वसुधैव कुटुम्बकम ---------------------- काले को गोरे ने मारा, इसमें अपना क्या जाता है, वो पूछ रहे इस घटना का, भारत से कैसे नाता है? काले मरते रहते अक्सर, क्यों इस पर हाहाकार हुआ, आकस्मिक इस घटना पर क्यों, उद्द्वेलित ये संसार हुआ। ऐसा तो होता आया है, वो कहते बारम्बार यही, मौलिक मुद्दा वो भूले हैं, क्या काम गलत,क्या काम सही। मानव-मानव में भेद यहाँ, वो निजी स्वार्थ से करते हैं! हर ग़लत काम करने ख़ातिर, कुछ नए बहाने गड़ते हैं। कण का कण से है भेद यहाँ, पर आत्मतत्व तो एक रहा! सब एक मूल से जन्मे हैं, कुछ विद्वानों ने यही कहा। सबके हित से तो धर्म बड़ा, संभव कोई भी नहीं यहाँ! पर पीड़ा जो लाए जग में, उससे ओछा है धर्म कहाँ। मानव मानव के बीच यहाँ, जो धन की बढती खाई है! हर एक समस्या की जड़ में, मैंने बस वो ही पाई है। कारण के रूप बदलते हैं, बुनियाद यही बस रहती है! सभ्यता इसी से मानव की, सब कष्ट जगत में सहती है। जो भी हिंसा हो रही कहीं, उसकी जड़ में लालच मिलता! जब इसको जब दूर किया जाता, सुख-शांति-पुष्प तब ही खिलता। है नस्ल भेद जो नाम कहीं, तो जाति भेद भी कहलाती! ये और कई नामों से भी, है यहाँ-वहाँ जानी जाती। जब वसुधा को परिवार कहें, नर से नारायण होता है! चुप कैसे हम रह जाएं भला, अन्याय कहीं जो होता है। हत्यारा छोड़ा जाता जब, अच्छे कुछ चाल-चलन ख़ातिर! पीड़ित भी करता माफ़ उसे, सोचो सिस्टम कितना शातिर। निर्बल का रहता दोष सदा, कहने की सबने ठानी है! कोई भी दोष सबल का कब? अपनी दुनिया ये मानी है। जो भी पाया है निर्बल ने, निज संघर्षों से पाया है! जो भेदभाव है दुनिया में, जन को ठगने की माया है। विघटनकारी शक्तियां सभी, बढ़ती हैं अपने आप यहाँ! पर सृजित कहीं कुछ करने को, है कोशिश की दरकार वहाँ। सबके हित से तो धर्म बड़ा, संभव कोई भी नहीं यहाँ! पर पीड़ा जो लाए जग में, उससे ओछा है कर्म कहाँ? जो भी हिंसा हो रही कहीं, है स्वार्थभाव उसकी जड़ में1 इनका प्रति पल प्रतिकार करें, तो पुष्प खिले फिर कीचड़ में। मानवता के हित में है ये, सब भेदभाव जग के भूलें! सब पाएं उन्नति के अवसर, हो हर्षित लोग फलें फूलें। 'Paavan'