श्रीमद्भगवद्गीता  :

कर्म़क्षेत्रे - रणक्षेत्रे  अध्याय  ४ :
ज्ञानकर्मसंन्यास  योग :
क्रमश :  श्लोक १०  :

आत्म से परमात्म की प्राप्ति की ओर :

वीतरागभयक्रोध :
मन्मया : माम्  उपाश्रिता  : ।
बहवा :  ज्ञानतपसा : पूता :
मद्भावम्  आगता  :  ॥१०॥

बीत गए राग,भय,क्रोध 
जिनके हों
लगा मन जिनका मुझमें हो ।
केवल मेरा ही आश्रय जिन्हें हो
ऐसे अनेक ज्ञानी और तप :पूत
भक्त प्राप्त कर चुके हैं मेरे 
स्वरूप को ॥१०॥

श्लोक के अर्थ के साथ इसे पढ़िए:

रामचरितमानस में ऋषि वाल्मीकि ने भगवान श्री राम को जिन चौदह
स्थानों में रहने का आदेश दिया उनमें सर्वोच्च स्थान जो बताया ,
वह है :

ज़ाहि न चाहिअ कबहुँ कछु 
तुम्ह सन सहज सनेहु ।
बसहु निरंतर तासु मन
सो राउर निज गेहु ॥१३१/अयोध्या कांड ॥

यही यहाँ “ वीतरागभयक्रोध: “
में कहा गया है । राग के निवृत्त हो जाने पर ममता ,कामना , भय , लोभ , क्रोध , आदि सभी मन की 
दुर्भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं ।

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