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PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता :
कर्मक्षेत्रे - रणक्षेत्रे : अध्याय ३ :
क र्म यो ग :
क्रमश : श्लोक ३५ :
स्वधर्म में अवस्थित रहने का आदेश :
श्रेयान् स्वधर्म : विगुण :
परधर्मात् स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनम् श्रेय :
परधर्म : भयावह : ॥३५॥
दूसरे के धर्म के आचरण से
गुणहीन भी अपना धर्म श्रेयस् है सदा ।
निज धर्म को करते हुए मरण भी स्वीकार्य है
दूसरे का धर्म उपजाता सदा भय- मात्र है ॥३५॥
ध्यान दें : यह अर्जुन के ‘ भैक्ष्यम् अपीह लोके ‘ और
‘यत् श्रेय : स्यात् निश्चितम् ब्रूहि तत् मे ‘ का मानो निश्चयात्मक उत्तर है ।
सभी को अपने स्वभावानुकूल कर्म के विपरीत करने के लिये
चेतावनी है ।
This entry was posted on October 4, 2009 at 12:14 pm, and is filed under
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