श्रीमद्भगवद्गीता  :

कर्मक्षेत्रे - रणक्षेत्रे  अध्याय ४ :
ज्ञानकर्मसंन्यास  योग  :
क्रमश :  श्लोक ९  :

श्रीभगवान  के जन्म और कर्मों की दिव्यता को तत्त्व से जानने का फल :

जन्म कर्म च मे दिव्यम्
एवम् य:वेत्ति तत्वत :  ।
त्यक्त्वा देहम् पुन : जन्म न एति
माम् एति स: अर्जुन  ॥९॥

हे अर्जुन ! जानता जो मेरे दिव्य जन्म को 
और कर्मों के तत्व को  ।
देह त्यागने पर जन्मता फिर वह नहीं 
प्राप्त हो जाता मुझे ही अन्त में ॥९॥

श्रीभगवान के जन्म की दिव्यता का तत्व:

श्रीरामचरितमानस के मनु- शतरूपा के तप और उसके परिणाम  में इसका अत्यन्त सुन्दर वर्णन हुआ है:

तप के सफलीभूत होने पर जो शरीर “अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा”,
हो गए थे वे शब्द-ब्रह्म से :

मागु मांगु वर भइ नभवानी ।
परम गंभीर कृपामृत सानी ॥
मृतक जिआवन गिरा सुहाई ।
श्रवण- रंध्र होइ उर जबआई ॥

तो भक्त ने विनम्र विनती की:

सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा ।
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन ॥

और क्या देखा :

नील सरोरुह नील मणि 
नील नीरधर स्याम ॥
और 
वामभाग सोभित अनुकूला ।
आदिसक्ति छवि निधि जगमूला ॥
और जब आज्ञा दी कि 
“मागहु वर”

तो भक्त ने क्या माँग लिया:

“चाहउँ तुम्हहिं समान  सुत”

और शतरूपा ने कहीं भी उन्हें पहचानने मे गलती नहीं की:

“तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी, 
ब्रह्म सकल उर अंतरजामी!!

ब्रह्म ने किंतु जोड़ा :

आदिसक्ति जेहि जग उपजाया ।
सोउ अवतरिहि मोरि यह माया ॥

और भगवान के जन्म की झाँकी:

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला 
कौसल्या हितकारी  ।
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा
सोभासिंधु  ख़रारी  ॥

सो मम हितलागी जन अनुरागी
भयउ प्रगट श्री कंता ॥

लेकिन जब भक्त ने चाहा :

माता पुनि बोली सो मति डोली
तजहु तात यह रूपा ।


PAAVAN
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला 
यह सुख परम अनूपा ॥१९२/बालकांड ॥