दोस्तो, कल इस ग़ज़ल के लिखने की शुरुआत कुछ यूँ हुई कि मैं दोपहर को जब खाना खाने के बाद अपने बिस्तर में लेटा हुआ था तो कुछ निकट भूतकाल में गुज़रे हुए दिनों की याद आ गई, ख़ास कर गुज़श्ता माहे दिसंबर, जिस दरमियान मैं कई परेशानियों से गुज़रा, यहाँ तक कि अपनी कार और अपना स्कूटर भी बेचना पड़ा। मैं उनकी कमियाँ महसूस कर रहा था गोया मेरा कोई प्यारा घोड़ा मुझसे बिछड़ गया हो, हालांकि उनका शुमार जीवित चीज़ों में नहीं है, मगर मैं अक्सर उनसे बातें करता था, उनसे उनकी परेशानियां पूछता था, उनका भरसक ख़्याल रखता था. मैं सोच रहा था वो कहाँ, किनके पास और किस हाल में होंगे और मैं बरबस विछोह के आँसुओं से भर गया, और मेरे दिल से ये अशआर निकले जिनको आप सबों की समा'अतों के हवाले कर रहा हूँ. बराए मेहरबानी मुलाहिज़ा फ़रमाएँ, अर्ज़ किया है - वो अंतिम बार था मैं घर से अपनी कार से निकला फिर उसको बेच कर रोते हुए बाज़ार से निकला//१ وہ انتم بار تھا میں گھر سے اپنی کار سے نکلا پھر اسکو بیچ کر روتے ہوئے بازار سے نکلا // थी चेहरे पे उदासी और दिल में साधुओं सा भाव नया इक आदमी उस दिन मेरे किरदार से निकला //२ تھی چہرے پے اداسی اور دل میں سادھوؤں سا بھاؤ نیا اک آدمی اس دن میرے کردار سے نکلا //٢ ज़ियादातर तो मेरे आँसुओं में बह गया दुखड़ा बचा था थोड़ा जो दिल में, मेरे अशआर से निकला //३ زیاداتر تو میرے آنسوؤں میں بہہ گیا دکھڑا بچا تھا تھوڑا جو دل میں، میرے اشعار سے نکلا //٣ फ़साने होशवालों नें हज़ारों झूठ लिख डाले जो सच था वाक़या वो तो लबे मयख़्वार से निकला //४ فسانے ہوشوالوں نیں ہزاروں جھوٹھ لکھ ڈالے جو سچ تھا واقعہ وہ تو لب میخوار سے نکلا // अमूमन हम बहुत कम बोलते हैं बज़्म में लेकिन तुम्हारा ज़िक्र जब निकला बहुत विस्तार से निकला//५ عموماً ہم بہت کم بولتے ہیں بزم میں لیکن تمہارا ذکر جب نکلا بہت وستار سے نکلا //٥ तुम्हारे नाम का ठप्पा लगा था मेरे माथे पर बहुत बचते हुए मैं कूचा-ए-अग़्यार से निकला //६ تمہارے نام کا ٹھپہ لگا تھا میرے ماتھے پر بہت بچتے ہوئے میں کوچۂ اغیار سے نکلا //٦ नयी क्या बात थी ग़ालिब सी है मेरी कहानी भी मेरे सुख का हर इक क़िस्सा लबे आज़ार से निकला //७ نئی کیا بات تھی غالب سی ہے میری کہانی بھی میرے سکھ کا ہر اک قصہ لب آزار سے نکلا //٧ डुबाये हम गये जिसमें उसी दर्या नें बोला ये हमारे खून का धब्बा तेरी तलवार से निकला //८ ڈبایے ہم گئے جسمیں اسی دریا نیں بولا یہ ہمارے خون کا دھبا تیری تلوار سے نکلا //٨ जो निकली रूह मेरी जिस्म से तो ये लगा मुझको कि जैसे जिन्न कोई ईंट की दीवार से निकला //८ جو نکلی روح میری جسم سے تو یہ لگا مجھ کو کہ جیسے جن کوئی اینٹ کی دیوار سے نکلا //٨ मिली ना 'राज़' को इक पल की भी ख़ुशियाँ कि दुन्या से वो यूँ निकला कि जैसे ग़म दिले अफ़्गार से निकला //१० ملی نا 'راز' کو اک پل کی بھی خوشیاں کہ دنیا سے وہ یوں نکلا کہ جیسے غم دلے افگار سے نکلا //١٠ 'Maahir' किरदार-चरित्र, नाटक के पात्र अशआर-शेर का बहुवचन लफ़्ज़-शब्द लबे मयख़्वार से-शराबी के मुँह से अमूमन-अनुमानतः,सामान्यतया,प्रायः,बहुधा बज़्म-सभा,महफ़िल कूचा-ए-अग़्यार-दुश्मन/प्रतिद्वंद्वी की गली लबे आज़ार से-कष्ट/पीड़ा/दुख/तकलीफ़ के मुँह से दर्या-नदी रूह-आत्मा,जान,प्राण जिस्म-शरीर जिन्न-(शाब्दिक)छुपा हुआ (लाक्षणिक)एक मनुष्य से भिन्न एक प्रजाति पवित्र क़ुरआन में इस का वर्णन'अल-जिन्न'अध्याय में आया है,भूत-प्रेत जैसा एक प्राणी जिसकी उत्पत्ति अग्नि से मानी जाती है,ऐसा व्यक्ति जो किसी काम में पूरे नब से जुटा रहे,दृढ़ चित्त,स्थिरनिश्चयी;शक्तिशाली या बलवान व्यक्ति दिले अफ़्गार-घायल हृदय