मण हैं ब्राह्मण होने पर गर्व करें तथा किसी भी जाति का अपमान ना हो यह भी सुनिश्चित करना आपका ही दायित्व है!

Ghazal-140

ग़ज़ल- झूठ को आज ही जो नकारा नहीं, झेल पाओगे कल का नज़ारा नहीं। क़त्ल पर मेरे चुप हैं वो ये सोच कर, आज नम्बर है इसका,हमारा नहीं। रोटियों के लिए सोच बिकने लगें, इससे बदतर तो कोई नज़ारा नहीं। जंग है हक़,वजूदों की ख़ातिर जो हो, और इसके बिना तो गुज़ारा नहीं। तोड़ देना न इस को हँसी खेल में, टूट कर दिल ये जुड़ता दुबारा नहीं। जान दे दूँ मैं दिल तो ये है चीज़ क्या, आपने प्यार से बस निहारा नहीं। वक़्त देता नहीं है मुआफ़ी उसे, भूल को जिसने अपनी सुधारा नहीं। 'Maahir'

Ghazal-139

ग़ज़ल- सब विषयों का स्रोत-विषय दर्शन होता है। जिसमें जड़-चेतन पर ही मंथन होता है। सबको उनकी ही तस्वीरें दिखलाता है। योगी सा निर्लिप्त यहाँ,दर्पण होता है। बाग़-बग़ीचे शहरों के आकर्षित करते। लेकिन सबको प्यारा मन-कानन होता है। आसान मगर मुश्किल भी है,सोचो कितना, बह्म ज्ञान के जैसा ही जीवन होता है। इसको काबू में कर के ही, कुछ कर पाते, अच्छा सेवक,ओछा मालिक मन होता है। आपसदारी सहज भाव है जनजीवन का, कण-कण में स्वाभाविक आकर्षण होता है। दर्पण-सा कुछ काम किया करते ये भी तो, चेहरों पर भावों का कुछ मंचन होता है। 'Paavan'

Ghazal-138

ग़ज़ल- आदमी को ये क्या हुआ यारो, रोग को मानता दवा यारो। जो है सबका उसे भी दुनिया में, कर रहे सब से हम जुदा यारो। जो नहीं हो सकी थी दिल से,वो, कैसे करती असर दुआ यारो। इश्क़ का रोग लग गया तब तो, काम करती कहाँ दवा यारो। आज मासूमियत को ढूँढा जब, आइना देख के डरा यारो। ज़िन्दगी कैसे मुझको जीनी है, दो न अब इस पे मशविरा यारो। कामयाबी में आज 'मा ज़ ह र' की, उसकी चाहत का है नशा यारो।

P.C.Mahalnobis (Scientist)

प्रशान्त चन्द्र महालनोबिस प्रशान्त चन्द्र महालनोबिस प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक एवं सांख्यिकीविद थे। प्रशांत चंद्र महालनोबिस का जन्म कोलकाता के 210 कार्नवालिस स्ट्रीट स्थित उनके पैतृक आवास में 29 जून, 1893 को हुआ था। उनके पिता का नाम प्रबोध चंद्र महालनोबिस उनकी माता निरोदबसिनी का संबंध बंगाल के पढ़े-लिखे कुल से था। उन्हें पॉप्युलेशन स्टडीज की सांख्यिकी माप महालनोबिस डिस्टेंस देने के लिए जाना जाता है। साथ ही वह स्वतंत्र भारत के पहले योजना आयोग के सदस्य भी थे। महालनोबिस ने इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टिट्यूट की नींव रखी और बड़े पैमाने पर सैंपल सर्वे को तैयार करने में भी योगदान दिया। उनके इस योगदान के चलते उन्हें भारत में मॉडर्न स्टैटिस्टिक्स का पिता माना जाता है। प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें स्वतंत्रता के बाद नवगठित केंद्रीय मंत्रिमंडल का सांख्यिकी सलाहकार भी नियुक्त किया था। सरकार ने महालनोबिस के विचारों का उपयोग करके कृषि और बाढ़ नियंत्रण के क्षेत्र में कई अभिनव प्रयोग किए। उनके द्वारा सुझाए गए बाढ़ नियंत्रण के उपायों पर अमल करते हुए सरकार को इस दिशा में अप्रत्याशित सफलता मिली। स्वतंत्र भारत में औद्योगिक उत्पादन की बढ़ोतरी तथा बेरोजगारी दूर करने के प्रयासों को सफल बनाने के लिए महालनोबिस ने ही योजना तैयार की थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में राष्ट्रीय आय का अनुमान लगाने के उद्देश्य के लिए वर्ष 1949 में महालनोबिस की अध्यक्षता में ही एक 'राष्ट्रीय आय समिति' का गठन किया गया था। जब आर्थिक विकास को गति देने के लिए योजना आयोग का गठन किया गया तो उन्हें इसका सदस्य बनाया गया। महालनोबिस चाहते थे कि सांख्यिकी का उपयोग देशहित में हो। उन्होंने देश को आंकड़ा संग्रहण की जानकारी दी। साथ ही भारत सरकार की दूसरी पंचवर्षीय योजना का मसौदा तैयार करने में उन्होंने अपनी अहम भूमिका निभाई। पीसी महालनोबिस बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। एक वैज्ञानिक होने के साथ ही साहित्य में भी उनकी जबरदस्त रुचि थी। उन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर की कृतियों पर अनेक लेख लिखे थे। शांति निकेतन में रहकर महालनोबिस ने टैगोर के साथ करीब 2 महीने का समय बिताया। इस दौरान टैगोर ने उन्हें आश्रमिका संघ का सदस्य बना दिया। बाद में जब टैगोर ने 'विश्व भारती' की स्थापना की, तो महालनोबिस को संस्थान का सचिव भी नियुक्त किया। महालनोबिस ने गुरुदेव के साथ कई देशों की यात्राएं भी कीं और कई महत्वपूर्ण दस्तावेज भी लिखे। वास्तुकला में भी उनकी रुचि थी। महालनोबिस को सम्मान : - सन 1944 में प्रशान्त चन्द्र महालनोबिस को ‘वेलडन मेडल’ पुरस्कार दिया गया। - सन 1945 में लन्दन की रॉयल सोसायटी ने उन्हें अपना फेलो नियुक्त किया। - सन 1950 में उन्हें ‘इंडियन साइंस कांग्रेस’ का अध्यक्ष चुना गया। - अमेरिका के ‘एकोनोमेट्रिक सोसाइटी’ का फेलो नियुक्त किया गया। - सन 1952 में पाकिस्तान सांख्यिकी संस्थान का फेलो बनाया गया। - सन 1957 में उन्हें देवी प्रसाद सर्वाधिकार स्वर्ण पदक दिया गया। - सन 1959 में उन्हें किंग्स कॉलेज का मानद फेलो नियुक्त किया गया। - 1957 में अंतर्राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान का ऑनररी अध्यक्ष बनाया गया। भारत सरकार ने 1968 में महालनोबिस को देश के दूसरे सर्वोच्च सम्मान ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया। 1968 में उन्हें श्रीनिवास रामानुजम स्वर्ण पदक दिया गया। 28 जून 1972 को प्रो. प्रशांत चंद्र महालनोबिस का निधन हो गया।

Ghazal-137

ग़ज़ल- आइने को रू ब रू कर, फिर किसी की आरजू कर। कोस मत दुनिया को हरदम, जो न हो पाया,वो तू कर, सोच में इंसानियत रख, मुक्त हिंसा से तू भू कर। की है मक्कारी किसी ने, छत कहे वो आज चू कर। अनुभवों से सत्य मिलता, जो सही लगता वो तू कर। आदमी रहना जो चाहे, आदमी की आबरू कर। लोग तब दिल से सुनेंगे, पहले ख़ुद से गुफ़्तगू कर। मिल चुके धागे-सुई जब, ख़ुद से जीवन को रफ़ू कर। लग रहे तुझको जो अच्छे, काम वो तो, हू-ब-हू कर। लक्ष्य पाएगा यकीं रख, काम करना तो शुरू कर।

Ghazal-136

एक ग़ज़ल- मुझे तो यारो यही लगा है, कि ज़र्रे-ज़र्रे में राब्ता है। ज़र्रा=सबसे छोटा कण जो दिख सकता है, राब्ता=सम्बन्ध जो कर चुका ज़िन्दगी में अब तक, मुझे तो उससे सिवा मिला है। सिवा=अतिरिक्त न कुछ किया तो बिखरता है घर, सँवारने से है सँवर सका है। मेरी जो छवि दिख रही है उस पर, मेरे सुखन का असर रहा है। सुखन=साहित्य जो दिक्कतें कुछ हुईं हैं उनकी, वजह में मेरा अहं रहा है। हर एक ज़र्रे में नूर जिसका, उसे ही मैंने ख़ुदा कहा है। नूर= प्रकाश हुए जो सुख-दुख के ख़ास अनुभव, ग़ज़ल में उनको पिरो दिया है। 'Maahir'

Ghazal-135

मुख़्तसर बात कर और इतना बता, साबित आख़िर तुझे यार!करना है क्या?/1 दोस्ती था,मुहब्बत था या था जुनूं, तर्क जो हो गया वो था क्या राब्ता!/2 दिल में जो दर्द है,बेशक बेदर्द है, डर है मुझको न कर दे कहीं ये फ़ना/3 पोंछ पाया नहीं उसके आंसू मैं तब. जब खड़ी कठघरे में थी मेरी वफ़ा/4 जुड़ता दिल तो जुदा तुझसे कर देता मैं, तुझसे तो जुड़ चुकी है मेरी आत्मा/5 तेरी मूरत को सजदे किए थे जहां, कैसे तोडूं बता अब मैं वो बुतकदा/6 दिन वो अच्छे थे जब हम ज़रा दूर थे, क़ुर्बतें क्या बढ़ीं हो गया फ़ासला/7 पास आना सबब दूरियों का सही, फिर भी कहता है दिल पास आ पास आ/8 चांद के पहलू में कल सितारा था जो, गर्दिश-ए-वक्त में वो कहीं खो गया/9 छू के हंसती थी दोनों की नज़रें जिसे, तेरे बिन अब रुलाता है वो चन्द्रमा/10 थाम कर हाथ तेरा थी जिस पर चला, अब चिढ़ाता है मुझको वही रास्ता/11 क्या कहूं?पूछता है चमन मुझसे जब, क्यूं हो तन्हा?कहां है तेरा बेलिया?/12 मैंने पतवार ख़ामोशी की थाम ली, दिल में जब शोर का इक तलातुम उठा/13 दर्द-ए-दिल जाते जाते ही जाएगा अब, 'माहीर'सीख ले सहना और मुस्कुरा/14 'माहीर'

Ghazal-134

चूल्हा चौका गोबर से लीपा जाता था, चौके में ही बैठ भोजन किया जाता था। फूँकनी से फूंक मार,था चुल्हा जलता, माँ के हाथों से उस पर खाना बनता था। पटरी पर बैठ माँ के सभी काम पूरे होते थे, कपड़े धोने तक सभी काम पटरी पर होते थे। घुटती दाल पतीली में,उबाल निकाला जाता, रोटी सेंकने को कोयले चिमटे से करने होते थे। वह स्वाद दाल का आज तलक भी याद हमें है, गन्ने के रस की खीर का वो स्वाद, याद हमें है। फूली और करारी रोटी,ताज़ा मक्खन रखकर, साग चने का घुटा हुआ मक्का रोटी,याद हमें है। सोच रहा हूँ फिर से बचपन पा जाँऊ, चूल्हे सम्मुख बैठ कर रोटी फिर खाऊँ। ताजा मट्ठा साथ में मक्खन दाल उरद की, एक और रोटी की ज़िद,माँ का प्यार पाऊँ 'Maahir'

Ghazal-133

ग़ज़ल- बस 'इफ''बट'में ही दिन गँँवाया न कर, तेरा जो तजुर्बा है,जाया न कर। बहुत झूठ बोले,न सच मर सका, हक़ीक़त से नज़रें चुराया न कर। उन्हें तेरी तकलीफ़ देती है सुख, लगे चोट तो तड़फड़ाया न कर। हुई ज़िंदगी जुर्रतों से शुरू, इसे सोच में ही गँवाया न कर। कभी दिल जो टूटा जुड़ेगा नहीं, हसीं ख़्वाब'यूँ ही'दिखाया न कर। सियासत में बातों के मतलब कहाँ? , ये झांसे हैं झांसों में आया न कर! 'गिनीपिग' न मुझको समझ दोस्त अब, किया जो न ख़ुद वो सुझाया न कर। ज़हां के ग़मों से नज़र फेर कर, मुहब्बत की ग़ज़लें ही गाया न कर। 'Maahir'

Ghazal-132

प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- आसमां का जो बहुत,गुणगान करते रह गए, वो धरा का दोस्तो,नुक्सान करते रह गए। फ़र्ज़ जो दिल से निभाता है,उपेक्षित रह गया, मुजरिमों का किन्तु वो सम्मान करते रह गए। तात्कालिक मौज़मस्ती से न जो ऊपर उठे, वो ज़मा बस कष्ट के सामान करते रह गए। चाह थी अमृत की उनको,स्वार्थ के कारण मगर, ज़िन्दगी भर वो महज विषपान करते रह गए। देश कुछ अपनी,समझदारी से उन्नति कर सके, और कुछ इंसान को हलकान करते रह गए। ग़लतियों से सीख लेकर,लोग कुछ आगे बढ़े, शेष बस सत्कर्म का अभियान करते रह गए। शानो-शौकत काल्पनिक जो थी वो उसके फेर में, आदमीयत का बहुत नुक्सान करते रह गए। 'Maahir'

Tarhi Mushaira.Ghazal

ग़ज़ल: ----- बस मेरी इस ज़िंदगी में इक यही चक्कर हुआ मैं जहाँ पैदा हुआ उस जा न मेरा घर हुआ //1 मुझसे बढ़कर कौन बेचारा था राह-ए-इश्क़ में तुझसे बढ़कर कौन उल्फ़त में सितम-परवर हुआ //2 और तो बस दोज़ख़-ए-दुन्या में ही क़ाएम रहे उसको ही जन्नत मिली तू मेहरबाँ जिस पर हुआ //3 हिंदी उर्दू में यही इक फ़र्क़ है, लफ़्ज़ों का, बस आँख उसकी नम हुई और मेरा दीदा तर हुआ //4 उम्र की मत धौंस दे तू, सबको ये मालूम है आदमी के जन्म से पहले यहाँ बंदर हुआ //5 सुख मिला या दुख मिला, ख़ुशियाँ मिलीं या ग़म मिले ज़िंदगी में जो हुआ, जैसा हुआ, बेहतर हुआ //6 गाँव के ही कुछ भले सज्जन ने आकर की मदद जब कभी भी हाईवे पर ट्रक मेरा पंचर हुआ //7 'राज़'इक मिस्कीन कुनबे में हुआ मेरा जनम तंगहाली और दुखों से सामना मेरा शब्दार्थ- --------- जा- जगह राह-ए-इश्क़ में- प्रेम की राह में उल्फ़त- वह मनोवृत्ति जो किसी को बहुत अच्छा समझकर सदा उसके साथ या पास रहने की प्रेरणा देती है, दोस्तों या मित्रों में होने वाला पारस्परिक संबंध, प्यार, प्रेम, स्नेह, मोहब्बत, चाहत सितम-परवर- ज़ालिम, अन्यायी, सितम करने वाला दोज़ख़-ए-दुन्या- संसार रूपी नरक क़ाएम- किसी नियत स्थान पर टिका या ठहरा हुआ, अपनी जगह पर रहना, दृढ़, मजबूत, पायदार, स्थायी, टिकाऊ, बरक़रार, जो स्थापित हो, स्थिर, यथावत, शेष मेरा दीदा तर हुआ- मेरी आँख नम हुई मिस्कीन- दरिद्र, निर्धन, ग़रीब, मुहताज, बेचारा, परेशान हाल, आधीन, कंगाल, सीधा साधा, लाचार, भोला, विनम्र कुनबा- एक घर के लोग या एक ही कर्ता के अधीन या संरक्षण में रहने वाले लोग, परिवार, घराना, ख़ानदान मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल ------------------ क़तरा-ए-मय बस-कि हैरत से नफ़स-परवर हुआ ख़त्त-ए-जाम-ए-मै सरासर रिश्ता-ए-गौहर हुआ //1 ए'तिबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना ग़ैर ने की आह लेकिन वो ख़फ़ा मुझ पर हुआ //2 गरमी-ए-दौलत हुइ आतिश-ज़न-ए-नाम-ए-निको ख़ाना-ए-ख़ातिम में याक़ूत-ए-नगीं अख़्तर हुआ //3 नश्शा में गुम-कर्दा-राह आया वो मस्त-ए-फ़ित्ना-ख़ू आज रंग-रफ़्ता दौर-ए-गर्दिश-ए-साग़र हुआ //4 दर्द से दर-पर्दा दी मिज़्गाँ-सियाहाँ ने शिकस्त रेज़ा रेज़ा उस्तुख़्वाँ का पोस्त में नश्तर हुआ //5 ज़ोहद गरदीदन है गर्द-ए-ख़ाना-हा-ए-मुनइमाँ दाना-ए-तस्बीह से मैं मोहरा-दर-शश्दर हुआ //6 ऐ ब-ज़ब्त-ए-हाल-ए-ना-अफ़्सुर्दागाँ जोश-ए-जुनूँ नश्शा-ए-मय है अगर यक-पर्दा नाज़ुक-तर हुआ //7 इस चमन में रेशा-दारी जिस ने सर खेंचा 'असद' तर ज़बान-ए-लुत्फ़-ए-आम-ए-साक़ी-ए-कौसर हुआ //8 मिर्ज़ा ग़ालिब

अष्टावक्र संहिता A-04

अष्टावक्र संहिता अध्याय १: आत्मानुभूति का निर्देश : एको विशुद्धबोधोऽहमिति निश्चय वह्निना । प्रज्वाल्य अज्ञान गहनम् वीतशोक : सुखी भव ॥९॥ ‘मैं हूँ विशुद्ध बोधत्वम् ‘ इस निश्चय की अग्नि में जल तू । गहन अज्ञान से होकर शोक- मुक्त तुरंत सुखी होगा तू ॥९॥ यत्र विश्वमिदम् भाति कल्पित रज्जुसर्पवत् । आनन्दपरमानन्द : स बोधस्त्वम् सुखम् चर ॥१०॥ यहाँ ‘ रस्सी में सर्प के भय सा’ यह विश्व दिखता है सभी । आनन्द-परमानन्द को प्राप्त कर तू मुक्त हो सुख से विचर ॥१०॥ Paavan Teerth

अष्टावक्र संहिता A-03

अष्टावक्र संहिता अध्याय १ : आत्मानुभूति का निर्देश एको द्रष्टासि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा । अयमेव हि ते बन्धो द्रष्टारं पश्यसि इतरम् ॥७॥ तू एक द्रष्टा सभी का पर मुक्त सबसे सर्वदा । बंधन तेरा मात्र इतना तू देखता निज को अलग ॥७॥ अहम् कर्ता इति अहम् मानमहाकृष्ण अहि:दंशित : । न अहं कर्तेति विश्वास अमृतम् पीत्वा सुखी भव ॥८॥ ‘कर्ता मैं हूँ ‘ यह समझ कर काले नाग के दंश से तू है डसा ‘मैं नहीं कर्ता ‘ समझकर विश्वास-अमृत पान कर तू हो सुखी ॥८॥ Paavan Teerth

अष्टावक्र संहिता A-02

अष्टावक्र संहिता अध्याय २ : आत्म- अनुभूति का निर्देश न त्वं विप्रादिको वर्णो न आश्रमी न अक्ष गोचर:। असंगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव ॥५ ॥ विप्रादि तेरा वर्ण *क्योंकर आश्रमों** से भिन्न तू है । दृष्टि का विषय न तू है तू नि:संग है , निराकार तू है विश्व-साक्षी रह सुखी हो ॥५॥ ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास । धर्म अधर्मौ सुखं दु:खं मानसानि न ते विभो । न कर्तासि न भोक्तासि मुक्त एवासि सर्वदा ॥६॥ धर्म-अधर्म, सुख- दु:ख मन की क्रिया भर,तेरी न हैं हे विभो । कर्ता नहीं तू, भोक्ता नहीं तू मुक्त तू है सर्वदा ॥६॥ Paavan Teerth

अष्टावक्र संहिता A-01

अष्टावक्र संहिता अध्याय I : आत्म- अनुभूति का निर्देश : अष्टावक्र संहिता शुद्ध अद्वैत को समझने के लिए बीस अध्यायों का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। अभी तक इसके अन्तिम दो और अठारहवें अध्याय के कुछ श्लोकों का भावानुवाद प्रस्तुत किया गया अब ग्रंथ के प्रथम अध्याय से प्रारम्भ करते हैं । यह कृति विदेह राजर्षि जनक और अष्टावक्र ऋषि के संवाद के रूप प्रस्तुत की गई है । जनक उवाच: कथं ज्ञानम् अवाप्नोति कथं मस्तिष्क : भविष्यति । वैराग्यं च कथं प्राप्तम् एतत् ब्रूहि मम प्रभो ॥१॥ कैसे होगा प्राप्त ज्ञान, कैसे होगी मुक्ति । कैसे पाऊँगा विराग हे प्रभो आप कहिये मुझसे ॥१॥ अष्टावक्र उवाच : मुक्तिम् इच्छसि चेत् तात विषयान् विषवत् त्यज । क्षमा, आर्जवम्, दया, संतोष सत्यम् पीयूषवत् भज ॥२॥ तात ! मुक्ति इच्छा तुझे यदि है छोड़ विषयों को विष समान । और क्षमा, आर्जव,दया, संतोष सत्य को तू पीयूष समान जान ॥२॥ Paavan Teerth

अष्टावक्र संहिता -06

अष्टावक्र संहिता अध्याय XIX : आत्म-स्थित क्व दूरं क्व समीपं वा बाह्यं आभ्यन्तरं क्व वा । क्व स्थूलं क्व च वा सूक्ष्मं स्वमहिम्न स्थितस्य मे ॥६॥ कहाँ दूर और पास कहाँ बाहर कहाँ भीतर कहाँ । स्थूल कहाँ अथवा सूक्ष्म कहाँ उसको जो योगसिद्ध होकर बैठा ॥६॥ क्व मृत्यु: जीवितं वा क्व लोका : कास्य क्व लौकिकम् । क्व लय : क्व समाधिर्वा स्वमहिम्न स्थितस्य मे ॥७॥ मृत्यु कहाँ अथवा जीवन कहाँ विभिन्न लोक कहाँ और लौकिक व्यवहार कहाँ । लय भी कहाँ और समाधि भी कहाँ उसको जो योगसिद्ध होकर बैठा ॥७॥ अलं त्रिवर्गकथया योगस्य कथयाप्यलम् । अलं विज्ञानकथया विश्रान्तस्य ममात्मनि ॥८॥ जानो व्यर्थ जीवन की तीनों गति जानो व्यर्थ कथा योग की । विज्ञान की बात भी व्यर्थ जानो उसको रम गया है आत्म में जो ॥८॥ Paavan Teerth

अष्टावक्र संहिता -05

अष्टावक्र संहिता अध्याय XX : जीवन - मुक्ति क्व विक्षेप: क्व च एकाग्रा क्व निर्बोध: क्व मूढता । क्व हर्ष : क्व विषादो वा सर्वदा निष्क्रियस्य मे ॥९॥ भटकाव कहाँ, एकाग्रता कहाँ ज्ञान परिपूर्णता कहाँ, मूढ़ता कहाँ । हर्ष कहाँ , विषाद कहाँ मुझ सर्वदा निष्क्रिय के लिए ॥९॥ क्व च एष व्यवहारो वा क्व च सा परमार्थता । क्व सुखं क्व च वा दु:खं निर्विमर्शस्य मे सदा ॥१०॥ यह व्यवहार किसके लिए और कहाँ वह परमार्थ भी । सुख कहाँ और दु:ख भी कहाँ मुझ सदा विमर्शहीन के लिए ॥१०॥ Paavan Teerth

अष्टावक्र संहिता -04

अष्टावक्र संहिता अध्याय XIX : आत्म-स्थित क्व दूरं क्व समीपं वा बाह्यं आभ्यन्तरं क्व वा । क्व स्थूलं क्व च वा सूक्ष्मं स्वमहिम्न स्थितस्य मे ॥६॥ कहाँ दूर और पास कहाँ बाहर कहाँ भीतर कहाँ । स्थूल कहाँ अथवा सूक्ष्म कहाँ उसको जो योगसिद्ध होकर बैठा ॥६॥ क्व मृत्यु: जीवितं वा क्व लोका : कास्य क्व लौकिकम् । क्व लय : क्व समाधिर्वा स्वमहिम्न स्थितस्य मे ॥७॥ मृत्यु कहाँ अथवा जीवन कहाँ विभिन्न लोक कहाँ और लौकिक व्यवहार कहाँ । लय भी कहाँ और समाधि भी कहाँ उसको जो योगसिद्ध होकर बैठा ॥७॥ अलं त्रिवर्गकथया योगस्य कथयाप्यलम् । अलं विज्ञानकथया विश्रान्तस्य ममात्मनि ॥८॥ जानो व्यर्थ जीवन की तीनों गति जानो व्यर्थ कथा योग की । विज्ञान की बात भी व्यर्थ जानो उसको रम गया है आत्म में जो ॥८॥ Paavan Teerth

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