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रामकृष्ण परमहंस

16 अगस्त/पुण्य-तिथि रामकृष्ण परमहंस की महासमाधि श्री रामकृष्ण परमहंस का जन्म फागुन शुक्ल 2, विक्रमी सम्वत् 1893 (18 फरवरी, 1836) को कोलकाता के समीप ग्राम कामारपुकुर में हुआ था। पिता श्री खुदीराम चट्टोपाध्याय एवं माता श्रीमती चन्द्रादेवी ने अपने पुत्र का नाम गदाधर रखा था। सब उन्हें स्नेहवश 'गदाई' भी कहते थे। बचपन से ही उन्हें साधु-सन्तों का साथ तथा धर्मग्रन्थों का अध्ययन अच्छा लगता था। वे पाठशाला जाते थे; पर मन वहाँ नहीं लगता था। इसी कारण छोटी अवस्था में ही उन्हें रामायण, महाभारत आदि पौराणिक कथाएँ याद हो गयीं थीं। बड़े होने के साथ ही प्रकृति के प्रति इनका अनुराग बहुत बढ़ने लगा। प्रायः ये प्राकृतिक दृश्यों को देखकर भावसमाधि में डूब जाते थे। एक बार वे मुरमुरे खाते हुए जा रहे थे कि आकाश में काले बादलों के बीच उड़ते श्वेत बगुलों को देखकर इनकी समाधि लग गयी। ये वहीं निश्चेष्ट होकर गिर पड़े। काफी प्रयास के बाद इनकी समाधि टूटी। पिता के देहान्त के बाद बड़े भाई रामकुमार इन्हें कोलकाता ले आये और हुगली नदी के तट पर स्थित रानी रासमणि द्वारा निर्मित माँ काली के मन्दिर में पुजारी नियुक्ति करा दिया। मन्दिर में आकर उनकी दशा और विचित्र हो गयी। प्रायः वे घण्टों काली माँ की मूर्त्ति के आगे बैठकर रोते रहते थे। एक बार तो वे माँ के दर्शन के लिए इतने उत्तेजित हो गये कि कटार के प्रहार से अपना जीवन ही समाप्त करने लगे; पर तभी माँ काली ने उन्हें दर्शन दिये। मन्दिर में वे कोई भेदभाव नहीं चलने देते थे; पर वहाँ भी सांसारिक बातों में डूबे रहने वालों से वे नाराज हो जाते थे। एक बार तो मन्दिर की निर्मात्री रानी रासमणि को ही उन्होंने चाँटा मार दिया। क्योंकि वह माँ की मूर्त्ति के आगे बैठकर भी अपनी रियासत के बारे में ही सोच रही थी। यह देखकर कुछ लोगों ने रानी को इनके विरुद्ध भड़काया; पर रानी इनकी मनस्थिति समझती थी, अतः वह शान्त रहीं। इनके भाई ने सोचा कि विवाह से इनकी दशा सुधर जाएगी; पर कोई इन्हें अपनी कन्या देने को तैयार नहीं होता था। अन्ततः इन्होंने अपने भाई को रामचन्द्र मुखोपाध्याय की पुत्री सारदा के बारे में बताया। उससे ही इनका विवाह हुआ; पर इन्होंने अपनी पत्नी को सदैव माँ के रूप में ही प्रतिष्ठित रखा। मन्दिर में आने वाले भक्त माँ सारदा के प्रति भी अतीव श्रद्धा रखते थे। धन से ये बहुत दूर रहते थे। एक बार किसी ने परीक्षा लेने के लिए दरी के नीचे कुछ पैसे रख दिये; पर लेटते ही ये चिल्ला पड़े। मन्दिर के पास गाय चरा रहे ग्वाले ने एक बार गाय को छड़ी मार दी। उसके चिन्ह रामकृष्ण की पीठ पर भी उभर आये। यह एकात्मभाव देखकर लोग इन्हें परमहंस कहने लगे। मन्दिर में आने वाले युवकों में से नरेन्द्र को वे बहुत प्रेम करते थे। यही आगे चलकर विवेकानन्द के रूप में प्रसिद्ध हुए। सितम्बर 1893 में शिकागो धर्मसम्मेलन में जाकर उन्होंने हिन्दू धर्म की जयकार विश्व भर में गुँजायी। उन्होंने ही ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की। इसके माध्यम से देश भर में सैकड़ों विद्यालय, चिकित्सालय तथा समाज सेवा के प्रकल्प चला।ये जाते हैं। एक समय ऐसा था, जब पूरे बंगाल में ईसाइयत के प्रभाव से लोगों की आस्था हिन्दुत्व से डिगने लगी थी; पर रामकृष्ण परमहंस तथा उनके शिष्यों के प्रयास से फिर से लोग हिन्दू धर्म की ओर आकृष्ट हुए। 16 अगस्त, 1886 को श्री रामकृष्ण ने महासमाधि ले ली।

Ghazal-171

ग़ज़ल- दोस्तो गुलशन हमारा अब से लाला-ज़ार हो। भूख,बीमारी,जफ़ा,से मुक्त अब संसार हो। लाला-ज़ार=फूलों से भरा हुआ,समृद्ध,जफ़ा=अत्याचार अब सभी के क़ायदे से काम हों,इसके लिए, ऑफ़िसों की पारदर्शी आज से दीवार हो। भागते रहते मशीनों की तरह हम लोग क्यों? दोस्तो कुछ देर थम कर आपसी गुफ़्तार हो। गुफ़्तार=बातचीत सोचने,कहने की तो आज़ादी मिलती जन्म से, आज जैसा हो गया,वैसा न अब अख़बार हो। झूठ, आलस,स्वार्थ का हो ख़ात्मा व्यवहार में, बस सचाई मेहनतों का अब से कारोबार हो। हैं बराबर लोग सब,मानें सभी इस सत्य को, पेट की ख़ातिर न क़दमों में कोई दस्तार हो। दस्तार=पगड़ी,इज़्ज़त फ़ैसले करते रहें हम,लोकहित में रात-दिन, फिर तो तेज़ चाहे जितनी वक़्त की रफ़्तार हो। ताक़तें जो हैं मुख़ालिफ़ आमजन के,उन से अब, जंग हो जिसका नतीजा आर हो या पार हो। मुख़ालिफ़=विरोध में सांसदों को चुन सकें,आईन देता हक़ हमें, वोट को देते समय तो आदमी हुशियार हो। आईन= संविध

Ghazal-170

चूहों की भरमार है बाबा ये ग़ल्ला बाज़ार है बाबा//1 वोट मैं अपने मन से दूँगा ये मेरा अधिकार है बाबा//2 रह्म करे वो हम मुफ़्लिस पर जिसकी भी सरकार है बाबा//3 डर तो लगता है,लड़की का चाचा थानेदार है बाबा//4 बीड़ी मैं सुलगाऊँ कैसे पास मेरे सरदार है बाबा//5 लोग यहाँ पीते हैं दारू ये चखना बाज़ार है बाबा//6 नफ़रत से मस्जिद भी महकी मंदिर भी बू-दार है बाबा//7 उसको याँ का हाल बताओ वो जो पालनहार है बाबा//8 '' का क्या है उस पर रब की किरपा अपरंपार है बाबा//9 शब्दार्थ- --------------- •ग़ल्ला- अन्न, अनाज, धान्य, दाना। •रह्म- रहम, दया •मुफ़्लिस- ग़रीब, निर्धन •चखना- शराब के साथ खाया जाने वाले खाद्य पदार्थ, जैसे चिप्स, भुना हुआ चना, मूंगफली, बादाम, काजू इत्यादि •बू-दार- बदबूदार, दुर्गंधयुक्त •याँ का- यहाँ का •किरपा- कृपा का देसी, बिगड़ा रूप •अपरंपार- अपार, असीम

Ghazal-169

ग़ज़ल- ज़रूरी है जो सबके वास्ते,वो काम हो जाए, तो मेरी ज़िन्दगी में भी ज़रा आराम हो जाए। जहाँ में एक भी कण एक भी क्षण रुक नहीं सकता, सफल होती वही बस सोच,जो निष्काम हो जाए। बहुत हैं चाहतें लेकिन टिका हूँ एक चाहत पे, अहं कुछ दूर रख पाऊँ,तो मेरा काम हो जाए। तुम्हारी ज़िंदगी में भी खिलेंगे फूल चाहत के, तुम्हें भी इश्क़ की दौलत अगर इनआम हो जाए। सताने में जुटे हैं वो कि सब चुपचाप बैठे हैं, न गहरी ख़ामुशी ये बाइस-ए-कुहराम हो जाए। मेरी मजबूरियाँ समझो मुझे ख़ामोश रहने दो, वफ़ा बदनाम होती है,अगर ये आम हो जाए। थकन होती है होने दो,मेरा मकसद है चलूँ इतना कि सबके वास्ते आराम हो जाए। आवश्यक शब्दार्थ - निष्काम=वह व्यक्ति जिसमें निजी स्वार्थगत लाभ की इच्छा नहीं होती,परन्तु जो सबके हित के लिए काम करता है,इनआम=इनाम,ख़ामुशी=ख़ामोशी,वाइस= कारण,कुहराम = हंगामा,बहुत अधिक शोर शराबा

रानी पद्मिनी

26 अगस्त/इतिहास-स्मृति चित्तौड़ का पहला जौहर जौहर की गाथाओं से भरे पृष्ठ भारतीय इतिहास की अमूल्य धरोहर हैं। ऐसे अवसर एक नहीं, कई बार आये हैं, जब हिन्दू ललनाओं ने अपनी पवित्रता की रक्षा के लिए ‘जय हर-जय हर’ कहते हुए हजारों की संख्या में सामूहिक अग्नि प्रवेश किया था। यही उद्घोष आगे चलकर ‘जौहर’ बन गया। जौहर की गाथाओं में सर्वाधिक चर्चित प्रसंग चित्तौड़ की रानी पद्मिनी का है, जिन्होंने 26 अगस्त, 1303 को 16,000 क्षत्राणियों के साथ जौहर किया था। पद्मिनी का मूल नाम पद्मावती था। वह सिंहलद्वीप के राजा रतनसेन की पुत्री थी। एक बार चित्तौड़ के चित्रकार चेतन राघव ने सिंहलद्वीप से लौटकर राजा रतनसिंह को उसका एक सुंदर चित्र बनाकर दिया। इससे प्रेरित होकर राजा रतनसिंह सिंहलद्वीप गया और वहां स्वयंवर में विजयी होकर उसे अपनी पत्नी बनाकर ले आया। इस प्रकार पद्मिनी चित्तौड़ की रानी बन गयी। पद्मिनी की सुंदरता की ख्याति अलाउद्दीन खिलजी ने भी सुनी थी। वह उसे किसी भी तरह अपने हरम में डालना चाहता था। उसने इसके लिए चित्तौड़ के राजा के पास धमकी भरा संदेश भेजा; पर राव रतनसिंह ने उसे ठुकरा दिया। अब वह धोखे पर उतर आया। उसने रतनसिंह को कहा कि वह तो बस पद्मिनी को केवल एक बार देखना चाहता है। रतनसिंह ने खून-खराबा टालने के लिए यह बात मान ली। एक दर्पण में रानी पद्मिनी का चेहरा अलाउद्दीन को दिखाया गया। वापसी पर रतनसिंह उसे छोड़ने द्वार पर आये। इसी समय उसके सैनिकों ने धोखे से रतनसिंह को बंदी बनाया और अपने शिविर में ले गये। अब यह शर्त रखी गयी कि यदि पद्मिनी अलाउद्दीन के पास आ जाए, तो रतनसिंह को छोड़ दिया जाएगा। यह समाचार पाते ही चित्तौड़ में हाहाकार मच गया; पर पद्मिनी ने हिम्मत नहीं हारी। उसने कांटे से ही कांटा निकालने की योजना बनाई। अलाउद्दीन के पास समाचार भेजा गया कि पद्मिनी रानी हैं। अतः वह अकेले नहीं आएंगी। उनके साथ पालकियों में 800 सखियां और सेविकाएं भी आएंगी। अलाउद्दीन और उसके साथी यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्हें पद्मिनी के साथ 800 हिन्दू युवतियां अपने आप ही मिल रही थीं; पर उधर पालकियों में पद्मिनी और उसकी सखियों के बदले सशस्त्र हिन्दू वीर बैठाये गये। हर पालकी को चार कहारों ने उठा रखा था। वे भी सैनिक ही थे। पहली पालकी के मुगल शिविर में पहुंचते ही रतनसिंह को उसमें बैठाकर वापस भेज दिया गया और फिर सब योद्धा अपने शस्त्र निकालकर शत्रुओं पर टूट पड़े। कुछ ही देर में शत्रु शिविर में हजारों सैनिकों की लाशें बिछ गयीं। इससे बौखलाकर अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर हमला बोल दिया। इस युद्ध में राव रतनसिंह तथा हजारों सैनिक मारे गये। जब रानी पद्मिनी ने देखा कि अब हिन्दुओं के जीतने की आशा नहीं है, तो उसने जौहर का निर्णय किया। रानी और किले में उपस्थित सभी नारियों ने सम्पूर्ण शृंगार किया। हजारों बड़ी चिताएं सजाई गयीं। ‘जय हर-जय हर’ का उद्घोष करते हुए सर्वप्रथम पद्मिनी ने चिता में छलांग लगाई और फिर क्रमशः सभी हिन्दू वीरांगनाएं अग्नि प्रवेश कर गयीं। जब युद्ध में जीत कर अलाउद्दीन पद्मिनी को पाने की आशा से किले में घुसा, तो वहां जलती चिताएं उसे मुंह चिढ़ा रही थीं।

Geeta-12(02)

अष्टावक्र संहिता ; अध्याय XII : आत्म- स्थित जनक उवाच : कायकृत्यासह : पूर्वम् तत : वाग्विस्तरासह : । अय चिन्तासह : तस्मात् अहम् एवम् एवं आस्थित : ॥१॥ जनक ने कहा: पहले हुआ मैं असहिष्णु कायिक कृत्यों पर फिर वाणी की वाचालता तत्पश्चात् विचार पर इन सबके ऊपर उठकर अब मैं हुआ अवस्थित आत्म में ॥१॥ प्रीत्यभावेन शब्दादे : अदृश्यत्वेन च आत्मन : । विक्षेपैकाग्रह्रदय एवम् एव अहम् आस्थित: ॥२॥ शब्द-जाल से प्रीति तोड़करदेखा यह आत्म को छू नहीं पाता । मन का ध्यान हटाकर इन सबसे एकाग्रचित्त हो मैं हुआ अवस्थित आत्म में ॥२॥

Ghazal-168

ग़ज़ल जिनको हमने दुश्मन समझा वे सब अपने भाई निकले जिस पर भी विश्वास किया था अंत में वे हरजाई निकले जन सेवा का भाव था जिनमें वे सब लोग ईसाई निकले खुद केवल मज़हबी मानते कट्टर और कसाई निकले बात आई जब आन बान की सब के सब सौदाई निकले देश भक्ति की बात चली तो ज्यादातर तमाशाई निकले पीठ दिखा कर भाग गए जो ऐसे भी सिपाही निकले दर्द दूसरे का तब जानेगे जब उनके पैर बिवाई निकले साधु फकीरों के वेष में ढोंगी और कसाई निकले आँखे चौकस रखना अपनी पडोसी ना आई ऐस आई निकले 'Maahir' वो जिनको चाहा था कभी हमने पागलों की तरहा याद आये है वही आज हमको दुश्मनों की तरहा वो लिखे बैठे है लेन देन बरसों का ये जिंदगी तो है पानी के बुलबुलों की तरहा मन पपीहे को तो एक ही बूँद काफ़ी थी प्यार बरसा है हम पे बादलों की तरहा जिनको पाना ही जिंदगी का मक़सद था भूल जाएँगे उनको सुबह के सपनों की तरहा उनका ख़याल उनका तस्सवुर उनकी याद सम्भाल के रक्खा है हथेली के आबलो की तरहा 'Maahir' वो जो दरिया की तरहा से बह रहा है चलना ही जीवन है वो ये कह रहा है ढल रहा है हरदम सूरज की तरह जो और धरती की तरह ग़म सह रहा है हर जनम में बेशक इसका रूप और था हर युग में मौजूद लेकिन वह रहा है ये हमारी रस्में है पाराम्पराए और रिवाज़ खून बन कर जो नसों में बह रहा है सत्य का है बोलबाला झूठ का हरदम मुँह काला युग कोई भी हो मगर ये तय रहा है क्या करोगे दूर परदेसो में जाकर प्रेम का दरिया यहाँ पर बह रहा है क्यों ना हम बच्चो को बांटे प्रेम अपना बडो का हम पर सदा स्नेह रहा है अपने ही अब तो पराए हो गए पारस विश्वास का पर्वत दरक कर ढह रहा है 'Maahir'

Ghazal-169

ग़ज़ल- जुस्तजू में चैन-सुख की, आ गई जाने किधर ? पत्थरों के जंगलों में, आदमी ढूँढे, नज़र। लूटने और लुटने वाले, में रहा है फ़र्क क्या ? आज जो दिखता इधर है, कल वो दिखता था उधर। मरने, जीने से किसी के कब रुकी है ज़िन्दगी ? वो सितारे कह रहे हैं आसमां से टूटकर। एक प्रस्तर क़ायदे का लिख न पाएं, आज जो, डिग्रियाँ लेकर युवा वो, फिर रहे हैं, दरबदर। कोई कर सकता नहीं, सहयोग ऐसे शख़्स का, जो भरोसा ही नहीं, करता हैं अपने आप पर। थे बहुत आश्वस्त, वादों, पर भरोसा करके हम, रहबरों की रहबरी में, खो गई है रहगुज़र। जल चुकेगा फूस तब तो, आग भी मिट जाएगी, आग को भी चाहिए है, फूस, अपनी उम्रभर। जुस्तजू=खोज, चाह, प्रस्तर= पैराग्राफ़, रहबर-नेता, रहगुजर= राह

Ghazal-167

ग़ज़ल- जुस्तजू में चैन-सुख की, आ गई जाने किधर ? पत्थरों के जंगलों में, आदमी ढूँढे, नज़र। लूटने और लुटने वाले, में रहा है फ़र्क क्या ? आज जो दिखता इधर है, कल वो दिखता था उधर। मरने, जीने से किसी के कब रुकी है ज़िन्दगी ? वो सितारे कह रहे हैं आसमां से टूटकर। एक प्रस्तर क़ायदे का लिख न पाएं, आज जो, डिग्रियाँ लेकर युवा वो, फिर रहे हैं, दरबदर। कोई कर सकता नहीं, सहयोग ऐसे शख़्स का, जो भरोसा ही नहीं, करता हैं अपने आप पर। थे बहुत आश्वस्त, वादों, पर भरोसा करके हम, रहबरों की रहबरी में, खो गई है रहगुज़र। जल चुकेगा फूस तब तो, आग भी मिट जाएगी, आग को भी चाहिए है, फूस, अपनी उम्रभर। जुस्तजू=खोज, चाह, प्रस्तर= पैराग्राफ़, रहबर-नेता, रहगुजर= राह

Geeta-12(01)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XII : आत्म-स्थित आश्रम अनाश्रमम् ध्यानम् चित्तस्वीकृतवर्जनम् । विकल्पम् मम वीक्ष्यते : एवम् एव अहम् आस्थित : ॥५॥ कहाँ आश्रम और अनाश्रम अब चित्त स्थित करने को आवश्यकता नहीं ध्यान की अब । (क्योंकि) विकल्पों को देख कर मैं अवस्थित हुआ ध्यान में अब ॥५॥ कर्मानुष्ठानम् अज्ञानात् एव उपरम : तथा । बुध्वा सम्यक इदम् तत्वम् अहम् एवम् एव आस्थित: ॥६॥ कर्म के अनुष्ठान का विचार अथवा उसे छोड़ने की क्रिया दोनों मे ग्रन्थि है अज्ञान की । इस तत्व को जानकर पूरी तरह मैं अब हुआ अवस्थित आत्म में ॥६॥

Vikram Sarabhai

Vikram Sarabhai 12 अगस्त/जन्म-दिवस महान वैज्ञानिक-डा. विक्रम साराभाई जिस समय देश अंग्रेजों के चंगुल से स्वतन्त्र हुआ, तब भारत में विज्ञान सम्बन्धी शोध प्रायः नहीं होते थे। गुलामी के कारण लोगों के मानस में यह धारणा बनी हुई थी कि भारतीय लोग प्रतिभाशाली नहीं है। शोध करना या नयी खोज करना इंग्लैण्ड, अमरीका, रूस, जर्मनी, फ्रान्स आदि देशों का काम है। इसलिए मेधावी होने पर भी भारतीय वैज्ञानिक कुछ विशेष नहीं कर पा रहे थे। पर स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश का वातावरण बदला। ऐसे में जिन वैज्ञानिकों ने अपने परिश्रम और खोज के बल पर विश्व में भारत का नाम ऊँचा किया, उनमें डा. विक्रम साराभाई का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उन्होंने न केवल स्वयं गम्भीर शोध किये, बल्कि इस क्षेत्र में आने के लिए युवकों में उत्साह जगाया और नये लोगों को प्रोत्साहन दिया। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. कलाम ऐसे ही लोगों में से एक हैं। डा. साराभाई का जन्म 12 अगस्त, 1919 को कर्णावती (अमदाबाद, गुजरात) में हुआ था। पिता श्री अम्बालाल और माता श्रीमती सरला बाई ने विक्रम को अच्छे संस्कार दिये। उनकी शिक्षा माण्टसेरी पद्धति के विद्यालय से प्रारम्भ हुई। इनकी गणित और विज्ञान में विशेष रुचि थी। वे नयी बात सीखने को सदा उत्सुक रहते थे। श्री अम्बालाल का सम्बन्ध देश के अनेक प्रमुख लोगों से था। रवीन्द्र नाथ टैगोर, जवाहरलाल नेहरू, डा. चन्द्रशेखर वेंकटरामन और सरोजिनी नायडू जैसे लोग इनके घर पर ठहरते थे। इस कारण विक्रम की सोच बचपन से ही बहुत व्यापक हो गयी। डा. साराभाई ने अपने माता-पिता की प्रेरणा से बालपन में ही यह निश्चय कर लिया कि उन्हें अपना जीवन विज्ञान के माध्यम से देश और मानवता की सेवा में लगाना है। स्नातक की शिक्षा के लिए वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय गये और 1939 में ‘नेशनल साइन्स ऑफ ट्रिपोस’ की उपाधि ली। द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने पर वे भारत लौट आये और बंगलौर में प्रख्यात वैज्ञानिक डा. चन्द्रशेखर वेंकटरामन के निर्देशन में प्रकाश सम्बन्धी शोध किया। इसकी चर्चा सब ओर होने पर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.एस-सी. की उपाधि से सम्मानित किया। अब उनके शोध पत्र विश्वविख्यात शोध पत्रिकाओं में छपने लगे। अब उन्होंने कर्णावती (अमदाबाद) के डाइकेनाल और त्रिवेन्द्रम स्थित अनुसन्धान केन्द्रों में काम किया। उनका विवाह प्रख्यात नृत्यांगना मृणालिनी देवी से हुआ। उनकी विशेष रुचि अन्तरिक्ष कार्यक्रमों में थी। वे चाहते थे कि भारत भी अपने उपग्रह अन्तरिक्ष में भेज सके। इसके लिए उन्होंने त्रिवेन्द्रम के पास थुम्बा और श्री हरिकोटा में राकेट प्रक्षेपण केन्द्र स्थापित किये। डा. साराभाई भारत के ग्राम्य जीवन को विकसित देखना चाहते थे। ‘नेहरू विकास संस्थान’ के माध्यम से उन्होंने गुजरात की उन्नति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह देश-विदेश की अनेक विज्ञान और शोध सम्बन्धी संस्थाओं के अध्यक्ष और सदस्य थे। अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करने के बाद भी वे गुजरात विश्वविद्यालय में भौतिकी के शोध छात्रों को सदा सहयोग करते रहे। डा. साराभाई 20 दिसम्बर, 1971 को अपने साथियों के साथ थुम्बा गये थे। वहाँ से एक राकेट का प्रक्षेपण होना था। दिन भर वहाँ की तैयारियाँ देखकर वे अपने होटल में लौट आये; पर उसी रात में अचानक उनका देहान्त हो गया।

Ghazal-166

ग़ज़ल- दीवारें वो निर्मित करते चुुन-चुन कर कुछ द्वारों पर, नाच रही है जनता खुल कर,उन पर अंकित नारों पर। विज्ञापन भरमाते रहते सीधी,भोली नारी को, असली लाली शेष बची कब गोरी के रुख़सारों पर। खेल सियासत करती रहती,भड़का कर जज़्बात नए, जिसके कारण जनता रहती तलवारों की धारों पर। मस्ती,गाना,सना भूले हम सब आज सियासत में, अक्सर दंगे हो जाते हैं अपने अब,त्यौहारों पर। जनता को ठगने ख़ातिर कुछ नेता-अफसर संधि किए, ज़ुल्म बहुत ढाते वो मिल कर सच के पैरोकारों पर। जनता के सब रोगों का हम,कर सकते उपचार मगर, नेता मोहित दिखते केवल,घातक कुछ हथियारों पर। अपराधी जो हैं उनकी तो होती जय जय कार यहाँ, अक्सर दोष मढ़े जाते हैं मुफ़लिस औ बंजारों पर। उनको सतही चीजें भातीं,झूठे औ मक्कार हैं जो, ध्यान कहाँ देते हैं देखो,वो मौलिक फ़नकारों पर। बांट रहे लालच के अंधे हमको ज़ात-ज़ुबानों में, जागरूक हम भारी पड़ते हैं झूठे मक्कारों पर!

Geeta-11(01)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XI : प्रज्ञा अष्टावक्र उवाच : भावाभाव विकाराश्च स्वभावात् इति निश्चयी । निर्विकारो गतक्लेश : सुखेन एव उपशाम्यति ॥१॥ अष्टावक्र ने कहा: अस्तित्व और अनिस्तत्व दोनों को ही विकार जान स्वभाव के छोड़ इस विकार को । निर्विकार और क्लेशों से मुक्त हो तू सुख से स्थिर कर स्वयं को ॥१॥ ईश्वर: सर्वनिर्माता न अन्य इति निश्चयी । अन्तर्गलित सर्वांश : शान्त: क्व अपि न सज्जते ॥२॥ निश्चित जान कोई और नहीं केवल ईश्वर है निर्माता इस विश्व का । अन्तर की सब आशाओं को गला शान्त मन निस्पृह हो तू जग में विचर ॥२॥

Geeta-11(02)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XI : प्रज्ञा आब्रह्मस्तम्ब पर्यन्तम् अहम् एव इति निश्चयी । निर्विकल्प: शुचि : शान्त: प्राप्त अप्राप्त विनिर्वृत : ॥७॥ मैं ब्रह्मा से लेकर तुच्छ तृण पर्यन्त हूँ समाहित सब में समभाव से । यह जानकर शंका से मुक्त हो प्राप्त एवं अप्राप्त का छोड़ मोह तू शान्त एवं पवित्र मन से निवृत्त हो जा ॥७॥ नाना आश्चर्यम् इदम् विश्वम् न किंचित् इति निश्चयी । निर्वासन : स्फूर्तिमात्र : न किंचित् इव शाम्यति ॥८॥ दृढ़ निश्चयी यह जानकर कि नाना आश्चर्यों से भरा यह जगत कुछ भी नहीं । वासनाओं से मुक्त यह चैतन्य पूर्ण शान्ति को पा लेता सहज ॥८॥ ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त

Ghazal-165

ग़ज़ल- इरादा किया दोस्तो ये अटल है, लिखूँगा वही सत्य जो आजकल है। तुम्हारे सवालों को अल्फ़ाज़ देकर, तुम्हें ही सुनाने को लिक्खी ग़ज़ल है। बिना सोचे समझे जो राय बनाता, वो अहमक़ है यारो कहाँ वो सरल है। हिक़ारत से देखे ग़रीबों को अब वो, पसीने से उनके बना जो महल है। जिसे आज वंचित किए जा रहे वो, तुम्हारी अमरता को पीता गरल है। अज़ल से मेरा दिल रहा है तुम्हारा, न ये इश्क़ तुमसे हुआ आजकल है। न है इसका कोई भी अपवाद"र", मिला है हमेशा,जो कर्मों का फल है।

Ghazal-164

ग़ज़ल- कौन जाने जीत है या हार है, सोच मेरी बादलों के पार है। शाख़ माने गुल का कुछ अहसान क्यों? ज़िन्दगी उसकी बचाता ख़ार है। रेंगते,डसते वो,जब मौक़ा मिले, रीढ़ वाला अब कहाँ किरदार है। रंग रोग़न से उबर पाता नहीं, इश्क़ जिसकी सोच में व्यापार है। ज़ोर से नारे लगाते हैं वही, बात का जिनकी न कुछ आधार है। बात ही से तो नहीं बहलेगा ये, आदमी इस दौर का बेदार है। मस्लहत दिल में निहाँ "र" यहाँ, आदमीयत ऊपरी आचार है।

Ghazal-163

ग़ज़ल- लड़कपन से उबर पाए हैं जब से, जिए बस ज़िन्दगी अपने ही ढब से। दुआ मेरी रही बस ये ही रब से। रहे इंसानियत का मान अब से, हुआ जब से मुझे दीदार उनका, रहा मक़्सद यही इक ख़ास तब से। बताया बेज़ुबां आँखों ने वो भी, वो कह पाए जिसे अब तक न लब से। जो उपदेशों पे अपने चल सका हो, ज़माना मुंतज़िर है उसका कब से। मसाइल ज़िन्दगी के हो सके हल, रखा है स्वार्थ को कुछ दूर जब से। व्यवस्था कुछ बने ऐसी वतन में, किसी का भी न हो अपमान, अब से। सचाई से किया जब आकलन तो, लगे कुछ फ़ैसले अपने अजब से। अँधेरे जब डराते ज़िन्दगी के। तो पाते रास्ता 'माहीर 'अदब से। मुंतज़िर=प्रतीक्षा करने वाला,इंतजार में। अदब=साहित्य,शिष्टाचार। 'माहीर'

Heredity (Genetical Aspect)

डीएनए की भाषा। सरल शब्द पहचाने गए डीएनए सबस्ट्रिंग का एक शास्त्रीय उदाहरण एएजीसीटीटी(ऊपरी स्ट्रैंड पर और निचले स्ट्रैंड पर इसका पूरक टीटीसीजीएए) है,जो विशेष रूप से एच.इन्फ्लूएंजा बैक्टीरिया में हिंद{III}नामक अपने एंजाइमैटिक प्रोटीन में से एक द्वारा पहचाना जाता है जो डबल को साफ़ करता है हमलावर वायरस के डीएनए को उन जगहों पर स्ट्रैंड किया जाता है जहां यह सबस्ट्रिंग होती है,जबकि इसके डीएनए में सबस्ट्रिंग के बैक्टीरिया की घटना वाली जगहों को पूर्व मिथाइलेशन द्वारा दरार से बचाया जाता है। हिंद(III)प्रोटीन को एक प्रतिबंधक एंजाइम कहा जाता है।आनुवंशिक इंजीनियरिंग में महत्वपूर्ण अनुप्रयोगों के साथ,जीवाणु प्रजातियों में 800 से अधिक विभिन्न प्रतिबंध एंजाइमों और 100 से अधिक संबंधित मान्यता अनुक्रमों की पहचान की गई है।ये मान्यता अनुक्रम प्रजातियों के बीच एक महान परिवर्तनशीलता दिखाते हैं,उनमें से कई पूरक स्ट्रैंड्स पर पैलिंड्रोमिक होते हैं(जिसका अर्थ है कि अनुक्रम पूरक डीएनए स्ट्रैंड्स में समान रूप से पीछे और आगे पढ़ता है,जैसे कि एएजीसीटीटी और टीटीसीजीएए में),यह दर्शाता है कि डीएनए के दोनों स्ट्रैंड्स को एक जैसा होना चाहिए।अक्सर प्रत्येक स्ट्रैंड पर काम करने वाले दो समान प्रोटीनों के एक कॉम्प्लेक्स द्वारा काटा जाता है।इन सबस्ट्रिंग्स की मुख्य विशेषता उनकी छोटी लंबाई(लगभग चार से आठ आधार जोड़े)है,जो उन्हें किसी भी जीनोम में अक्सर दिखाई देने की संभावना बनाती है,जो उन्हें अज्ञात हमलावर वायरस के खिलाफ एक कुशल सुरक्षा प्रदान करती है।इस प्रकार ये अनुक्रम सर्वव्यापी हैं और स्वयं जानकारी का समर्थन नहीं करते हैं(वे केवल प्रतिबंध एंजाइमों द्वारा मान्यता प्राप्त सबस्ट्रिंग हैं),और इस पर चर्चा की जा सकती है कि क्या वे भाषाई अर्थ में "शब्द" हैं। पर पहले पुरानी-प्रेमिका बुलाते हैं। शब्द तथा भाषा । न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते। अनुबिद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते॥ संसार में ऐसा कोई विषय नहीँ है,जिसका ज्ञान शब्द का आश्रय न लेता हो।शब्द के बिना हम चिन्ता भी नहीँ कर सकते।समस्त ज्ञान शब्द से ही उत्पन्न हुआ हो–ऐसे भासमान होता है । जिस प्रक्रिया के द्वारा स्वहृदयस्थ भाव को परहृदयमें सन्निवेशित किया जाये उसे भाषा कहते हैं। यह स्वकीया (भावना-अप्रकटभाषा)तथा परकीया(प्रकटभाषा)भेद से द्विधा विभक्त है।परकीया दृश्य-श्राव्य भेद से द्विधा विभक्त है । दृश्य(सङ्केतितक्रिया आकार,ईङ्गित (उपाङ्गक्रिया),गति(देशान्तरप्रापणभङ्गि),चेष्टा (अङ्गक्रिया),भाषणभङ्गि,नेत्रविकार,मुखविकार भेद में सप्तधाविभक्त है । शब्द एवं विसर्ग के सम्मेलन से(शब्दः)श्राव्यभाषा का उत्पत्ति होता है(“शब्दविसर्गाणां समेलनाच्छब्द इत्याचक्षते”-नामार्थकल्पसूत्रे)। शिक्षा ग्रन्थों में कहा गया है कि- मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम्। मारुतस्तुरसि चरन् मन्द्रं जनयति स्वरम्॥ यह ऋग्वेद 10-129-4 कामस्तदग्रे समवर्त्तताधि मनसो रेतःप्रथमं यदासीत् के उपर आधारित है। शब्द का यत्किञ्चित्पदार्थतावच्छेदकावच्छिन्न में शक्ति होती है।नामार्थकल्पसूत्र के अनुसार–“बिन्दुबाताग्न्यम्वराणां तस्मात् साङ्केतिकाः(equation)स्मृताः”। गाणितिकभाषा में इसे श + ब् + दः = शब्दः लिखा जा सकता है।\इसके व्याख्या करते हुये ढुण्ढिनाथ ने कहा है–“तत्र शकार विन्दु बकार वात दकार अग्निः विसर्गश्चाकाश”।बिन्दु,वात,अग्नि,एवं आकाश के सहयोग से शब्द सृष्टि होता है।बिन्दु उक्थ है।वहाँ से जब वायु के द्वारा क्रिया आरम्भ होती है,तब द्रविणभाव के कारण अग्नि जात होता है।अग्नि वायु को पुनः प्रेरण करता है(मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम्)।यदि रिक्तस्थान(आकाश)मिलता है,तो शब्दतरङ्ग क्रमशःगति करती है।इससे शब्दों का 304 भेद हो जाते हैं(चतुरुत्त्तरत्रिशतशब्दानाम्-सर्वशब्दनिबन्धनम्)। बिन्दु अणु होने से तथा आकाश परममहत् होने से,इनका संख्या गणना नहीं होता।अग्नि अष्टसंस्थ है–“अग्निश्च जातवेदाश्च।सहोजा अजिराप्रभुः।वैश्वानरो नर्यापाश्च।पङ्क्तिराधाश्च सप्तमः।विसर्पेवाऽष्टमोऽग्निनाम्।एतेऽवसवः क्षिता”।यह आधुनिक विज्ञान में ग्लुअन् (gluon)नाम से जाने जाते हैं! वायु के 11 भेद है–“प्रभ्राजमाना व्यवदाताः।याश्च वासुकिवैदुताः।रजताः परुषाः श्यामाः।कपिला अतिलोहिताः।ऊर्ध्वा अवपतन्ताश्च।वैद्युत इत्येकादश”।इनका समष्टि 19 हुआ।इनमें से प्रत्येक का 16 कला है। सब मिला कर 304 (19X16) शब्दविभाग है । जिसप्रकार विद्युत्चुम्बकीय तरङ्ग अनेक होते हुये भी केवल कुछ ही तरङ्गें मनुष्य-चक्षुग्राह्य होते हैं,उस प्रकार शब्दों का तरङ्ग अनेक होते हुये भी केवल कुछ ही तरङ्गें मनुष्य-श्रोत्रग्राह्य होते हैं। जिसप्रकार मनुष्य-चक्षुग्राह्य तरङ्गों को सप्तवर्ण में समाहित कर दिया जाता है,उसीप्रकार मनुष्य-श्रोत्रग्राह्य शब्दों का द्वादश भेद है।यह है- स्फोटो रवोत्यन्तसूक्ष्मो मन्दोऽतिमन्दकः । अतितीव्रो तीव्रतरो मध्यश्चातिमध्यमः । महारबो घनरबो महाघनरबोस्तथा ॥ स्फोट सब से सूक्ष्मतम मनुष्य श्रोत्रग्राह्य शब्द है। महाघनरब शुनते ही कर्णशस्कुली फट जाता है। स्फोट के विषयमें व्याकरणकारों का मत ग्राह्य और नैयायिकों के मत त्याज्य है । मातृका का अर्थ है मातैव – मातृ + इवे प्रतिकृता । शब्द का जो शक्ति है, उसका प्रतिकृति को मातृका कहते हैँ । उसका न्यास होता है । विन्दु कूटस्थ है । वही परा का जननी है । बह्निः शब्द का भाव को दर्शाती हुयी पश्यन्ति का जननी है । वात उसको प्रसार करती हुयी मध्यमा का जननी है । अम्बर विवृत वाणी का विस्तार करती हुयी वैखरी का जननी है । अतः ऋग्वेद प्रातिशाख्य में कहागया है – माण्डुकेयः संहितां वायुमाह तथाकाशं चास्य माक्ष्यव्य एव । समानतामनिले चाम्बरे च मत्वागस्त्योऽविपरिहारं तदेव ॥ बाजसनेयी प्रातिशाख्य में कहागया है – “वायुः खात्” (वायु आकाश में गति करता है) । “शब्दस्तत्” (उससे शब्द का विस्फुरण होता है) । “सङ्करोपहितः” (समुचित करणों से प्रेरित हो कर श्रोत्र विवर के समीप जानेपर शब्द वनता है – समीचीनाः कराः सङ्कराः, उप समीपे, हि गतिप्रेरणे, क्तोऽधिकरणे ध्रौव्यगतिप्रत्यवसानार्थेभ्यश्च इति क्तप्रत्ययः) । “स सङ्घातादीन् वाक्” (वह प्रयत्नादि को प्राप्त करके वाक् हो जाता है) । ऋक्तन्त्रम् में भी कहागया है – “वायुं प्रकृतिमाचार्याः । वायुर्मूर्छञ्छ्वासोभवति । श्वासो नाद इति शाकटायनः । वायुरयमस्मिन् काये मूर्छत्यटतीत्येषोऽर्थः । स खलु स्वविशेषं प्रतिपन्नः कण्ठं प्रतिपन्नः श्वसितिर्भवति । स श्वसितिः शिरः प्रतिपन्नः आकाशमद्धारकं नदतिर्भवति । तस्येदानीं नदतेर्जिह्वाग्रेणेर्यमाणस्य व्यक्तयः प्रादुर्भवन्ति वर्णानामोष्ठ्याः कण्ठ्यास्तालव्या मूर्धन्या दन्त्या नासिक्या जिह्वामूलीया इति । तद्यथा त्रपुकारस्त्रपु विलाप्य बिम्बे निषिञ्चेद्यं यं बिम्बदेशं तत्त्रपु निषिच्यते ततस्ततो द्रव्याणां व्यक्तिर्भवति काञ्चिमणिके रुचकः स्वस्तिक इत्येवं यं यमयं स्वविशेषं जिह्वाग्रेण स्पृशति ततस्ततो वर्णानां व्यक्तिर्भवति ......” आचार्यों के द्वारा कहागया शब्दतत्त्व में वायु के महत्ता का वर्णन किया जा रहा है । वायु ही धक्का लगने पर श्वास वनता है । उसे नाद भी कहते हैं । इसका अर्थ है कि वायु हमारे शरीर में भ्रमण करता हुआ धक्का लगने पर वेग तथा स्थितिस्थापक संस्कार के कारण नर्तन करती है । अतः उसे नाद कहते हैं (नाभेरूर्द्ध्व हृदि स्थानान्मारुतः प्राणसंज्ञकः । नदति ब्रह्मरन्ध्रान्ते तेन नाद प्रकीर्तितः) । संवृत अवस्था में जब वह वायु कण्ठ से नासा के द्वारा वाहर निकलता है, उसे श्वास कहते हैं । वही वायु तालु स्थान से शिर में जाकर नर्तन करता हुआ नाद कहलाता है । वही नाद जिह्वाग्र से उच्चारित होता हुआ व्यक्त भावापन्न हो कर ओष्ठ्य. कण्ठ्य, तालव्य, मूर्द्धन्य, दन्त्य, नासिक्य, जिह्वामूलीय रूप से वाणी में परिवर्तित हो जाता है । जैसे मूर्तीकार धातु को गलाकर जिस साँचे में ढालता है, उसका वही स्वरूप हो जाता है, उसीप्रकार स्थान और प्रयत्न के कारण व्यक्तशब्द भिन्न हो जाते हैं । वेदाङ्ग के संख्या छह है, जिसमें व्याकरण एक वेदाङ्ग है । व्याकरण के उत्पत्ति के विषयमें तैत्तिरीयसंहिता में कहागया है कि इन्द्रने अखण्डावाक् को विभक्ति-प्रत्यय भेद से व्याकृ (वि+आ+कॄ हिं॒साया॑म् - खण्डित) किया था। अतः उसे व्याकरण (व्याक्रियन्ते अर्था येनेति) कहाजाता है । वैदिक व्याकरण को इसीलिये ऐन्द्रव्याकरण भी कहते हैं । प्रातिशाख्य ग्रन्थों में वह मिलता है । ऋक्तन्त्र में कहागया है कि इदमक्षरच्छन्दो वर्णशः समनुक्रान्तम् । ब्रह्मा बृहस्पतये प्रोवाच । बृहस्पतिरिन्द्राय । इन्द्रो भरद्वाजाय । भरद्वाजः ऋषिभ्यः । ऋषयः ब्राह्मणेभ्यः । तं खल्विदममक्षरसमाम्नायं ब्रह्मराशिरित्याचक्षते । कथित है कि समुद्रवत् व्याकरणं महेश्वरे तदर्द्धकुम्भोद्धरणं बृहस्पतौ । तद्भागभागाच्च शतं पुरन्दरे कुशाग्रविन्दुत् पतितं हि पाणिनौ ॥ यदि शिवजी के व्याकरण का ज्ञान को एक समुद्र के साथ तुलना किया जाय, तो बृहस्पति का ज्ञान अर्धकुम्भ मात्र होगा। इन्द्र का ज्ञान उसका शतभाग से एकभाग होगा। और पाणिनी के व्याकरण का ज्ञान कुशाग्रमात्र होगा । संस्कृतसे लेकर समस्त साधारण अथवा लौकिक (लोकेविदिता लौकिकाः) भाषा का शुद्धता उसके व्याकरणसे निर्णय किया जाता है, जैसेकि पतञ्जलि के "व्याकरण महाभाष्य" के आरम्भमें लिखागया है । परन्तु इसके विपरीत वैदिकव्याकरण का शुद्धता उसके वेदसम्मत होनेसे सिद्धहोता है (वेदेविदिता वैदिकाः) । अतः वैदिकव्याकरण लौकिकव्याकरणसे भिन्न होता है, जैसेकि पतञ्जलिने कहा है । उसी वैदिकभाषा को पाणिनीने छन्दस् कहा है (उदाहरण - छन्दसो यदणौ – अष्टाध्यायी 4-3-71)। कहींकहीं उसकेलिये दिव्या अथवा भारती शब्द का व्यवहार होता है । भागवत 1-4-13 में भी कहागया है कि मन्ये त्वां विषये वाचां स्नातमन्यत्र छान्दसात् । शिक्षाग्रन्थों तथा प्रातिशाख्य प्रत्येक पद का निर्वचन करते हैं । परन्तु पाणिनी ने ऐसा नहीं किया । विषयवस्तु का क्रम भी दोनों मे भिन्न है । यास्क के निरुक्त और निघण्टु, शान्तनव के फिट् सूत्र, व्याडि के जटापटल, वररूची के धातुपाठ – इन सबका व्यवस्थान अष्टाध्यायी से भिन्न है । उपसर्गके व्यवहार वेद और अष्टाध्यायीमें भिन्न है । वेदमें यह अलग रहते हैं, परन्तु अष्टाध्यायीमें यह क्रियापदसे युक्त रहते हैं । वेदमें ळ (जैसे अग्निमीळे) व्यवहार होता है । परन्तु अष्टाध्यायीमें नहीं । वेदमें पुंलिङ्ग अकारान्त शव्द – जैसे देवः - का कतृकारक रूप देवासः हो सकता है । परन्तु अष्टाध्यायीमें यह केवल देवाः होगा । उसी प्रकार वेद में करण कारक वहुवचन में देवेभिः होता है, जब कि अष्टाध्यायीमें यह देवैः होता है । ऐसे और भी वहुत सारे उदाहरण है जो दिखाता है कि वैदिक और संस्कृत भाषायें भिन्न है । डीएनए की अभिन्न कैसे होगी! अब नया शब्दानुशासन होगा। क्यों कि प्रयोगेन् अभिज्वलन्ति। प्रमथ्यु वहीं बैठ गया है ताक में प्रतिबंध एंजाइम अक्सर डिमर और डीएनए अनुक्रम के रूप में कार्य करें जिसे प्रत्येक प्रतिबंध एंजाइम पहचानता हैऔर विदलन प्राय: चारों ओर सममित होता है एक केंद्रीय बिंदु. यहाँ, दोनों किस्में डीएनए डबल हेलिक्स को विशिष्ट रूप से काटा जाता है लक्ष्य अनुक्रम के भीतर बिंदु(नारंगी)। कुछ एंजाइम, जैसे HaeIII, सीधे डबल हेलिक्स में काटें और दो कुंद सिरे वाले डीएनए अणु छोड़ें; दूसरों के साथ, जैसे इकोआरआई और हिंदIII, प्रत्येक स्ट्रैंड पर कट क्रमबद्ध हैं। ये क्रमबद्ध कट "चिपचिपा" उत्पन्न करते हैं समाप्त होता है"- लघु, एकल-स्ट्रैंड ओवरहैंग जो कटे हुए डीएनए अणुओं को वापस जुड़ने में मदद करते हैं पूरक बेसपेयरिंग के माध्यम से एक साथ। यह डीएनए अणुओं का पुनः जुड़ना है डीएनए क्लोनिंग के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है हम बाद में चर्चा करेंगे। प्रतिबंध न्यूक्लिअस हैं आमतौर पर बैक्टीरिया और उनके से प्राप्त किया जाता है, नाम उनकी उत्पत्ति को दर्शाते हैं; उदाहरण के लिए,एंजाइम इकोआरआई एस्चेरिचिया कोलाई से आता है।सैकड़ों विभिन्न प्रतिबंध एंजाइम व्यावसायिक रूप से उपलब्ध हैं। पैलिन्ड्रोम भी दीख गया‌ न! वही अपने विलोम पद ? राघवपदीयम् भी। प्रकृति का!

Bal Gangadhar Tilak

1 अगस्त/पुण्यतिथि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक का जन्म महाराष्ट्र के कोंकण प्रदेश (रत्नागिरि) के चिक्कन गांव में 23 जुलाई 1856 को हुआ था। इनके पिता गंगाधर रामचंद्र तिलक एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे। अपने परिश्रम के बल पर शाला के मेधावी छात्रों में बाल गंगाधर तिलक की गिनती होती थी। वे पढ़ने के साथ-साथ प्रतिदिन नियमित रूप से व्यायाम भी करते थे, अतः उनका शरीर स्वस्थ और पुष्ट था। 1879 में उन्होंने बी.ए. तथा कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की। घरवाले और उनके मित्र संबंधी यह आशा कर रहे थे कि तिलक वकालत कर धन कमाएंगे और वंश के गौरव को बढ़ाएंगे, परंतु तिलक ने प्रारंभ से ही जनता की सेवा का व्रत धारण कर लिया था। परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने अपनी सेवाएं पूर्ण रूप से एक शिक्षण संस्था के निर्माण को दे दीं। सन्‌ 1880 में न्यू इंग्लिश स्कूल और कुछ साल बाद फर्ग्युसन कॉलेज की स्थापना की। तिलक का यह कथन कि 'स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा' बहुत प्रसिद्ध हुआ। लोग उन्हें आदर से 'लोकमान्य' नाम से पुकार कर सम्मानित करते थे। उन्हें हिन्दू राष्ट्रवाद का पिता भी कहा जाता है। लोकमान्य तिलक ने जनजागृति का कार्यक्रम पूरा करने के लिए महाराष्ट्र में गणेश उत्सव तथा शिवाजी उत्सव सप्ताह भर मनाना प्रारंभ किया। इन त्योहारों के माध्यम से जनता में देशप्रेम और अंगरेजों के अन्यायों के विरुद्ध संघर्ष का साहस भरा गया। तिलक के क्रांतिकारी कदमों से अंगरेज बौखला गए और उन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाकर छ: साल के लिए 'देश निकाला' का दंड दिया और बर्मा की मांडले जेल भेज दिया गया। इस अवधि में तिलक ने गीता का अध्ययन किया और गीता रहस्य नामक भाष्य भी लिखा। तिलक के जेल से छूटने के बाद जब उनका गीता रहस्य प्रकाशित हुआ तो उसका प्रचार-प्रसार आंधी-तूफान की तरह बढ़ा और जनमानस उससे अत्यधिक आंदोलित हुआ। तिलक ने मराठी में 'मराठा दर्पण व केसरी' नाम से दो दैनिक समाचार पत्र शुरू किए जो जनता में काफी लोकप्रिय हुए। जिसमें तिलक ने अंग्रेजी शासन की क्रूरता और भारतीय संस्कृति के प्रति हीनभावना की बहुत आलोचना की। उन्होंने ब्रिटिश सरकार को भारतीयों को तुरंत पूर्ण स्वराज देने की मांग की, जिसके फलस्वरूप और केसरी में छपने वाले उनके लेखों की वजह से उन्हें कई बार जेल भेजा गया। तिलक अपने क्रांतिकारी विचारों के लिए भी जाने जाते थे। ऐसे भारत के वीर स्वतंत्रता सेनानी का निधन 1 अगस्त 1920 को मुंबई में हुआ।

Kavita (Kasturi Gandh)

कस्तूरी गंध तुमको क्या मालूम कि,कितना प्यार किया करती हूं। ठोकर खाकर संभल-संभल,कर सदा बढ़ा करती हूं।‌। रुसवा ना हो जाए मोहब्बत की ये,दुनियां हमारी। मिले उमर लंबी इसको ये,दुआ किया करती हूं।। आशाओं के दीप जलाएं,हृदय अंधेरी कुटिया। बाती बन में जली प्रियतम,सदा तुम्हारी सुधियां।। मिल के दिया बाती सजना,प्रीत की रीत निभाएं। मैं ही पिघली मोम सरीखी,तन्हाई की रतियां।। तुमको क्या मालूम कि कितना,प्यार किया करती हूं। सुध- बुध खो में बावरी हो गई,बोली वीणा जैसी। गीतों में शब्दों की सरिता,बहीं ये सजना कैसी।। बिरही मन का दर्द बना,कस्तूरी गंध के जैसा। यौवन धन की मैंने वसीयत,की है साजन तुमको।। तुमको क्या मालूम कि कितना,प्यार किया करती हूं। अब और ना भटकाओ,मेरे इस पागलपन को। मेरे प्यार की मंज़िल हो तुम,रोको न इस मन को।। चंदन वन सी देह महकती,कैसे इसे छुपाऊं। कई निगाहें गिद्ध बनी है,देखे यौवन धन को।। तुमको क्या मालूम कि कितना,प्यार किया करती हूं। ठोकर खाकर संभल संभल,कर सदा बढ़ा करती हूं।। रुसवा ना हो जाएं मोहब्बत की,ये दुनियां हमारी। मिले उमर लंबी इसको ये,दुआ किया करती हूं।।

Ghazal-162

ग़ज़ल- जब भी इंसाँ ख़ुदी को भूल गया वो हक़ीक़तन, ख़ुशी को भूल गया ख़ुदी=स्व, निजित्व आमजन के सुने मसाइल तो, मैं भी कमफ़ुर्सती को भूल गया। मसाइल= प्रकरण, मामले, समस्याएं कम फुर्सती=वक़्त की कमी फ़र्ज़ यूँ हैं किए अदा, जिनमें, मैं निजी दुश्मनी को भूल गया। काम की दौड़-भाग में फँसकर, आदमी, आदमी को भूल गया। फेसबुक के हसीन ख़्वाबों में, अस्ल की ताज़गी को भूल गया काम में डूब के सुकूँ वो मिला मैं ग़म-ए-ज़िंदगी को भूल गया इसक़दर याद में डूबा, उसकी, जब मिला वो, उसी को भूल गया।

Ashtavakra Geeta Chapter-10

अष्टावक्र संहिता; अध्याय दस : परम शान्ति अष्टावक्र उवाच : विहाय वैरिणम् कामम् अर्थम् च अनर्थसंकुलम् । धर्मम् अपि एतयो: हेतु सर्वत्र अनादरम् कुरु ॥१॥ अष्टावक्र ने कहा: छोड़ कर तू काम वैरी को और अनर्थ के भंडार अर्थ को। मत तू आदर सहित आसक्त रह समझ कर निज धर्म क्योंकि यही तो है हेतु अर्थ और काम का ॥१॥ रामचरितमानस मे तुलसी ने इसी के लिए कहा : अरथ न धरम न कामरुचि गति न चहहुँ निरवान । जनम जनम प्रभु पद सपथ यह वरदान न आन ॥ स्वप्न इन्द्रजालवत् पश्य दिनानि त्रीणि पंच वा।मित्र क्षेत्र धनआगार दारया आदि सम्पद : ॥२॥ ये तीन-पाँच केवल हैं दिवास्वप्न के इन्द्रजाल सम । मित्र, कलत्र, क्षेत्र पर अधिकार धन और वैभवशाली गेह संपत्ति से भरपूर हों पर झूठ हैं ॥२॥

Ghazal-161

ग़ज़ल- ज़ह्न उसका कुछ न बदला आज तक, आदमी जैसा था वैसा आज तक। यह समझने में तनिक अरसा लगा, कष्ट का कारण है माया आज तक। माँ के ॠण से कौन उॠण हो सका, ज़िन्दगी में माँ का जाया आज तक। ग़म को जिसने चाँद से साझा किया, चाँद में महबूब पाया आज तक। शायरी विज्ञान से आगे रही, जिसने सच को पहले पाया आज तक। सोच में आलस्य से इंसाँ रुके, किन्तु है गतिमान दुनिया आज तक। घोर अँधियारों भरे संसार में, आदमी दिल को जलाता आज तक। शोषितों के हक़ में जिसने जो किया, उसको माथे से लगाया आज तक। जो इबादत में लिखा था दोस्तो, गीत वो ही गुनगुनाया आज तक। राह की सब अड़चनों को पार कर, प्रेम का पौधा लगाया आज तक। शुक्रिया ऐ शायरी तूने मुझे, रू-ब-रू मुझ से कराया आज तक।

Ghazal-160

ग़ज़ल- ग़जब है शायरी इसकी अलग ही राह होती है, किसी की आह पे इसमें,किसी की वाह होती है। सँवरना रोज पड़ता है बिगड़ हम खुद ही जाते हैं, मगर यारो,तरक्की की इसी से राह होती है। न रखना याद पड़ता सच,न होते झूठ के हैं पैर, मगर झूठे को सच्चे से कसकती डाह होती है। डरो मत मुश्किलों से तुम,करो हिम्मत,बढ़ो आगे, जहाँ रस्ते नहीं दिखते,वहां भी राह होती है। कभी जो लड़खड़ाओ तो,करो कोशिश सँभलने की, निकलती कोशिशों से जो,हसीं वो राह होती है। मुझे भी करने दो वो सब जिन्हें तुम करते थे अब तक, तजारिब से जो मिलती है,सही वो राह होती है।, जहाँ के वास्ते “मैं” है,न"मैं"होता,न कुछ होता, सभी हैं फलसफे"मैं"से,इसी से आह होती है। हराया"मैं"ने ही मुझको न"मैं"होता न ग़म होता, बिना इसके न कोई ज़िन्दगी में चाह होती है। Maahir

Ghazal-159

ग़ज़ल - इश्क़ में कुछ मज़ा नहीं होता, उनसे जब फ़ासला नहीं होता। इश्क़ अक्सर फ़रेब देता है, ख़त्म पर सिलसिला नहीं होता। इश्क़ का दर्द ही वो दर्द है जो, कुछ भी हो,बेमज़ा नहीं होता। दर्द-ए-दिल एक बार उट्ठा तो, मौत से भी जुदा नहीं होता। तुम नहीं जान पाए क्या अब तक? इश्क़ का कुछ सिला नहीं होता। ज़ुल्म करते हुए समझते हो, बेकसों का ख़ुदा नहीं होता। बात अब ख़त्म भी हो जल्वों की, तज़किरों से भला नहीं होता। इश्क़ में अब ख़बर नहीं "र", दर्द होता है या नहीं होता। सिला=प्रतिफल,इनाम बेकस=मज़बूर,असहाय तज़किरा=ज़िक्र,चर्चा

Ghazal-158

आप क्यों इतना तमतमाए हैं किसकी अम्मा से मिल के आए हैं//1 एक पगड़ी उठा नहीं सकते सर पे क्यों आसमाँ उठाए हैं//2 मीलों पैदल चले हैं जंगल में कुछ तो पूछो कि कैसे आए हैं//3 कब तू होगा तुलू'अ खिड़की पर कब से हम टकटकी लगाए हैं//4 नुस्ख़ा कोई नया न बोलो तुम नुस्ख़े सब हमने आज़माए हैं//5 चार घण्टे हैं रात होने में पर वो ठरकी हैं, अकबकाए हैं//6 गार्ड बोला नहीं हैं मैडम जी आप क्यों इतना सज के आए हैं//7 यूँ न दिखते हैं हम परेशाँ हाल 'राज़'हमने भी ग़म उठाए हैं//8

Ghazal-157

ग़ज़ल- पतंगों को ख़लाओं में उड़ाना सीख लो साहिब, ए आई दौर में जीवन चलाना सीख लो साहिब, सभी जीवों से बेहतर मानते ख़ुद को,तो लाज़िम है, ज़रा इंसानियत से दिल लगाना सीख लो साहिब। कड़ी मेहनत से पाया है मुकाम ऊँचा,चलो माना, अना को भी तो कुछ अपनी,झुकाना सीख लो साहिब। बुरा गर वक़्त आया तो,यही कुछ काम आयेगा, ज़रा मिल-बाँट के जीवन चलाना सीख लो साहिब। यहाँ होता वही जिससे कि वो इंकार करते हैं, सही अनुमान लहजों से लगाना सीख लो साहिब। 'वही’का आसमानों से तो अब आना नहीं मुमकिन, जहां अपने तजारिब से सजाना सीख लो साहिब। मुझे लगता है'माहिर'काम है यह भी इबादत-सा, किसी रोते हुए जन को हँसाना सीख लो साहिब। ए आई = आर्टिफिशल इंटेलिजेंस, ख़ला= निर्वात, अना=अहंकार,वही = ईश्वरीय निर्देश, तजारिब= तजुर्बे

Ghazal-156

ग़ज़ल- जब भी इंसाँ ख़ुदी को भूल गया वो हक़ीक़तन, ख़ुशी को भूल गया ख़ुदी=स्व, निजित्व, self आमजन के सुने मसाइल तो, मैं भी कमफ़ुर्सती को भूल गया। मसाइल= प्रकरण, मामले, समस्याएं कम फुर्सती=वक़्त की कमी फ़र्ज़ यूँ हैं किए अदा, जिनमें, मैं निजी दुश्मनी को भूल गया। काम की दौड़-भाग में फँसकर, आदमी, आदमी को भूल गया। फेसबुक के हसीन ख़्वाबों में, अस्ल की ताज़गी को भूल गया काम में डूब के सुकूँ वो मिला मैं ग़म-ए-ज़िंदगी को भूल गया इसक़दर याद में डूबा, उसकी, जब मिला वो, उसी को भूल गया।

Ghazal-155

ग़ज़ल- कौन जाने जीत है या हार है, सोच मेरी बादलों के पार है। शाख़ माने गुल का कुछ अहसान क्यों ? ज़िन्दगी उसकी बचाता ख़ार है। रेंगते,डसते वो, जब मौक़ा मिले, रीढ़ वाला अब कहाँ किरदार है। रंग रोग़न से उबर पाता नहीं, इश्क़ जिसकी सोच में व्यापार है। ज़ोर से नारे लगाते हैं वही, बात का जिनकी न कुछ आधार है। बात ही से तो नहीं बहलेगा ये, आदमी इस दौर का बेदार है। मस्लहत दिल में निहाँ "र" यहाँ, आदमीयत ऊपरी आचार है।

Ghazal-154

ग़ज़ल- लड़कपन से उबर पाए हैं जब से, जिए बस ज़िन्दगी अपने ही ढब से। दुआ मेरी रही बस ये ही रब से। रहे इंसानियत का मान अब से, हुआ जब से मुझे दीदार उनका, रहा मक़्सद यही इक ख़ास तब से। बताया बेज़ुबां आँखों ने वो भी, वो कह पाए जिसे अब तक न लब से। जो उपदेशों पे अपने चल सका हो, ज़माना मुंतज़िर है उसका कब से। मसाइल ज़िन्दगी के हो सके हल, रखा है स्वार्थ को कुछ दूर जब से। व्यवस्था कुछ बने ऐसी वतन में, किसी का भी न हो अपमान, अब से। सचाई से किया जब आकलन तो, लगे कुछ फ़ैसले अपने अजब से। अँधेरे जब डराते ज़िन्दगी के। तो पाते रास्ता 'माहीर'अदब से। मुंतज़िर=प्रतीक्षा करने वाला, इंतजार में। अदब=साहित्य, शिष्टाचार। माहीर

Ghazal153

ग़ज़ल- ग़जब है शायरी इसकी अलग ही राह होती है, किसी की आह पे इसमें, किसी की वाह होती है। सँवरना रोज पड़ता है बिगड़ हम खुद ही जाते हैं, मगर यारो, तरक्की की इसी से राह होती है। न रखना याद पड़ता सच, न होते झूठ के हैं पैर, मगर झूठे को सच्चे से कसकती डाह होती है। डरो मत मुश्किलों से तुम, करो हिम्मत, बढ़ो आगे,, जहाँ रस्ते नहीं दिखते, वहां भी राह होती है। कभी जो लड़खड़ाओ तो, करो कोशिश सँभलने की, निकलती कोशिशों से जो, हसीं वो राह होती है। मुझे भी करने दो वो सब जिन्हें तुम करते थे अब तक, तजारिब से जो मिलती है, सही वो राह होती है।, जहाँ के वास्ते “मैं” है, न "मैं" होता, न कुछ होता, सभी हैं फलसफे "मैं" से इसी से आह होती है। हराया "मैं" ने ही मुझको न "मैं" होता न ग़म होता, बिना इसके न कोई ज़िन्दगी में चाह होती है। Maahir

Ghazal-152

ग़ज़ल - इश्क़ में कुछ मज़ा नहीं होता, उनसे जब फ़ासला नहीं होता। इश्क़ अक्सर फ़रेब देता है, ख़त्म पर सिलसिला नहीं होता। इश्क़ का दर्द ही वो दर्द है जो, कुछ भी हो,बेमज़ा नहीं होता। दर्द-ए-दिल एक बार उट्ठा तो, मौत से भी जुदा नहीं होता। तुम नहीं जान पाए क्या अब तक? इश्क़ का कुछ सिला नहीं होता। ज़ुल्म करते हुए समझते हो, बेकसों का ख़ुदा नहीं होता। बात अब ख़त्म भी हो जल्वों की, तज़किरों से भला नहीं होता। इश्क़ में अब ख़बर नहीं "र", दर्द होता है या नहीं होता। सिला=प्रतिफल, इनाम, बेकस= मज़बूर, असहाय, तज़किरा=ज़िक्र, चर्चा

Ghazal-151

ग़ज़ल- पतंगों को ख़लाओं में उड़ाना सीख लो साहिब, ए आई दौर में जीवन चलाना सीख लो साहिब, सभी जीवों से बेहतर मानते ख़ुद को, तो लाज़िम है, ज़रा इंसानियत से दिल लगाना सीख लो साहिब। कड़ी मेहनत से पाया है मुकाम ऊँचा, चलो माना, अना को भी तो कुछ अपनी, झुकाना सीख लो साहिब। बुरा गर वक़्त आया तो, यही कुछ काम आयेगा, ज़रा मिल-बाँट के जीवन चलाना सीख लो साहिब। यहाँ होता वही जिससे कि वो इंकार करते हैं, सही अनुमान लहजों से लगाना सीख लो साहिब। 'वही’ का आसमानों से तो अब आना नहीं मुमकिन, जहां अपने तजारिब से सजाना सीख लो साहिब। मुझे लगता है'माहिर'काम है यह भी इबादत-सा, किसी रोते हुए जन को हँसाना सीख लो साहिब। ए आई = आर्टिफिशल इंटेलिजेंस, ख़ला= निर्वात, अना=अहंकार,वही = ईश्वरीय निर्देश, तजारिब= तजुर्बे

Rasleela Nathdwara Style | Twin Eternals - Matter & Energy

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