श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे- रणक्षेत्रे : अध्याय ४: ज्ञानकर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक ३६ : ज्ञान की महत्ता : अपि चेत् असि पापेभ्य : सर्वेभ्य : पापकृत्तम : । सर्वम् ज्ञानप्लवेन एव वृजिनम् सन्तरिष्यसि ॥३६॥ यदि सभी पाप- कर्मियों से अधिक पाप को करने वाला मनुज । ज्ञान-रूप नौका में आरूढ़ हो तो पाप के समुद्र को भी तर जाता भली विधि ॥३६॥ ज्ञानी में पाप नहीं रहता : पैंतीसवें श्लोक में कहा गया है कि ज्ञान अर्थात विवेक होने पर फिर मोह नहीं रहता तो पाप कहाँ टिकेगा जैसे दीपक जलाते ही अंधकार तत्काल ही विनिष्ट हो जाता है । कार्य(शरीर)- करण (संसार से संबंध) का ज्ञान के प्रकाश से नाश होते ही परमात्मा से स्वत : सिद्ध ज्ञानरूप नौका प्राप्त हो जाती है । नवें अध्याय के २९-३१ वें श्लोकों में भी - अपि चेत् सुदुराचार : भजते माम् अनन्यभाक् । साधु एव स: मन्तव्य : सम्यक् व्यवसित : हि स: ॥३०/अध्याय ९॥ क्योंकि एक बार परमात्मा में अनन्य भाव वाले व्यक्ति को साधु ही मानना चाहिए । Paavan Teerth