प्रस्तुत हैं कुछ और मुतफ़र्रिक शेर- वो हैं सूरज और मैं जुगनू फ़क़त, पर अँधेरों से अदावत है तो है। हो रहा मुझसे हुजूम-ए-ग़म ख़फ़ा, मुस्कुराने की जो आदत है तो है। जुर्म कुछ इस बात पर भी तो हुए, माफ़ करना उसकी आदत है तो है। बात हक़ की ही तो बस कहता हूँ मैं, वो इसे कहते बग़ावत है, तो है। कर चुका लम्हा सनक में इक ख़ता, फिर जो सदियों की मुसीबत है तो है। नासमझ कितने हैं वो जो आज 'शेखर'? लम्हे के आगे सदी को भूलते हैं। सोच पर भी लगा बंद अब दोस्तो, आदमी की कहाँ ज़िन्दगी आ गई। आज मक़्तूल पे जुर्म साबित करे, किस गिरावट पे यह मुंसिफ़ी आ गई। ज़िन्दगी की जुस्तज़ू में,आ गई जाने किधर ? पत्थरों के जंगलों में,आदमी ढूँढे, नज़र। एकअल्हड़ सी मचलती,फिर ठिठकती,दौड़ती, पर्वतों की नद्दियों के नीर सी होती ग़ज़ल! 'Maahir'