ग़ज़ल दोस्तो,मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है मैंने यह ग़ज़ल कितने समय पहले लिखी थी!परसों जब मैं बंदर और तोते के एक बहुत ही प्यारे वीडियो को पोस्ट कर रहा था,और साथ में पोस्ट करने के लिए अपनी ग़ज़लों में से बंदर पर लिखा कोई शेर ढूंढ रहा था,तब मुझे मेरे ग़ज़ल-आर्काइव से यह ग़ज़ल मिली!कल मैंने इस ग़ज़ल पर थोड़ा काम किया और अब आप सबों की नज़्र कर रहा हूँ! बराए मेहरबानी मुलाहिज़ा फ़रमाएँ,अर्ज़ किया है- तू हुलिया देख के कमतर समझ रहा है जिसे वो इक नगीना है,पत्थर समझ रहा है जिसे//1 तू उसको देख फ़रिश्ते की आँख से ऐ दोस्त वो हमसे अच्छा है,बंदर समझ रहा है जिसे//2 अमीरी और ग़रीबी की शादी का है फल है उसकी बीवी तू दुख़्तर समझ रहा है जिसे//3 है गिर्द-ओ-पेश में उसके भी झाड़ काँटों की तू सिर्फ़ फूल की झालर समझ रहा है जिसे//4 जहाँ मैं रहता हूँ उसकी ज़ियारतों के लिए दयार-ए-ग़म है,मेरा घर समझ रहा है जिसे//5 हँसा हँसा के वो करता है सबके ग़म का इलाज है सच में हीरो तू जोकर समझ रहा है जिसे//6 हयात अपने ही कर्मों का आइना है 'Maahir' तेरा किया है,मुक़द्दर समझ रहा है जिसे//7 تو حلیہ دیکھ کے کمتر سمجھ رہا ہے جسے وہ اک نگینہ ہے، پتھر سمجھ رہا ہے جسے //1 تو اسکو دیکھ فرشتے کی آنکھ سے اے دوست وہ ہم سے اچھا ہے، بندر سمجھ رہا ہے جسے //2 امیری اور غریبی کی شادی کا ہے پھل ہے اسکی بیوی تو دختر سمجھ رہا ہے جسے //3 ہے گرد وپیش میں اسکے بھی جھاڑ کانٹوں کی تو صرف پھول کی جھالر سمجھ رہا ہے جسے //4 جہاں میں رہتا ہوں، اسکی زیارتوں کے لیے دیار غم ہے، میرا گھر سمجھ رہا ہے جسے //5 ہنسا ہنسا کے وہ کرتا ہے سب کے غم کا علاج ہے سچ میں ہیرو تو جوکر سمجھ رہا ہے جسے //6 حیات اپنے ہی کرموں کا آئنہ ہے 'راز' تیرا کیا ہے، مکدر سمجھ رہا ہے جسے //7 'Maahir' हुलिया-मुखाकृति,चेहरा,शक्लो सूरत दुख़्तर-बेटी,कन्या,पुत्री ज़ियारत-दीदार,दर्शन,मुलाक़ात(किसी आदर योग्य व्यक्तित्व से) दयार-ए-ग़म-दुख का गृह गिर्द-ओ-पेश-आसपास,चारों-ओर,क़रीब में सोज़-ए-हिज्र का ऐवाँ-वियोग के जलन का महल हयात-जीवन,ज़िंदगी