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Mushaira-tahreer(Ghazal)-200

ग़ज़ल अर्ज़ किया है- बाग़पैरा क्या करे गुल ही न माने बात जब शम्स का रुत्बा नहीं कुछ, हो गई हो रात जब //१ बाँध देना गाँठ में तुम गाँव की आबोहवा शह्र के नक्शे क़दम पर चल पड़ें देहात जब //२ दोस्त मंसूबा बनाऊं मैं भी तुझसे वस्ल का तोड़ दें तेरी हया को मेरे इक़दामात जब //३ इक किरन सी फूटने को आ गई बामे उफ़ुक़ रौशनी की जुस्तजू में खो गये ज़ुल्मात जब //४ देखिए फिर से समंदर अब्र कब पैदा करे आसमां में क्या मिले वो हो चुकी बरसात जब //५ किसलिए बीते दिनों की हाय तौबा कीजिए हाल में ख़ुद हों नुमायाँ माज़ी के असरात जब //६ करवटें कर लीजे अपनी लुत्फ़े फ़र्दा की तरफ़ ख्व़ाब में आके डराए चेहरा-ए-माफ़ात जब //७ क्या करें घोड़े पियादे, क्या करें अब फ़ील भी खा चुके शतरंज की बाज़ी में शह और मात जब //८ है हमारी ज़िंदगानी गर्दिशे अय्याम सी वस्ल का इम्काँ भी क्या, हों हिज्र में दिन रात जब //९ ख़ुद में पैदा कीजिए इक कैफ़ियत तस्लीम की शौक़-ए-दिल का साथ ना दें बेवफ़ा हालात जब //१० आ भी जा आग़ोश में, लग जा हमारे सीने से कर न तू वादा खिलाफ़ी हो गई है बात जब //११ हो इशाअत हम पे भी नज़रे इनायत हुस्न की 'राज़' की हाज़िर जवाबी से मिटें ख़द्शात जब //१२ باغ پیرا کیا کرے گل ہی نہ مانع بات جب شمس کا رتبہ نہیں کچھ، ہو گئی ہو رات جب //١ باندھ دینا گانٹھ میں تم گاؤں کی آب و ہوا شہر کے نقشے قدم پر چل پڑیں دیہات جب //٢ دوست منصوبہ بناؤں میں بھی تجھ سے وصل کا توڑ دیں تیری حیا کو میرے اقدامات جب //٣ اک کرن سی پھوٹنے کو آ گئی بامے افق روشنی کی جستجو میں کھو گئے ظلمات جب //٤ دیکھیے پھر سے سمندر ابر کب پیدا کرے آسماں میں کیا ملے وہ ہو چکی برسات جب //٥ کس لئے بیتے دنوں کی ہائے توبا کیجئے حال میں خود ہوں نمایاں ماضی کے اثرات جب //٦ کروٹیں کر لیجے اپنی لتفے فردا کی طرف کھواب میں آکے ڈرائے چہرۂ مافات جب //٧ کیا کریں گھوڑے پیادے، کیا کریں اب فیل بھی کھا چکے شطرنج کی بازی میں شہ اور مات جب //٨ ہے ہماری زندگانی گردشے ایام سی وصل کا امکاں بھی کیا، ہوں ہجر میں دن رات جب //٩ خود میں پیدا کیجئے اک کیفیت تسلیم کی شوق دل کا ساتھ نا دیں بےوفا حالات جب //١٠ آ بھی جا آغوش میں، لگ جا ہمارے سینہ سے کر نہ تو وعدہ خلافی ہو گئی ہے بات جب //١١ ہو اشاعت ہم پے بھی نظر عنایت حسن کی شاعر) शब्दार्थ- ------------ बाग़पैरा- माली, बाग़ की देखभाल करने वाला; शम्स- सूर्य; वस्ल- मिलन; इक्दामात- अग्रसरता, पहल; बामे उफ़ुक़- क्षितिज के छज्जे पर; जुस्तजू- तलाश; ज़ुल्मात- अँधेरे; अब्र- बादल; नुमायाँ- प्रकट; माज़ी- अतीत; असरात- असर का बहुवचन; लुत्फे फ़र्दा- आने वाला कल का आनद; माफ़ात- जो व्यतीत हो हो; गर्दिशे अय्याम- दिन रात का चक्कर; कैफ़ियत- मन की हर्षित दशा; तस्लीम- स्वीकार करना; इम्काँ- संभावना; तस्लीम- स्वीकार करना; इशाअत- प्रकटन; ख़द्शात- शंकाएँ

Ghazal-199

एक ग़ज़ल- सभ्यता की बज़्म से जिसको निकाला जाएगा, उससे अपना दर्द फिर कैसे सँभाला जाएग। काम जनहित का अगर कुछ हो सका तुमसे कहीं, देख लेना दूर तक उसका उजाला जाएगा। जानता हूँ दर्द ही अक्सर मुझे उनसे मिले, माँगते मासूम बनकर वो, न टाला जाएगा। आस्था, विश्वास का है भार इतना सोच पर, लग रहा है आदमी सांचों में ढाला जाएगा। रंग भी निखरेंगे इसके रूप भी दमकेगा ख़ूब, ख़्वाब को 'maahir' तो पहले दिल में पाला जाएगा।

Ghazal-198

सुप्रभात! प्रस्तुत है एक ग़ज़ल सभी चाहें हैं औरों में, महज़ इक़रार की सोचें, किसी को भी कहाँ भातीं कभी इंकार की सोचें। मुसलसल हो रही हैं कम, यहाँ परिवार की सोचें, घरों को बाँटती रहतीं हैं बस दीवार की सोचें। समेटे वो सभी कुछ, ये रहीं ज़रदार की सोचें, ज़माने को बड़ा करती रहीं फ़नकार की सोचें। सियासत में ग़रीबी भी रही बस वोट का जरिया, ग़रीबों के भले की कब रहीं सरकार की सोचें। ग़रीबी और बेकारी पे सोचा तो यही पाया, हुईं तूफ़ान के जैसी यहाँ पतवार की सोचें। समस्या का नहीं मिलता कभी भी हल झगड़ने से, खड़े जो इस तरफ़, वो भी ज़रा उस पार की सोचें। यही होता रहा यारो हमेशा से ज़माने में, सदा हारीं हैं 'maahir' ढाल से, तलवार की सोचें। -

Ghazal-197

ग़ज़ल- पंथ कहते ख़त्म कर दो मन की जो भी कामना है, मैं कहूँ अपवाद इस में, लोकहित की भावना है। ज्ञान का उद्देश्य है बस सूक्ष्म में तो मात्र इतना, क्या सही है, क्या ग़लत है, बस यही तो जानना है। क्या सही है क्या ग़लत है जानना आसान कितना, सर्वहित की भावना ही सत्य की प्रस्तावना है। ज़िन्दगी में वह उचित है जो सभी के हित में हो बस, हाँ इसी इक भाव को ही आप-हम को थामना है। कामना से जग बना है, कामना से चल रहा ये, सब फलें-फूलें निरंतर, मेरे मन की कामना है। रम रहा कण-कण में है भगवान यदि कहते हो तुम तो, सबको हो अवसर बराबर क्या ग़लत ये मानना है ? दूसरों की कीमतों पे लाभ ख़ुद का चाहते वो,

Ghazaj-196

प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- मुझे इस बात का शिकवा बहुत है, हुआ मरना भी अब महँगा बहुत है। मिला जो दर्द मुझको इश्क़ में वो, कसकता है, मगर अच्छा बहुत है। ज़रूरत जब पड़ी, वो व्यस्त थे कुछ, मुझे इस बात का सदमा बहुत है। ख़यालों में वो इक चेहरा बसा है, जिसे देखा नहीं, सोचा बहुत है। वो मेरा था, रहेगा बस मेरा ही, किया जिसने हमें रुसवा बहुत है। उसे नफ़रत हुई अब आईने से, दिखा जब भी, लगा झटका बहुत है।

Ghazal-195

एक ग़ज़ल- सभ्यता की बज़्म से जिसको निकाला जाएगा, उससे अपना दर्द फिर कैसे सँभाला जाएग। काम जनहित का अगर कुछ हो सका तुमसे कहीं, देख लेना दूर तक उसका उजाला जाएगा। जानता हूँ दर्द ही अक्सर मुझे उनसे मिले, माँगते मासूम बनकर वो, न टाला जाएगा। आस्था, विश्वास का है भार इतना सोच पर, लग रहा है आदमी सांचों में ढाला जाएगा। रंग भी निखरेंगे इसके रूप भी दमकेगा ख़ूब, ख़्वाब को 'maahir' तो पहले दिल में पाला जाएगा।

Ghazal-194

एक ग़ज़ल- सभ्यता की बज़्म से जिसको निकाला जाएगा, उससे अपना दर्द फिर कैसे सँभाला जाएग। काम जनहित का अगर कुछ हो सका तुमसे कहीं, देख लेना दूर तक उसका उजाला जाएगा। जानता हूँ दर्द ही अक्सर मुझे उनसे मिले, माँगते मासूम बनकर वो, न टाला जाएगा। आस्था, विश्वास का है भार इतना सोच पर, लग रहा है आदमी सांचों में ढाला जाएगा। रंग भी निखरेंगे इसके रूप भी दमकेगा ख़ूब, ख़्वाब को 'maahir' तो पहले दिल में पाला जाएगा।

Ghazal-193

ग़ज़ल- पंथ कहते ख़त्म कर दो मन की जो भी कामना है, मैं कहूँ अपवाद इस में, लोकहित की भावना है। ज्ञान का उद्देश्य है बस सूक्ष्म में तो मात्र इतना, क्या सही है, क्या ग़लत है, बस यही तो जानना है। क्या सही है क्या ग़लत है जानना आसान कितना, सर्वहित की भावना ही सत्य की प्रस्तावना है। ज़िन्दगी में वह उचित है जो सभी के हित में हो बस, हाँ इसी इक भाव को ही आप-हम को थामना है। कामना से जग बना है, कामना से चल रहा ये, सब फलें-फूलें निरंतर, मेरे मन की कामना है। रम रहा कण-कण में है भगवान यदि कहते हो तुम तो, सबको हो अवसर बराबर क्या ग़लत ये मानना है ? दूसरों की कीमतों पे लाभ ख़ुद का चाहते वो, कष्ट की यारो यही तो जान लो प्रस्तावना है। हो रहा है सांस लेना आज जो दूभर यहाँ पर, स्वार्थगत कामों का प्रतिफल देख लो कुहरा घना है।

Ghazal-192

ग़ज़ल- ज़हर वो घोला किए, घोला किए, लोग बस देखा किए, देखा किए। काम कुछ जन कर रहे हैं रात-दिन, शेष बस सोचा किए, सोचा किए। जिस तरफ वो छोड़ के हमको गए, हम उधर देखा किए, देखा किए। लोग उकता के तो जाने भी लगे, गीत वो गाया किए, गाया किए। अर्थ सारे गुम हुए अल्फ़ाज़ के, और वो, बोला किए, बोला किए। देश कुछ दिन-रात उन्नति कर रहे, वक़्त हम जाया किए, जाया किए।

Ghazal-191

ग़ज़ल- कौन होता है किसी का ? वास्ता सब से सभी का। आइने में साफ़ दिखता, एक कारण त्रासदी का। मानते कानून को वो, वाकिया है किस सदी का ? बंधुता, आजादी, समता, वक़्त है क्या मसखरी का ? कष्ट में भी ढूँढ लें सुख, फ़लसफा है ज़िन्दगी का। कौन कीमत दे सका है, आँख की यारो नमी का। दुश्मनी से जान पाए, क्या है ‘’ क़द किसी का। फ़लसफा=दर्शन, Philosophy

Ghazal-190

ग़ज़ल- तब वो थे दीवाने कितने? अब देते हैं ताने कितने? सच की ख़ातिर, सोचो अब तक, जान दिए फ़र्जाने कितने? फ़र्जाना=बुद्धिमान दावा करते मुल्ला-पंडित, सच्चाई पहचाने कितने? जो अंदर भी, उसे ढूँढते, बाहर-बाहर जाने कितने? अब तक ढूँढे से मिल पाए, मेरे-से दीवाने कितने? भक्त बने फिरते जो, इनमें, बात इष्ट की माने कितने? कुछ के भाषण से ही सोचो, जान गँवाते जाने कितने?

Ghazal-189

ग़ज़ल दोस्तो, मिर्ज़ा ग़ालिब साहिब के 227 वें जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ. ईश्वर उनकी आत्मा को बुलंद मक़ाम अता करे. बतौर ख़राज-ए-'अक़ीदत पेश-ए-ख़िदमत है उनकी ज़मीन पर कही गयी मेरी ये ग़ज़ल जिसे मैंने बस अभी कभी लिखा है. ग़ालिब साहब की मशहूर ग़ज़ल भी पोस्ट में दी गई है. अर्ज़ किया है- वो तो रूठी है, घर नहीं आती उसकी कोई ख़बर नहीं आती //1 क्या यही है विकास गाँवों का बिजली क्यों रात भर नहीं आती //2 जाना पड़ता है उसके मसदर तक चल के ख़ुद ही डगर नहीं आती //3 उसकी फ़ितरत है बेवफ़ाई की वादा करती है, पर नहीं आती //4 वक़्त तो हो चुका है सोने का नींद हमको मगर नहीं आती //5 वो पहाड़न चली गयी शायद कुछ दिनों से इधर नहीं आती //6 '' रस्म-ए-वफ़ा बदलने की कोई सूरत नज़र नहीं आती //7 وہ تو روٹھی ہے، گھر نہیں آتی اسکی کوئی خبر نہیں آتی //1 کیا یہی ہے وکاس گاؤوں کا بجلی کیوں رات بھر نہیں آتی //2 جانا پڑتا ہے اسکے مسدر تک چل کے خود ہی ڈگر نہیں آتی //3 اسکی فطرت ہے بیوفائی کی وعدہ کرتی ہے، پر نہیں آتی //4 وقت تو ہو چکا ہے سونے کا نیند ہم کو مگر نہیں آتی //5 وہ پہاڑن چلی گئی شاید کچھ دنوں سے ادھر نہیں آتی //6 'راز' رسم وفا بدلنے کی کوئی صورت نظر نہیں آتی //7 #राज़_नवादवी®

Ghazal-188

ग़ज़ल- जब मिलें हम मुस्कुराना चाहिए, दर्दोग़म सब भूल जाना चाहिए। शायरी का जन्म होता आह से, चाह से इसको सजाना चाहिए। जानने को जग है, इस पर भी ग़ज़ब, खुद को जानें, तो ज़माना चाहिए। ज़िंदगी में ख़ुद-ब-ख़ुद बढ़ते हैं ग़म, कर के कोशिश ग़म भुलाना चाहिए। देख कर कोशिश तुम्हारे काम की, हर कली को मुस्कुराना चाहिए। टूट जाते हैं ग़लतफ़हमी से ये, ध्यान से रिश्ते निभाना चाहिए। हम भी तो हैं नागरिक इस देश के, हम को भी अच्छा ज़माना चाहिए।

Ghazal-187

ग़ज़ल_غزل: १६२ ------------------------- 2122-2122-2122-212 इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है, नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है। #दुष्यंत_कुमार दोस्तो, आज हिंदी जगत के महान ग़ज़लकार श्री दुष्यन्त कुमार साहिब की 45 वीं पुण्यतिथि है। इस मौके पर मैं उन्हें उन्हीं की ज़मीन पर लिखी अपनी इस ग़ज़ल के साथ श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ। अर्ज़ किया है- #बात_वो_करती_नहीं_पर_मुझसे_शर्माती_तो_है #हम_जला_लेंगे_दिये_में_तेल_और_बाती_तो_है بات وہ کرتی نہیں پر مجھ سے شرماتی تو ہے ہم جلا لیں گے دیئے میں تیل اور باتیں تو ہیں//۱ आओ हम सूबे की उनसे मुश्किलें कहने चलें ये सड़क यारो नई दिल्ली तलक जाती तो है //२ آؤ ہم صوبے کی ان سے مشکلیں کہنے چلیں یہ سڑک یارو نئی دلی تلک جاتی تو ہے//۲ हो भी सकता है डराने लोग उसके आए हों आदमी उसके मुहल्ले का ख़ुराफ़ाती तो है //३ ہو بھی سکتا ہے ڈرانے لوگ اس کے آئے ہوں آدمی اس کے محلے کا خرافاتی تو ہے//۳ उनकी लड़की है कुँवारी अब तलक तो क्या हुआ उनका भी कहना सही है, मसअला ज़ाती तो है //४ ان کی لڑکی ہے کنواری عب تلک تو کیا ہؤا ان کا بھی کہنا صحیح ہے، مسئلہ ذاتی تو ہے//۴ है अगर दूल्हा जो रूठा, और दूल्हा देख लें घर पे मण्डप, बैंड, बाजा, और बाराती तो है //५ ہے اگر دُولھا جو روٹھا, اور دُولھا دیکھ لیں گھر پے منٹ منڈپ، بینڈ باجا، اور باراتی تو ہے//۵ रहने दो गुलशन कहाँ हम जाएँगे बीवी मेरी तितलियों के साथ मुझको देख चिल्लाती तो है //६ رہنے دو گلشن کہا ہم جائیں گے بیوی میری تتلیوں کے ساتھ مجھ کو دیکھ چلاتی تو ہے//۶ मैंने माना अब कोई रिश्ता नहीं है आपसे आपके देखे से दिल में सूई चुभ जाती तो है //७ میں نے مانا اب کوئی رشتہ نہیں ہے آپ سے آپ کے دیکھے سے دل میں سوئی چبھ جاتی تو ہے//۷ कुछ तो उसके दिल में भी पंगा है यारो इश्क़ का मेरे खिड़की पे बुलाने से वो आ जाती तो है //८ کچھ تو اس کے دل میں بھی بنگاہے یارو عشق کا میرے کھڑکی پہ بلانے سے وہ آ جاتی تو ہے//۸ हो असर उसपे 'नवादा' की रविश का क्यों नहीं 'राज़' कुछ कुछ मामलों में अब भी देहाती तो है //९ وہ اثر اس پہ نوازا کی روش کا کیوں نہیں راز کچھ کچھ معاملوں میں اب بھی دیہاتی تو ہے//۹ #सूबा- राज्य, प्रदेश, रियासत #ख़ुराफ़ाती- ख़ुराफ़ात करने वाला, उपद्रवी #मसअला- समस्या, मुद्दआ #ज़ाती- व्यक्तिगत, पर्सनल #गुलशन- फूलों की बगिया, वाटिका #नवादा- बिहार का वो शह्र जहाँ मैं पैदा और बड़ा हुआ #रविश- अंदाज़, मिज़ाज, तरीका, चाल चलन, अचार व्यवहार देहाती- गाँव देहात का, गँवार

Rasleela Nathdwara Style | Twin Eternals - Matter & Energy

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