ग़ज़ल - मस्लेहत जब भी सर उठाती है, ज़िन्दगी मेरी कसमसाती है। मस्लहत=सांसारिक धूर्तता, सीखते पुस्तकों से हम बेशक़, पर अधिक ज़िन्दगी सिखाती है। जब कोई रास्ता नहीं दिखता, तीरगी से चमक सी आती है। लौट के फिर ज़मीं पे आना है, याद ठोकर हमें दिलाती है आस्तिक-नास्तिक कोई भी हो, ज़िन्दगी सब को आज़माती है। आज़माने से ज़िन्दगी यारो, रंंग अक्सर नए दिखाती है। बात जम्हूरियत की करते हैं, आपकी टिप्पणी तो ज़ाती है। जम्हूरियत=प्रजातंत्र, ज़ाती= निजी जोश के साथ जो नहीं होती, नेक कोशिश वो हार जाती है। कुछ कदम साथ थे जहाँ हम-तुम, वो जगह याद कुछ दिलाती है। अंश कुछ ब्रह्म का भी है मुझ में, मेरी आवारगी जताती है। आज तक यह समझ नहीं पाये, याद जाती कहाँ, जो आती है। दिल लगी दिल्लगी नहीं 'maahir', इक हँसी सारे ग़म भुलाती है। Maahir