भवें तनी हैं,खंजर हाथ में है,तन के बैठे हैं, किसी से आज बिगड़ी है कि वो यूँ बन के बैठे हैं। इलाही क्यूँ नहीं उठती क़यामत,माजरा क्या है, हमारे सामने पहलू में वो दुश्मन के बैठे हैं। ये गुस्ताख़ी अच्छी नहीं है ऐ दिल-ए-नादाँ, अभी फिर रूठ जाएँगे अभी तो मन के बैठे हैं। असर है जज़्ब-ए-उल्फ़त में तो खिंच कर आ ही जायेंगे, हमें परवाह नहीं अगर वो तन के बैठे हैं। बहुत रोया हूँ मैं जब से ये मैंने ख़्वाब देखा है, कि आप आँसू बहाते सामने दुश्मन के बैठे हैं। किसी की शामत आयेगी किसी की जान जायेगी, किसी की ताक में वो बाम पर बन-ठन के बैठे हैं। 'Ghalib'