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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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6:43 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे -रणक्षेत्रे : अध्याय ४: ज्ञानकर्मसंन्यास योग : क्रमश: श्लोक ४० : ज्ञान प्राप्ति का अयोग्य व्यक्ति: अज्ञ : च अश्रद्धान: च संशयात्मा विनश्यति । नअयम् लोक : अस्ति न पर: न सुखम् संशयात्मन : ॥४०॥ श्रद्धा- विरहित अज्ञानी जन संशय नित करने वाले परमार्थ मार्ग से भ्रष्ट हुए जन को, न इस जग में सुख मिलता फिर परलोक सुखों की कौन कहे। ? ॥४०॥ संदर्भ : पिछलेउन्तालीसवें श्लोक में जो बात जितेन्द्रिय, श्रद्धावान और ज्ञानी के लिए परम शान्ति की बात पूर्णत :सकारात्मक रूप से कही गयी थी उसी को उसके विपरीत आचरण करने वाले अज्ञानी, अश्रद्धावान और साथ ही संशायालु पुरुष के लिये उतनी ही दृढ़ता से उसके इस लोक और परलोक दोनों में ही पूर्ण विनाश कह कर कही गयी है । संत ज्ञानेश्वर ने तो यहाँ तक कह दिया कि: “जिस प्राणी के मन में इस ज्ञान को पाने की अभिलाषा न हो, उसका जीवन धारण करने की अपेक्षा मर जाना ही उचित है । जैसे उजड़ा हुआ घर अथवा प्राण-शून्य देह होता है, वैसे ही ज्ञान-शून्य जीवन भी सिर्फ़ भ्रम से ही भरा होता है ।” ऐसे संशयात्मक व्यक्तियों के लिए किसी ने कहा है: कुछ श्रद्धा, कुछ दुष्टता ,कुछ संशय, कुछ ज्ञान । घर का रहा न घाट का, ज्यों धोबी का श्वान ॥ निष्कर्ष में कह सकते हैं कि संशय को गुरु, तत्वदर्शी अथवा शास्त्र के परिशीलन से श्रद्धापूर्वक तुरन्त समूल नष्ट करना आवश्यक है । Paavan Teerth
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