प्रस्तुत है एक ग़ज़ल-


भला इंसांनियत का चाहती हो, 
ज़ुबां पे आज बस वो शायरी हो। 

सुने जो भी, लगे उसको कि जैसे,
ग़ज़ल में बात उसकी ही कही हो।

ख़ुदा से बस मेरी ये इल्तिज़ा है,  
न मुश्किल में किसी की ज़िन्दगी हो। 

मेरी कोशिश यही है दोस्तो बस,
हर इक की ज़िन्दगी में रोशनी हो।

हुआ है इश्क़ जब से, बस ये चाहा,
तेरी ख़ुशियों से ही मुझको ख़ुशी हो। 

सियासत देख के कहता है दिल ये,
ग़ज़ल अब जो लिखूँ वो आग - सी हो।

सुनेगा ग़ौर से तुमको ज़माना, 
तुम्हारी बात में कुछ बात भी हो।

'MAAHIR'