दोस्तों पेश-ए-ख़िदमत है मेरी लिखी नयी ग़ज़ल!आज सुब्ह मेरी नींद भी नहीं टूटी थी जब इस ग़ज़ल का एक मिसरा मेरे मन में कौंध गया जिस पर पहले मैंने ग़ज़ल का मतला बनाया और फिर पूरी ग़ज़ल कह दी! - मिसरा इस प्रकार है- 'मिलने तू आ जा कभी शाम ढले घर मेरे' पेश है पूरी ग़ज़ल,अर्ज़ किया है- तेरी भी प्यास बुझा देंगे लब-ए-तर मेरे, मिलने तू आ जा कभी शाम ढले घर मेरे//1 मेरा मंज़िल की तशफ़्फ़ी से सरोकार नह,ीं मुझको भटका दे रह-ए-इश्क़ में रहबर मेरे//2 फ़ौक़ियत अब मेरी क़ुनबे में कहाँ बाक़ी रही, हो गये तिफ़्ल भी अब क़द में बराबर मेरे//3 देते हैं उनको तो तनख़्वाह मेरे बच्चे अब, अब मेरी बात कहाँ सुनते हैं नौकर मेरे//4 अब तो 'इरशाद' भी करते नहीं महफ़िल में कभी, लोग जो सुनते थे अशआर मुकर्रर मेरे//5 रह गये लफ़्ज़ मेरे ख़ाली मकानों की तरह, ले गया कौन ख़्यालात चुरा कर मेरे//6 तूने क्या छू दिया चाहत की हरी डाली को, हो गये ग़ुंचा-ए-अहसास मो'अत्तर मेरे//7 करनी होगी तुझे मर कर भी तलाफ़ी इक दिन, कब तलक ख़ुश रहेगा पैसे दबाकर मेरे//8 'Maahir'आएगा पस-ए-मर्ग तेरे मयख़ाने, घूँट दो पीने को ऐ साक़ी-ए-कौसर मेरे//9 'Maahir'