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Ghazal-182

ग़ज़ल- होश क़ायम रख सके जब उलझनों के दर्मियां, रास्ते मुझको मिले तब मुश्किलों के दर्मियां। जुर्रतों से जन्म पाया जुर्रतों से चल रही, ज़िन्दगी परवाज़ पाती आंंधियों के दर्मियां। ज़र्रे ज़र्रे को अलग सबसे बनाता है ख़ुदा, और कुछ सम्बन्ध रखता हरकतों के दर्मियां। क्या ग़जब का दोस्तो है इश्क़ का अंदाज़ ये, फ़ासले महसूस होते कुर्बतों के दर्मियां। वो मिलें या दूर हों मिलता कहाँ है चैन अब, राहतें किसको मिली हैं चाहतों के दर्मियां। एक को देेकर ज़ियादा,दूसरों से दोस्तो, बाप-माँ ने फूट डाली भाइयों के दर्मियां। रंग में तब भंग हो जाता है 'र' देख लो, नासमझ आ बैठते जब शायरों के दर्मियां। - र

कुत्तों की सरकार- (Hua Hai Shaah Ka Musahib...!)

जंगल मे अशिक्षा थी।जानवरों ने शिक्षा का महत्व समझ लिया,और स्कूल खोल दिया। मिलजुलकर सिलेबस तय हुआ।समानता लायी जाएगी,सबको सब कुछ सिखाया जायेगा। तो सबको सब कुछ सिखाया गया,एग्जाम हुए, िजल्ट आया।मछली तैरने में फुल मार्क्स,उड़ने दौड़ने में फेल हो गयी।पक्षी उड़ने में पास हुए,मगर तमाम कोचिंग ट्यूशन के बावजूद तैर न सके। कोयल गायन में फर्स्ट क्लास रही,और कुत्ते फेल हो गए। अब कुत्तों में बड़ा असंतोष फैला। वे अगले सत्र में भौकने को सिलेबस में रखने की मांग करने लगे। सबको बताया- "भौंकना मौलिक अधिकार है।हमारी स्वतंत्रता है।फंडामेंटल डॉगी राइट है,"बिन भौकन सब सून! क्या अब एक कुत्ता अपने ही जंगल मे भौंक भी नही सकता?? आंदोलन फैल गया,बड़ा समर्थन मिला। भौकना उत्तम कर्म होता है। न कोई सुर,न ताल,न तुक,न राग,न द्वेष। ना नियम की सीमा हो,न छंद का हो बंधन! जंगल में दर्जन भर कोयल हैं,उनको जब गाने का स्पेशल राइट मिला,तो क्या यह कोयलों का तुष्टिकरण करण नही था?उन्हें भौंकने की जिम्मेदारी क्यो नही दी गई? बताओ,बताओ ऐसे कैसे?? याने ऐसा चौक चौराहों,भजन पूजन के पंडालों में फुसफुसाकर बताया गया।कानाफूसी चहुं ओर फैल गयी। फिर टीआरपी के चक्कर मे टीवी कूदा।मीडिया में बैठे श्वानों की विभिन्न प्रजातियां भी दम खम से अपने स्पीशीज का साथ देने लगे। जो साथ न थे,उन पर कुत्तों ने हमला करके भगा दिया। अब तो कुत्ता टाइम्स, कुत्ता न्यूज, श्वान तक,और Doggy Now पर बैठे कुत्तन-कुत्तनियाँ दिन रात भौकने की महिमा का गान करते, और बुलाकर हर जानवर से पूछते- तुम वह आखिर भौकने के खिलाफ क्यूँ है? तुम्हे कुत्तों से इतनी नफरत क्यूं है? आखिर क्यूँ? क्यूँ? क्यूँ? कई बार स्टूडियो में कुत्ते ही भेड़,बकरी,मछली, मुर्गा,हिरन का भेष बनाकरआते।चैनल उन्हें स्वतंत्र विश्लेषक बताता,और खूब भौंकवाता। अथक मेहनत से आखिरकार पूरा जंगल कन्विंस हो गया।कुत्तों की सरकार बन गयी। सभी प्रमुख पदों पर कुत्ते आरूढ़ हुए। मने यूँ समझो कि कुत्ता ही वीसी हुआ,कुत्ता ही प्रिंसिपल,कुत्ता शिक्षक हुआ! और चौकीदार तो कुत्ता था ही। तो इस प्रकार सम्पूर्ण विद्यालय में कुत्तों का वर्चस्व हुआ।अब पहले मौके में सम्विधान संशोधन करके सिलेबस बदल दिया गया। नये सिलेबस में भौकना अनिवार्य तथा एकमात्र विषय था।सभी जानवर अपनी बोली छोड़ भौंक रहे थे।मगर क्या ही खाकर कुत्तों से बेहतर भौकते? अब विद्यालय में भौंकश्री,भौकभूषन,भौकरत्न के पुरस्कार बंटते है। और आश्चर्य की बात की कभी कभी मछली,पक्षी और घोड़े भी इनाम जीत जाते है,या जितवा दिये जाते हैं।इससे कुत्तों की निष्पक्षता पर यकीन बना रहता है। तो सिलेबस बदलने से बड़ा फर्क पड़ता है। हमारे देश मे भी स्कूली दिनों में विज्ञान,गणित एंटायर पोलिटिकल साइंस की किताब में छुपाकर, मस्तराम,गुलशन नंदा और वेद प्रकाश शर्मा को पढ़ने वालो ने, सुना है उन्हें सिलेबस ही बना दिया है। #कुत्तकथा

उम्र को दराज़ में रख दें! (Nazm)

उम्रदराज न बनें, उम्र को दराज़ में रख दें। खो जाएं ज़िन्दगी में, मौत का इन्तज़ार न करें! जिनको आना है आए, जिसको जाना है जाए। पर हमें जीना है, ये न भूल जाएं। जिनसे मिलता है प्यार, उनसे ही मिलें बार बार। महफिलों का शौक रखें, दोस्तों से प्यार करें! जो रिश्ते हमें समझ सकें, उन रिश्तों की कद्र करें। बंधें नहीं किसी से भी, ना किसी को बँधने पर मजबूर करें। दिल से जोड़ें हर रिश्ता, और उन रिश्तों से दिल से जुड़े रहें। हँसना अच्छा होता है पर अपनों के लिये, रोया भी करें। याद आएं कभी अपने तो, आँखें अपनी नम भी करें। ज़िन्दगी चार दिन की है, तो फिर शिकवे शिकायतें कम ही करें। उम्र को दराज़ में रख दें उम्रदराज़ न बनें !!

Ghazal-181

ग़ज़ल- ज़िन्दगी रब की इनायत है तो है, उस से कुछ हमको शिकायत है तो है। वो हैं सूरज और मैं जुगनू फ़क़त, पर अँधेरों से अदावत है तो है। ख़त्म हो जानी है जैसे भी जियो, ज़िन्दगी की ये हक़ीक़त है तो है। देखने में खोट बस नज़रों का है, कुछ न कुछ हर इक में सीरत है तो है। हो रहा मुझसे हुजूम-ए- ग़म ख़फ़ा, मुस्कुराने की जो आदत है तो है। बात हक़ की दोस्तो, कहता हूँ मैं, वो इसे कहते बग़ावत है, तो है। हम ख़यानत कर रहे हैं होश में, सादगी रब की अमानत है तो है। जुर्म कुछ तो इस वजह से भी हुए, माफ़ करना उसकी फ़ितरत है तो है। उससे ही औक़ात है हर जिन्स की, अब यही उसकी निज़ामत है तो है।

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति (8)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति असंसारस्य तु क्वापि न हर्ष:न विषादता । स:शीतलमना नित्यम् विदेह इव राजते॥२२॥ असंसारी जन के लिए हर्ष कहाँ,शोक कहाँ। वह तो सदा शीतल मन से विदेह हो विचरता इस संसार में॥२२॥ कुत्रापि न जिहासा अस्ति नाश:वा अपि न कुत्रचित् आत्मारामस्य धीरस्य शीतलाच्छतरात्मन: ॥२३॥ शीतल,शान्त,स्वच्छंद मन वाले आत्माराम के लिए न रहता कहीं कुछ त्यागने को न कहीं कुछ खोने को ॥२३॥ प्रकृत्या शून्यचित्तस्य कुर्वत:अस्य यदृच्छया। प्राकृतस्य इव धीरस्य न मान:नअवमानता ॥२४॥ (निज)प्रकृतिवश शून्य चित्त वाला करता वही जो भाता उसे धीर-प्रकृति पुरुष के लिए न कहीं मान न अवमानना ही॥२४॥

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVII:(5)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVII: तत्त्व ज्ञानी न मुक्त:विषयद्वेष्टा न वा विषयलोलुप:। असंसक्तमना नित्यम् प्राप्तम् प्राप्तम् उपाश्रुते ॥१७॥ मुक्त-पुरुष न करता द्वेष विषयों से न विषयलोलुप बना रहता अनासक्त होकर सदा जो होता प्राप्त उसी में रहता आनन्द से॥१७॥ समाधान असमाधान हित अहित विकल्पना। शून्य-चित्त:न जानाति कैवल्यम् इव संस्थित: ॥१८॥ समस्या के समाधान होने या उलझ जाने काम बनने या बिगड़ जाने को सोचकर असंपृक्त मन वाला सदा निर्लेप बना रहता ॥१८॥

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVII: तत्व ज्ञानी (6)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVII: तत्व ज्ञानी निर्मम:निरहंकार: न किंचित् इति निश्चित: अन्तर्गलितसर्वांश: कुर्वन् अपि करोति न ॥१९॥ अन्तर की सभी कामनाएँ सर्वांश में जिसकी हो गईं विनिष्ट ऐसा व्यक्ति ममता और अहंकार त्याग कर सब कार्य करते हुए भी कुछ करता नहीं॥१९॥ मन:प्रकाश:सम्मोह,स्वप्न जाड्य विवर्जित:। दशाम् कामपि संप्राप्त: भवेत् गलित मानस: ॥२०॥ सम्मोह,स्वप्न,जड़ता त्याग दी जिसने जिसका मन हो गया है प्रकाश से उद्भासित। ऐसे मन:शून्य की दशा का वर्णन कैसे किया जा सकता है॥२०॥ ऐसे ही सिद्ध पुरुष का वर्णन करते हुए श्रीमद्भागवदगीता में कहा: तस्मात् असक्त:सततम् कार्यम् कर्म समाचर:। असक्त:हि आचरन् कर्म परम् आप्नोति पूरुष: ॥१९/३ अध्याय ॥ अष्टावक्र संहिता का सत्रहवाँ अध्याय समाप्त हरिॐ तत्सत,हरिॐ तत्सत,हरिॐ तत्सत!

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति (7)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति भाव अभाव विहीन: य:तृप्त:निर्वासन:बुध: न एव किंचित् कृतम् तेन लोकदृष्टा विकुर्वता ॥१९॥ अस्ति नास्ति से ऊपर उठकर वासना-विहीन,नित्य-तृप्त बुद्धिमान कुछ नहीं करता पर लोगों की दृष्टि में सब कुछ करता॥१९॥ प्रवृतौ वा निवृतौ वा न एव धीरस्य दुर्ग्रह:। यदा यत् कर्तुम् आयाति तत् कृत्वा तिष्ठत:सुखम् ॥२०॥ प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही स्थितियों में धीरपुरुष घबराता नहीं। जो काम आता हाथ में उसको करता कुशलता से और सदैव रहता सुखी हो ॥२०॥ निर्वासन:निरालम्ब: स्वच्छंद:मुक्तबंधन: क्षिप्त:संस्कारवातेन चेष्टते शुष्कपर्णवत् ॥२१॥ वासना-विहीन,स्वतंत्र बंधन-मुक्त स्वच्छंद व्यक्ति। संस्कार-वायु से छूटा अहम्-विहीन व्यक्ति (पेड़ के) सूखे पत्ते की तरह डोलता॥२१॥

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति (6)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति येन अहम् परम् ब्रह्म स:अहम् ब्रह्म इति चिन्तयेत्। किम् चिन्तयति निश्चिन्त: द्वितीयम् यो न पश्यति ॥१६॥ ब्रह्म दर्शन हुआ जिसको वह ब्रह्म होकर रह गया। निश्चिन्त चिन्ता करे किसकी: जिसको दूसरा कुछ भी दीखता नहीं॥१६॥ दृष्ट:येन आत्मवि़ेक्षेप: निरोधम् कुरुते तु असौ। उदार:तु न विक्षिप्त: साध्य अभावात् करोति किम्॥१७॥ जो आत्म में देखता विक्षेप को वही करता प्रयत्न निरोध का। उदार साधक के लिए विक्षेप कुछ भी नहीं प्राप्त करने के लिए जिसको कुछ नहीं फिर वह क्या करे? ॥१७॥ धीर:लोकविपर्यस्त: वर्तमान:अपि लोकवत्। न समाधिम् न विक्षेपम् न लेपम् स्वस्य पश्यति ॥१८॥ लोकवत व्यवहार करते भी धीर पुरुष लोक के व्यवहार में फँसता नहीं। न दीखता वह समाधि में न ही जगत-व्यवहार में; जग देखता उसको सदा राग से उन्मुक्त ही॥१८॥

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति (5)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति कृत्यम् किम अपि न एव अस्ति न क्व अपि ह्रदि रंजना। यथाजीवनम् एव इह जीवन्मुक्तस्य योगिन: ॥१३॥ करणीय कर्म कुछ नहीं ह्रदय में कोई वासना नहीं जीवन-मुक्त योगी जो सामने आता उसी को करता कर्तव्य मान कर॥१३॥ क्व मोह:क्व च वा विश्वम् क्व तद्धानम् क्व मुक्तता सर्वसंकल्पसीमायाम् विश्रान्तस्य महात्मन: ॥१४॥ सभी संकल्पों की सीमाएँ लाँघने वाले शान्त-स्थिर महात्मा के लिए। मोह कहाँ,यह संसार कहाँ त्यागने को कुछ भी कहाँ और मुक्त होने के लिए क्या बचा॥१४॥ येन विश्वम् इदम् दृष्टम् स:नअस्ति इति करोति वै। निर्वासन:किम् कुरुते पश्यन् अपि न पश्यति ॥१५॥ जिसके लिए यह विश्व हो वह उसे निषेध करने को कहे। पर वासना से मुक्त को क्या? देखते भी जो उसको देखता नहीं॥१५॥

अष्टावक्र संहिता ; अध्याय XVIII : शान्ति (4)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति न विक्षेप:न च ऐकाग्रयम् न अतिबोध:न मूढता। न सुखम् न च वा दु:खम् उपशान्तस्य योगिन: ॥१०॥ भटकाव नहीं,एकाग्रता नहीं ज्ञान का आधिक्य नहीं, मूढ़ता भी नहीं। अज्ञान में न दु:खी जानकर न सुखी योगी स्थित रहता सदा शान्त भाव में॥१०॥ स्वाराज्ये भैक्ष्यवृत्तौ च लाभ अलाभे जने वने । निर्विकल्प स्वभावस्य न विशेष:अस्ति योगिन : ॥११ ॥ निर्विकल्प स्वभाव के योगी को स्वर्ग के सुख में और भिक्षावृत्ति में संसार में,वन में,लाभ और हानि में अन्तर कुछ भासता नहीं ॥११॥ क्व धर्म: क्व च वा काम: क्व च अर्थ: क्व विवेकिता । इदम् कृतम् इदम् न इति द्वन्द्वैर्मुक्तस्य योगिन: ॥१२॥ द्वन्द्वों से मुक्त योगी के लिए, क्या तो करणीय धर्म और क्या काम-वासना। अर्थ की इच्छा कहाँ सांसारिक चातुर्य कहाँ यह होगया,यह करना अभी शेष है,कहाँ ॥१२॥

अष्टावक्र संहिता ; अध्याय XVIII : शान्ति (2)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति भव:अयम् भावनामात्र: न किंचित् परमार्थत:। न अस्ति अभाव:स्वभावानाम् भावअभाव विभाविनाम् ॥४॥ भावना-मात्र यह सब जगत वास्तविकता इसकी कुछ भी नहीं। स्वभाव का अस्तित्व रहता सर्वदा भावना-मात्र यह जग टिकता नहीं॥४॥ न दूरम् न संकोचात् लब्धम् एव आत्मन:पदम् निर्विकल्पम् नि:आयासम् निर्विकारम् निरंजनम् ॥५॥ आत्म न दूर है न पास है उसको प्राप्त करना पड़ता नहीं। निर्विकल्प,कूटस्थ, विकारों से शून्य,अकलुष होने से वह स्वयं प्राप्य है ॥५॥ व्यामोहमात्र विरतौ स्वरूपादानमात्रत:। वीतशोका:विराजन्ते निरावरणदृष्टय:॥६॥ महामोह के मिटते ही स्वरूप का है ज्ञान होता। दृष्टि का आवरण हटता ज्ञानी वीतशोक हो विराजता ॥६॥

Chanda Mama (Kavita)

Chanda Mama (Kavita) रामधारी सिंह 'दिनकर'--- हठ कर बैठा चाँद एक दिन,माता से यह बोला, सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला। सन-सन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूँ, ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ। आसमान का सफ़र और यह मौसम है जाड़े का, न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का। बच्चे की सुन बात,कहा माता ने'अरे सलोने`, कुशल करे भगवान,लगे मत तुझको जादू टोने। जाड़े की तो बात ठीक है,पर मैं तो डरती हूँ, एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ। कभी एक अँगुल भर चौड़ा,कभी एक फ़ुट मोटा, बड़ा किसी दिन हो जाता है,और किसी दिन छोटा। घटता-बढ़ता रोज़,किसी दिन ऐसा भी करता है नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है अब तू ही ये बता,नाप तेरी किस रोज़ लिवाएँ सी दे एक झिंगोला जो हर रोज़ बदन में आए! (अब चाँद का जवाब पढ़िए। मुझे नहीं पता कि यह मौलिक कविता में था या,बाद में किसी ने जोड़ दिया,पर जवाब पढ़ लीजिये!) हंसकर बोला चाँद,अरे माता,तू इतनी भोली। दुनिया वालों के समान क्या तेरी मति भी डोली? घटता-बढ़ता कभी नहीं मैं वैसा ही रहता हूँ। केवल भ्रमवश दुनिया को घटता-बढ़ता लगता हूंँ। आधा हिस्सा सदा उजाला,आधा रहता काला। इस रहस्य को समझ न पाता भ्रमवश दुनिया वाला। अपना उजला भाग धरा को क्रमशः दिखलाता हूँ। एक्कम दूज तीज से बढ़ता पूनम तक जाता हूँ। फिर पूनम के बाद प्रकाशित हिस्सा घटता जाता। पन्द्रहवाँ दिन आते-आते पूर्ण लुप्त हो जाता। दिखलाई मैं भले पड़ूँ ना यात्रा हरदम जारी। पूनम हो या रात अमावस चलना ही लाचारी। चलता रहता आसमान में नहीं दूसरा घर है। फ़िक्र नहीं जादू-टोने की सर्दी का,बस,डर है। दे दे पूनम की ही साइज का कुर्ता सिलवा कर। आएगा हर रोज़ बदन में इसकी मत चिन्ता कर। अब तो सर्दी से भी ज़्यादा एक समस्या भारी। जिसने मेरी इतने दिन की इज़्ज़त सभी उतारी। कभी अपोलो मुझको रौंदा लूना कभी सताता। मेरी कँचन-सी काया को मिट्टी का बतलाता। मेरी कोमल काया को कहते राकेट वाले कुछ ऊबड़-खाबड़ ज़मीन है,कुछ पहाड़,कुछ नाले। चन्द्रमुखी सुन कौन करेगी गौरव निज सुषमा पर? खुश होगी कैसे नारी ऐसी भद्दी उपमा पर। कौन पसन्द करेगा ऐसे गड्ढों और नालों को? किसकी नज़र लगेगी अब चन्दा से मुख वालों को? चन्द्रयान भेजा अमरीका ने भेद और कुछ हरने। रही सहीजो पोल बची थी उसे उजागर करने। एक सुहाना भ्रम दुनिया का क्या अब मिट जाएगा? नन्हा-मुन्ना क्या चन्दा की लोरी सुन पाएगा? अब तो तू ही बतला दे माँ कैसे लाज बचाऊँ? ओढ़ अन्धेरे की चादर क्या सागर में छिप जाऊँ?

Ghazal-180

ग़ज़ल- कुछ अगर पूछता नहीं होता, उनको मुझसे गिला नहीं होता। इश्क़ में कुछ मज़ा नहीं होता, उनसे जब फ़ासला नहीं होता। ऊँची कुर्सी मुझे भी मिल जाती, मैं अगर बोलता नहीं होता। इश्क़ अक्सर फ़रेब देता है, कम मगर हौसला नहीं होता। बीज बोता अगर मैं नफ़रत के, ख़त्म फिर सिलसिला नहीं होता। इश्क़ का दर्द ही वो दर्द है जो, कुछ भी हो,बेमज़ा नहीं होता। सोच जब तक अमल न बन जाए, सोचने से भला नहीं होता। ग़मज़दा है बशर यहाँ जितना काश! उतना हुआ नहीं होता। दर्द-ए-दिल एक बार उट्ठा तो, मौत से भी जुदा नहीं होता। तुम नहीं जान पाए क्या अब तक, इश्क़ का कुछ सिला नहीं होता। बात अब ख़त्म भी हो जल्वों की, तज़किरों से भला नहीं होता। इश्क़ में अब ख़बर नहीं " ", दर्द होता है या नहीं होता। मार

Ghazal-179

Ghazal एक ग़ज़ल- सामने इंसानियत के है अजब संकट मियाँ, ख़त्म सा था वाम पथ,अब मध्य है चौपट मियाँ। सोच लो मिलता कहाँ है कोशिशों का तब सिला, लक्ष्य को जाने बिना जब दौड़ते सरपट मियाँ। जागती कौमों से बनता देश सुखमय दोस्तो, लोग गर सोते रहे,तो जागते संकट मियां। आज नेता के लिए जज़्बात की कीमत नहीं, सोचने वाले से उसकी चल रही खटपट मियाँ। देश के विद्यालयों का मान गिरता जा रहा, पास वो बच्चा हुआ जिसने लिया कुछ रट मियाँ। राजनैतिक दल कभी जब दूर जनता से हुए, रूठ जाती है फिर उनसे राज की चौखट मियाँ। जिसको भी मौक़ा मिला,वो फ़र्ज़ अपने भूलकर बस कमाने में जुटा है,आजकल झटपट मियाँ। मर गए थे आदमी दंगों में बीते साल कुछ, केस वो वापस हुए सब,देख लो यूँ झट मियाँ। जो रुका वर्षों से था नियमों के कारण सोच लो, चल पड़ा कागज़ वो रिश्वत देखते ही खट मियाँ। वो कहें जो,उसको समझें,शाश्वत सच अब से बस, छोड़िए भूगोल और इतिहास के झंझट मियाँ। सिला=परिणाम

Ghazal-178

ग़ज़ल- कुछ अगर पूछता नहीं होता, उनको मुझसे गिला नहीं होता। इश्क़ में कुछ मज़ा नहीं होता, उनसे जब फ़ासला नहीं होता। ऊँची कुर्सी मुझे भी मिल जाती, मैं अगर बोलता नहीं होता। इश्क़ अक्सर फ़रेब देता है, कम मगर हौसला नहीं होता। बीज बोता अगर मैं नफ़रत के, ख़त्म फिर सिलसिला नहीं होता। इश्क़ का दर्द ही वो दर्द है जो, कुछ भी हो, बेमज़ा नहीं होता। सोच जब तक अमल न बन जाए, सोचने से भला नहीं होता। ग़मज़दा है बशर यहाँ जितना काश! उतना हुआ नहीं होता। दर्द-ए-दिल एक बार उट्ठा तो, मौत से भी जुदा नहीं होता। तुम नहीं जान पाए क्या अब तक, इश्क़ का कुछ सिला नहीं होता। बात अब ख़त्म भी हो जल्वों की, तज़किरों से भला नहीं होता। इश्क़ में अब ख़बर नहीं " ", दर्द होता है या नहीं होता। मार

Ghazal-177

Ghazal एक ग़ज़ल- जागृत जब-जब यहाँ जनमन हुआ, तृप्त बस तब-तब मेरा जीवन हुआ। सत्य की जो शोध से रहता विमुख, वस्त्र उसका तो सदा उतरन हुआ। देश सदियों तक रहा परतंत्र क्यों? क्या कभी इस पर कोई मंंचन हुआ? स्वार्थ में ही रत रहा जो रात-दिन, व्यर्थ उसका दोस्तो तन-मन हुआ। ज़ह्न में जो चल रहा इंसान के, ज़िन्दगी में उसका ही मंचन हुआ। शोषकों का साथ कुछ हमने दिया, हाँ मगर अपराध वो सहवन हुआ। लोकहित में, शोध का जो क्षेत्र है, वो ही मेरे वास्ते उपवन हुआ। सहवन=विस्मृतिवश,भूल में,अज्ञानता में,अनजाने में.

Ghazal-176

Ghazal ग़ज़ल- फ़ैसले जो ज़रूरी थे,टाले गए, मसअले कुछ बना के,उछाले गए। जो कमाते रहे फ़र्ज को भूलकर वो वबा में भी कितना कमा ले गए। लालचों से कभी फ़ैसले जब हुए, मानवोचित सभी तब हवाले गए। कार्पोरेट वर्ल्ड को छूट जब भी मिली मुफ़लिसों के मुखों से निवाले गए। आमजन के भले की जिन्हें फ़िक्र थी, आफ़िसों से सभी वो निकाले गए। जिसने उनकी कमी कुछ बताई कभी, उसके पुरखों के ख़सरे खँगाले गए। आततायी चतुर उनसे जो जा मिले, जान अपनी पुलिस से बचा ले गए। -------------------------------------- मसअले=प्रकरण, वबा=महामारी

Deendayal Upadhyay

25 सितम्बर/जन्म-दिवस एकात्म मानववाद के प्रणेता दीनदयाल उपाध्याय सुविधाओं में पलकर कोई भी सफलता पा सकता है; पर अभावों के बीच रहकर शिखरों को छूना बहुत कठिन है। 25 सितम्बर, 1916 को जयपुर से अजमेर मार्ग पर स्थित ग्राम धनकिया में अपने नाना पण्डित चुन्नीलाल शुक्ल के घर जन्मे दीनदयाल उपाध्याय ऐसी ही विभूति थे। दीनदयाल जी के पिता श्री भगवती प्रसाद ग्राम नगला चन्द्रभान, जिला मथुरा, उत्तर प्रदेश के निवासी थे। तीन वर्ष की अवस्था में ही उनके पिताजी का तथा आठ वर्ष की अवस्था में माताजी का देहान्त हो गया। अतः दीनदयाल का पालन रेलवे में कार्यरत उनके मामा ने किया। ये सदा प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होते थे। कक्षा आठ में उन्होंने अलवर बोर्ड, मैट्रिक में अजमेर बोर्ड तथा इण्टर में पिलानी में सर्वाधिक अंक पाये थे। 14 वर्ष की आयु में इनके छोटे भाई शिवदयाल का देहान्त हो गया। 1939 में उन्होंने सनातन धर्म कालिज, कानपुर से प्रथम श्रेणी में बी.ए. पास किया। यहीं उनका सम्पर्क संघ के उत्तर प्रदेश के प्रचारक श्री भाऊराव देवरस से हुआ। इसके बाद वे संघ की ओर खिंचते चले गये। एम.ए. करने के लिए वे आगरा आये; पर घरेलू परिस्थितियों के कारण एम.ए. पूरा नहीं कर पाये। प्रयाग से इन्होंने एल.टी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। संघ के तृतीय वर्ष की बौद्धिक परीक्षा में उन्हें पूरे देश में प्रथम स्थान मिला था। अपनी मामी के आग्रह पर उन्होंने प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी। उसमें भी वे प्रथम रहे; पर तब तक वे नौकरी और गृहस्थी के बन्धन से मुक्त रहकर संघ को सर्वस्व समर्पण करने का मन बना चुके थे। इससे इनका पालन-पोषण करने वाले मामा जी को बहुत कष्ट हुआ। इस पर दीनदयाल जी ने उन्हें एक पत्र लिखकर क्षमा माँगी। वह पत्र ऐतिहासिक महत्त्व का है। 1942 से उनका प्रचारक जीवन गोला गोकर्णनाथ (लखीमपुर, उ.प्र.) से प्रारम्भ हुआ। 1947 में वे उत्तर प्रदेश के सहप्रान्त प्रचारक बनाये गये। 1951 में डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने नेहरू जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों के विरोध में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल छोड़ दिया। वे राष्ट्रीय विचारों वाले एक नये राजनीतिक दल का गठन करना चाहते थे। उन्होंने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से सम्पर्क किया। गुरुजी ने दीनदयाल जी को उनका सहयोग करने को कहा। इस प्रकार 'भारतीय जनसंघ' की स्थापना हुई। दीनदयाल जी प्रारम्भ में उसके संगठन मन्त्री और फिर महामन्त्री बनाये गये। 1953 के कश्मीर सत्याग्रह में डा. मुखर्जी की रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में मृत्यु के बाद जनसंघ की पूरी जिम्मेदारी दीनदयाल जी पर आ गयी। वे एक कुशल संगठक, वक्ता, लेखक, पत्रकार और चिन्तक भी थे। लखनऊ में राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना उन्होंने ही की थी। एकात्म मानववाद के नाम से उन्होंने नया आर्थिक एवं सामाजिक चिन्तन दिया, जो साम्यवाद और पूँजीवाद की विसंगतियों से ऊपर उठकर देश को सही दिशा दिखाने में सक्षम है। उनके नेतृत्व में जनसंघ नित नये क्षेत्रों में पैर जमाने लगा। 1967 में कालीकट अधिवेशन में वे सर्वसम्मति से अध्यक्ष बनायेे गये। चारों ओर जनसंघ और दीनदयाल जी के नाम की धूम मच गयी। यह देखकर विरोधियों के दिल फटने लगे। 11 फरवरी, 1968 को वे लखनऊ से पटना जा रहे थे। रास्ते में किसी ने उनकी हत्या कर मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर लाश नीचे फेंक दी। इस प्रकार अत्यन्त रहस्यपूर्ण परिस्थिति में एक मनीषी का निधन हो गया।

GHAZAL-175

ग़ज़ल- सामने इंसानियत के है अजब संकट मियाँ, ख़त्म सा था वाम पथ,अब मध्य है चौपट मियाँ। सोच लो मिलता कहाँ है कोशिशों का तब सिला, लक्ष्य को जाने बिना जब दौड़ते सरपट मियाँ। जागती कौमों से बनता देश सुखमय दोस्तो, लोग गर सोते रहे,तो जागते संकट मियां। आज नेता के लिए जज़्बात की कीमत नहीं, सोचने वाले से उसकी चल रही खटपट मियाँ। देश के विद्यालयों का मान गिरता जा रहा, पास वो बच्चा हुआ जिसने लिया कुछ रट मियाँ। राजनैतिक दल कभी जब दूर जनता से हुए, रूठ जाती है फिर उनसे राज की चौखट मियाँ। जिसको भी मौक़ा मिला,वो फ़र्ज़ अपने भूलकर बस कमाने में जुटा है,आजकल झटपट मियाँ। मर गए थे आदमी दंगों में बीते साल कुछ, केस वो वापस हुए सब,देख लो यूँ झट मियाँ। जो रुका वर्षों से था नियमों के कारण सोच लो, चल पड़ा कागज़ वो रिश्वत देखते ही खट मियाँ। वो कहें जो,उसको समझें,शाश्वत सच अब से बस, छोड़िए भूगोल और इतिहास के झंझट मियाँ। सिला=परिणाम

GHAZAL-174

Ghazal ग़ज़ल- सच्ची ग़ज़लों में होती है,माटी की बू-बास ज़रा, कल की झलक सहित होता है,वर्तमान,इतिहास ज़रा। मर्म भाव का जब जानोगे तब ही कुछ पा सकते हो, समझो इसको,पा जाओगे,जीवन का उल्लास ज़रा। जीवन के वो सूत्र मिलेंगे,जो जागृत कहते आये, सब ऋषि,मुनि,जैन,बौद्ध,कबीर,मार्क्स और रैदास ज़रा। कितने चढ़े मुलम्मे इस पर,जीवन को कुछ समझो तो आम आदमी की पीड़ा का तब होगा अहसास ज़रा। सच कहने-सुनने वाले ख़तरे में खुद को डाल रहे, ऐसे लोगों के कामों से दिखती हमको आस ज़रा। मीठा बोलें,सज धज के,जो दोषी हैं अपराधों के, देवतुल्य उनको कहते हैं,जो हैं चमचे ख़ास ज़रा। वो कहते हैं सत्य वही है,जो वो कहते अपने मुख से। गर्मी को अब कहना सीखो तुम मादक मधुमास ज़रा।

GHAZAL-173

Ghazal एक ग़ज़ल- जागृत जब-जब यहाँ जनमन हुआ, तृप्त बस तब-तब मेरा जीवन हुआ। सत्य की जो शोध से रहता विमुख, वस्त्र उसका तो सदा उतरन हुआ। देश सदियों तक रहा परतंत्र क्यों? क्या कभी इस पर कोई मंंचन हुआ? स्वार्थ में ही रत रहा जो रात-दिन, व्यर्थ उसका दोस्तो तन-मन हुआ। ज़ह्न में जो चल रहा इंसान के, ज़िन्दगी में उसका ही मंचन हुआ। शोषकों का साथ कुछ हमने दिया, हाँ मगर अपराध वो सहवन हुआ। लोकहित में,शोध का जो क्षेत्र है, वो ही मेरे वास्ते उपवन हुआ। सहवन=विस्मृतिवश,भूल में,अज्ञानता में,अनजाने में!

GHAZAL-172

ग़ज़ल- भला इंसांनियत का चाहती हो, ज़ुबां पे आज बस वो शायरी हो। सुने जो भी, लगे उसको कि जैसे, ग़ज़ल में बात उसकी ही कही हो। ख़ुदा से बस मेरी ये इल्तिज़ा है, न मुश्किल में किसी की ज़िन्दगी हो। मेरी कोशिश यही है दोस्तो बस, हर इक की ज़िन्दगी में रोशनी हो। हुआ है इश्क़ जब से, बस ये चाहा, तेरी ख़ुशियों से ही मुझको ख़ुशी हो। सियासत देख के कहता है दिल ये, ग़ज़ल अब जो लिखूँ वो आग - सी हो। सुनेगा ग़ौर से तुमको ज़माना, तुम्हारी बात में कुछ बात भी हो।

GAYA TEERTH(STORY)

गया तीर्थ की कथा ब्रह्माजी जब सृष्टि की रचना कर रहे थे उस दौरान उनसे असुर कुल में गया नामक असुर की रचना हो गई। गया असुरों के संतान रूप में पैदा नहीं हुआ था इसलिए उसमें आसुरी प्रवृति नहीं थी. वह देवताओं का सम्मान और आराधना करता था। उसके मन में एक खटका था. वह सोचा करता था कि भले ही वह संत प्रवृति का है लेकिन असुर कुल में पैदा होने के कारण उसे कभी सम्मान नहीं मिलेगा. इसलिए क्यों न अच्छे कर्म से इतना पुण्य अर्जित किया जाए ताकि उसे स्वर्ग मिले। गयासुर ने कठोर तप से भगवान श्री विष्णुजी को प्रसन्न किया. भगवान ने वरदान मांगने को कहा तो गयासुर ने मांगा- आप मेरे शरीर में वास करें. जो मुझे देखे उसके सारे पाप नष्ट हो जाएं. वह जीव पुण्यात्मा हो जाए और उसे स्वर्ग में स्थान मिले। भगवान से वरदान पाकर गयासुर घूम-घूमकर लोगों के पाप दूर करने लगा. जो भी उसे देख लेता उसके पाप नष्ट हो जाते और स्वर्ग का अधिकारी हो जाता। इससे यमराज की व्यवस्था गड़बड़ा गई. कोई घोर पापी भी कभी गयासुर के दर्शन कर लेता तो उसके पाप नष्ट हो जाते. यमराज उसे नर्क भेजने की तैयारी करते तो वह गयासुर के दर्शन के प्रभाव से स्वर्ग मांगने लगता. यमराज को हिसाब रखने में संकट हो गया था। यमराज ने ब्रह्माजी से कहा कि अगर गयासुर को न रोका गया तो आपका वह विधान समाप्त हो जाएगा जिसमें आपने सभी को उसके कर्म के अनुसार फल भोगने की व्यवस्था दी है. पापी भी गयासुर के प्रभाव से स्वर्ग भोंगेगे। ब्रह्माजी ने उपाय निकाला. उन्होंने गयासुर से कहा कि तुम्हारा शरीर सबसे ज्यादा पवित्र है इसलिए तुम्हारी पीठ पर बैठकर मैं सभी देवताओं के साथ यज्ञ करुंगा। उसकी पीठ पर यज्ञ होगा यह सुनकर गया सहर्ष तैयार हो गया. ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ पत्थर से गया को दबाकर बैठ गए. इतने भार के बावजूद भी वह अचल नहीं हुआ. वह घूमने-फिरने में फिर भी समर्थ था। देवताओं को चिंता हुई. उन्होंने आपस में सलाह की कि इसे श्री विष्णु ने वरदान दिया है इसलिए अगर स्वयं श्री हरि भी देवताओं के साथ बैठ जाएं तो गयासुर अचल हो जाएगा. श्री हरि भी उसके शरीर पर आ बैठे। श्री विष्णु जी को भी सभी देवताओं के साथ अपने शरीर पर बैठा देखकर गयासुर ने कहा- आप सब और मेरे आराध्य श्री हरि की मर्यादा के लिए अब मैं अचल हो रहा हूं. घूम-घूमकर लोगों के पाप हरने का कार्य बंद कर दूंगा। लेकिन मुझे चूंकि श्री हरि का आशीर्वाद है इसलिए वह व्यर्थ नहीं जा सकता इसलिए श्री हरि आप मुझे पत्थर की शिला बना दें और यहीं स्थापित कर दें। श्री हरि उसकी इस भावना से बड़े खुश हुए. उन्होंने कहा- गया अगर तुम्हारी कोई और इच्छा हो तो मुझसे वरदान के रूप में मांग लो। गया ने कहा- " हे नारायण मेरी इच्छा है कि आप सभी देवताओं के साथ अप्रत्यक्ष रूप से इसी शिला पर विराजमान रहें और यह स्थान मृत्यु के बाद किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों के लिए तीर्थस्थल बन जाए." श्री विष्णु ने कहा- गया तुम धन्य हो. तुमने लोगों के जीवित अवस्था में भी कल्याण का वरदान मांगा और मृत्यु के बाद भी मृत आत्माओं के कल्याण के लिए वरदान मांग रहे हो. तुम्हारी इस कल्याणकारी भावना से हम सब बंध गए हैं। भगवान ने आशीर्वाद दिया कि जहां गया स्थापित हुआ वहां पितरों के श्राद्ध-तर्पण आदि करने से मृत आत्माओं को पीड़ा से मुक्ति मिलेगी. क्षेत्र का नाम गयासुर के अर्धभाग गया नाम से तीर्थ रूप में विख्यात होगा. मैं स्वयं यहां विराजमान रहूंगा। इस तीर्थ से समस्त मानव जाति का कल्याण होगा।साथ ही वहा भगवान "श्री विष्णुजी ने अपने पैर का निशान स्थापित किया जो आज भी वहा के मंदिर मे दर्शनीय हे | गया विधि के अनुसार श्राद्ध फल्गू नदी के तट पर विष्णु पद मंदिर में व अक्षयवट के नीचे किया जाता है। वह स्थान बिहार के गया में हुआ जहां श्राद्ध आदि करने से पितरों का कल्याण होता है!

Rasleela Nathdwara Style | Twin Eternals - Matter & Energy

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