Article Published by :
PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता :
कर्मक्षेत्रे - रणक्षेत्रे अध्याय ४ :
ज्ञानकर्मसंन्यास योग :
क्रमश : श्लोक ९ :
श्रीभगवान के जन्म और कर्मों की दिव्यता को तत्त्व से जानने का फल :
जन्म कर्म च मे दिव्यम्
एवम् य:वेत्ति तत्वत : ।
त्यक्त्वा देहम् पुन : जन्म न एति
माम् एति स: अर्जुन ॥९॥
हे अर्जुन ! जानता जो मेरे दिव्य जन्म को
और कर्मों के तत्व को ।
देह त्यागने पर जन्मता फिर वह नहीं
प्राप्त हो जाता मुझे ही अन्त में ॥९॥
श्रीभगवान के जन्म की दिव्यता का तत्व:
श्रीरामचरितमानस के मनु- शतरूपा के तप और उसके परिणाम में इसका अत्यन्त सुन्दर वर्णन हुआ है:
तप के सफलीभूत होने पर जो शरीर “अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा”,
हो गए थे वे शब्द-ब्रह्म से :
मागु मांगु वर भइ नभवानी ।
परम गंभीर कृपामृत सानी ॥
मृतक जिआवन गिरा सुहाई ।
श्रवण- रंध्र होइ उर जबआई ॥
तो भक्त ने विनम्र विनती की:
सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा ।
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन ॥
और क्या देखा :
नील सरोरुह नील मणि
नील नीरधर स्याम ॥
और
वामभाग सोभित अनुकूला ।
आदिसक्ति छवि निधि जगमूला ॥
और जब आज्ञा दी कि
“मागहु वर”
तो भक्त ने क्या माँग लिया:
“चाहउँ तुम्हहिं समान सुत”
और शतरूपा ने कहीं भी उन्हें पहचानने मे गलती नहीं की:
“तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी,
ब्रह्म सकल उर अंतरजामी!!
ब्रह्म ने किंतु जोड़ा :
आदिसक्ति जेहि जग उपजाया ।
सोउ अवतरिहि मोरि यह माया ॥
और भगवान के जन्म की झाँकी:
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला
कौसल्या हितकारी ।
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा
सोभासिंधु ख़रारी ॥
सो मम हितलागी जन अनुरागी
भयउ प्रगट श्री कंता ॥
लेकिन जब भक्त ने चाहा :
माता पुनि बोली सो मति डोली
तजहु तात यह रूपा ।
PAAVAN
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला
यह सुख परम अनूपा ॥१९२/बालकांड ॥
Post a Comment