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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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6:29 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
ग़ज़ल- ज़िन्दगी की जुस्तज़ू में, आ गई जाने किधर ? पत्थरों के जंगलों में, आदमी ढूँढे, नज़र। लूटने और लुटने वाले, में रहा है फ़र्क क्या ? आज जो दिखता इधर है, कल वो दिखता था उधर। जल चुकेगी घास तब तो, आग भी बुझ जाएगी, आग को भी चाहिए है, घास, अपनी उम्रभर। मरने, जीने से किसी के कब रुकी है ज़िन्दगी ? वो सितारे कह रहे हैं आसमां से टूटकर। एक प्रस्तर क़ायदे का लिख न पाएं, आज जो, डिग्रियाँ लेकर युवा वो, फिर रहे हैं, दरबदर। वो कोई भी काम ढँग से मित्र कर सकता नहीं जो भरोसा ही नहीं, करता हैं अपने आप पर। वोट उसने दे दिया था बंद रख के आँख-कान, रहबरों की रहबरी में, खो गई है रहगुज़र। MAAHIR जुस्तजू=खोज, चाह, प्रस्तर= पैराग्राफ़, रहबर-नेता, रहगुजर= राह
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