श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्ष्त्रे-रणक्षेत्रे :अध्याय ४ : ज्ञानकर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक ३८ : कर्मयोगी को तत्त्वज्ञान की स्वत : प्राप्ति : न हि ज्ञानेन सदृशम् पवित्रम् इह विद्यते । तत् स्वयम् योगसंसिद्ध : कालेन आत्मनि विन्दते ॥३८॥ ज्ञान के जैसा कुछ भी नहीं पवित्र करने वाला इस संसार में उसी को काल कितने से प्राप्त करते योगी आरूढ़ होकर योग में ॥३८॥ समझिए : जब निष्काम कर्मयोगी अपने कर्मों का प्रवाह निज से हटा कर संसार की और प्रवाहित कर देता है अर्थात मेरे लिए कुछ भी नहीं हे भगवन् तुम्हारी वस्तुयें तुमको ही संपूर्ण भाव से समर्पित: त्वदीय वस्तु गोविन्दम तुभ्यमेव समर्पयेत।जब साधक का संबंध जड़ से सर्वथा छूट जाता है तब वह “तत् स्वयं योग संसिद्ध “ तत्वज्ञान को प्राप्त कर लेता है । Paavan Teerth