ग़ज़ल- हर जगह कुछ बोलना अच्छा नहीं जी, हो रहा जो हर तरफ़,देखा नहीं जी? वोट ख़ातिर वो किए वादे असंंभव-से कई, आमजन बेदार था,क्या था नहीं,जी? बेदार-जागरूक,जागृत बात हो इंसानियत के हित में ही,जब हो कहीं, बेवजह मुँह खोलना अच्छा नहीं जी? मारता है और रोने भी नहीं देता जबर, क्या किसी ने तुमको समझाया नहीं जी, बोल के आधे वो सच को बन रहे थे धर्मराज, आज भी है रीति ये,देखा नहीं जी? मुफ़्त की चीज़ों की इज़्ज़त कब रही संसार में, यूँ ही कोई मशविरा,देना नहीं जी। आए खाली हाथ थे सब,पा रहे हैं रात-दिन, दरहकीकत कुछ यहाँ खोया नहीं जी। 'Maahir' (collection)