प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- कभी देखा नहीं संसार के उसको उजालों में, बसा इक उम्र से है एक वो चेहरा ख़यालों में। भलाई जो किसी में है, उजागर कर रहे बेशक़, दिखा करते हैं खुल के ऐब भी लेकिन, उजालों में। उजागर करना=स्पष्ट करना, ऐब=कमियां, दोष किया करते थे जो वादे ग़रीबी को हटाने की, ग़रीबी हट गई उनकी, वो लेकिन हैं सवालों में। अगर कुछ बात कहनी हो, नज़र पैनी ज़रा रखना लगे हैं घात में अब भेड़िए, भेड़ों की खालों में। कभी जनता की सेवा का अगर मौका मिला उनको, नज़ाकत देख लेना झूमती फिर उनकी चालों में। आवाम=जनता, # हक़ीक़त देखनी है तो ज़रा महलों से निकलो जी, मिलेगी आमजनता के वो कुछ उलझे सवालों में। हक़ीक़त =सच्चाई अमीरी बढ़ रही कुछ की, सभी की कीमतों पर अब, हुआ है बंद धन तो कार्पोरेट दुनिया के तालों में। 'Maahir'