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अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति (13)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति क्व आत्मन:दर्शनम् तस्य यस्य दृष्टम् अवलम्बते। धीरा:तम् तम् न पश्यन्ति पश्यन्ति आत्मानम् अव्ययम्॥४०॥ उसको आत्मदर्शन सम्भव कहाँ जो दृश्य पर आश्रित सदा धीर पुरुष दृश्य को न देख कर केवल अव्यय आत्म को ही देखता॥४०॥ क्व निरोधो विमूढस्य य:निर्बन्धम् करोति वै। स्वारामस्य धीरस्य सर्वदा असौ एव अकृत्रिम:॥४१॥ अज्ञानी सतत् प्रयत्न करते भी मन को एकाग्र कर पाता कहाँ? पर अपने में रमे ज्ञानी का मन बिना किसी चेष्टा के स्वयं ही रमा रहता आत्म में॥४१॥ भावस्य भावक:कश्चित् न किंचित् भावक:अपर: उभय अभाव:कश्चित् एवम् एव निराकुल:॥४२॥ कोई कहता संसार सत्य है दूजे कौ भासता असत्य और मिथ्या। पर नि:संशयी जानकर दोनों को मिथ्या शान्त-चित्त हो रहता॥४२॥

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति-(12)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति मूढ:न आप्नोति तत् ब्रह्म यत:भवितुम् इच्छति। अनिच्छन् अपि धीर:हि परब्रह्मस्वरूप भाक् ॥३७॥ स्वयं ब्रह्म होने की इच्छा वाला मूढ़ नहीं प्राप्त होता ब्रह्मन् को। धीर पुरुष अनइच्छित ही हो जाता है परब्रह्ममय॥३७॥ निराधार:ग्रहव्यग्रा: मूढ़ा:संसारपोषका: एतस्य अनर्थमूलस्य मूलच्छेद:कृत:बुधै:॥३८॥ आधार-विहीन ब्रह्म को पाने को रहते व्यग्र परन्तु ये मूढ़ केवल साधते संसार को। इस सब अनर्थ के मूल संसार को जानकर इसके मूल को ही काटते हैं चतुर जन॥३८॥ न शान्तिम् लभते मूढ: यत:शमितुम् इच्छति। धीर:तत्वम् विनिश्चित्य सर्वदा शान्तमानस:॥३९॥ शान्ति चाहने वाला मूरख नहीं शान्त हो पाता जीवन भर। तत्त्व जानकर के ज्ञानी सदा शान्त-मन हो रहता॥३९॥

Ghazal-186

ग़ज़ल- जिनसे बच के नींद में जाने लगे, वो सवाल अब ख़्वाब में आने लगे। अब नज़र कैसे चुराएं उन से हम, जो सवाल अब रोज़ धमकाने लगे। जब समझ आने लगे हैं फ़लसफ़े, जो सगे बनते थे बेगाने लगे। जा चुकीं कितनी ही जानें सोच लो, सच के रस्ते पे जो तुम जाने लगे। आज कल ग़म और कम खाना भला, राज़ सेहत के समझ आने लगे। जब वो जाने,काम आ सकता नहीं, दोस्त कुछ मुझसे भी कतराने लगे। बात आई जब उसूलों की कभी, टूटने कुछ ख़ास याराने लगे।

Ghazal-185

ग़ज़ल- ए आई दौर में जज़्बे बचाना सीख लो साहिब, ज़रा इंसानियत से दिल लगाना सीख लो साहिब। कड़ी मेहनत से पाया है ज़माने में मुकाम ऊँचा, अहम् को भी ज़रा अपने झुकाना सीख लो साहिब। दिलाई थी क़सम तुमने न रक्खें राब्ता तुम से, मेरे ख़्वाबों में भी तुम अब न आना सीख लो साहिब। बुरा गर वक़्त आया तो तज़ारिब काम आएंगे, ज़रा मिल-बाँट के जीवन चलाना सीख लो साहिब। वो करते वह भी हैं जिससे कि वो इंकार करते हैं, सही अनुमान लहजों से लगाना सीख लो साहिब। तजुर्बा है मेरा ये काम होता है इबादत सा, किसी रोते हुए जन को हँसाना सीख लो साहिब। 'वही’ का आसमानों से तो अब आना न है मुमकिन, जहां अपने तजारिब से सजाना सीख लो साहिब। ए आई = आर्टिफिशल इंटेलिजेंस, जज़्बा=भाव, गर=यदि, मुकाम=स्थान, अना=अहंकार, वही=आदमी को सही रास्ता दिखाने वाली आसमानी किताब, तजारिब= तजुर्बे का बहुवचन, तजुर्बात, तजुर्बों

Ghazal-184

ग़ज़ल हुआ जब शेर कोई अनकहा-सा, लगा लम्हा वो मैंंने जी लिया-सा। कमी मेरी बताता जब भी कोई, मुझे वो टोकना लगता दुआ-सा। मेरे आशिक़ की ये ज़िंदादिली है, मिला हर बार पहली मर्तबा-सा। हुआ वर्षों पुराना इश्क़ अपना, लगे है वाकिया हो हालिया-सा किया है इश्क़ इतनी सादगी से, कभी लगता मुझे वो बेवफ़ा-सा। न बोले देर तक आपस में वो पर, लगा हर लम्हा जैसे बोलता-सा। नहीं जो कह सका, वो वक़्त ए रुख़सत, दिखा लब पे कहीं सहमा हुआ-सा।

Ghazal-183

ग़ज़ल- भला इंसांनियत का चाहती हो, ज़ुबां पे आज बस वो शायरी हो। सुने जो भी, लगे उसको कि जैसे, ग़ज़ल में बात उसकी ही कही हो। ख़ुदा से बस मेरी ये इल्तिज़ा है, न मुश्किल में किसी की ज़िन्दगी हो। मेरी कोशिश यही है दोस्तो बस, हर इक की ज़िन्दगी में रोशनी हो। हुआ है इश्क़ जब से, बस ये चाहा, तेरी ख़ुशियों से ही मुझको ख़ुशी हो। सियासत देख के कहता है दिल ये, ग़ज़ल अब जो लिखूँ वो आग - सी हो। सुनेगा ग़ौर से तुमको ज़माना, तुम्हारी बात में कुछ बात भी हो।

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति-(8)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति कृतम् देहेन कर्म इदम् न मया शुद्धरूपिणा। इति चिन्तानुरोधी य: कुर्वन् अपि करोति न ॥२५॥ (जो रखता विचार यह मन में) कि कर्म होते केवल देह से न कि शुद्ध अन्त:करण से ऐसा सोचने वाला कर्म को करता हुआ भी करता नहीं है कर्म को॥२५॥ अतद्वादीव कुरुते न भवेत् अपि बालिश:। जीवन्मुक्त : सुखी श्रीमान् संसरन् अपि शोभते॥२६॥ जीवन्मुक्त के लिए सब कार्य करते हुए भी करना नहीं बनता। ऐसा व्यक्ति संसार के व्यापार में सुखी श्रीमान होकर शोभता॥२६॥ नानाविचारसुश्रान्त: धीर:विश्रान्तिम् आगत: न कल्पते न जानाति न श्रृणोति न पश्यत॥२७॥ धीर पुरुष नाना विचारों को सुनकर विश्रांति को पाता सदा। व्यर्थ में न वह विचारता न जानता,न सुनता,न देखता॥२७॥

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति (10)

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति निर्ध्यातुं चेष्टितुम् वापि यत् चित्तम् न प्रवर्तते। निर्निमित्तम् इदम् किन्तु नि:ध्यायति विचेष्टते ॥३१॥ समाधि अथवा कर्म में निज चेष्टा से प्रवृत्त होता नहीं मन में न रख कोई निमित्त समाधि और कर्म में सदैव रहता निरत॥३१॥ तत्त्वम् यथार्थम् आकर्ण्य मन्द:प्राप्नोति मूढताम्। अथवा याति संकोचम् अमूढ:कोऽपि मूढवत्॥३२॥ तत्त्व के यथार्थ को सुनकर मंद-बुद्धि आचरण करता मूढ सा। अन्य बुध:तत्त्व को सुनकर संकोचवश मूढ सा है दीखता॥३२॥ एकाग्रता निरोधो वा मूढ़ा:अभ्यस्यते भृशम् । धीरा:कृत्यम् न पश्यन्ति सुप्तवत् स्वपदे स्थिता:॥३३॥ अज्ञानी लगे रहते मन की एकाग्रता और ध्यान के अभ्यास में पर ज्ञानी कुछ भी न करता दीखता सुप्त सा दीखते भी आत्म में स्थित रहता सदा॥३३॥

अष्टावक्र संहिता; अध्याय XVIII:शान्ति (11)

अष्टावक्र संहिता. अध्याय XVIII:शान्ति अप्रयत्नात् प्रयत्नात् वा मूढ़ा : न आप्नोति निर्वृत्तिम् । तत्त्वनिश्चयमात्रेण प्राण : भवति निर्वृत्त : ॥३४॥ सब कुछ छोड़ कर बैठने अथवा सक्रिय प्रयत्न करने पर भी अज्ञानी को शान्ति मिलती नहीं । परंतु तत्त्व-निश्चय मात्र से ज्ञानी प्रसन्न हो जाता तुरंत ॥३४॥ शुद्धम् बुद्धम् प्रियम् पूर्णम् निष्प्रपंचम् निरामयम् । आत्मानम् तम् न जानन्ति तत्र अभ्यासपरा जना : ॥३५॥ शुद्ध बुद्ब प्रिय पूर्ण निष्प्रपंच अकलुष आत्म को न जानकर करते अनेक अभ्यास अज्ञानी इस संसार में ३५॥ न आप्नोति कर्मणा मोक्षम् विमूढ : अभ्यासरूपिणा । धन्य : विज्ञानमात्रेण मुक्त : तिष्ठति अविक्रय : ॥३६॥ अज्ञानी मात्र कर्म के अभ्यास से मोक्ष पाता है नहीं । ज्ञानी निश्चल हो विज्ञान मात्र से मुक्त होता:धन्य है ॥३६॥

अध्याय XVIII : शान्ति (9)

अष्टावक्र संहिता ; अध्याय XVIII : शान्ति असमाधे अविक्षेपात् न मुमुक्षु : न च इतर : । निश्चित्य कल्पितम् पश्यन् ब्रह्म एव आस्ते महाशय : ॥२८॥ न समाधि से, न भटकाव से लगाव उसका न मोक्ष का इच्छुक न संसार का । जानकर निश्चयपूर्वक इस विश्व को असत(कल्पना मात्र) ज्ञानी रहता स्थित निरन्तर ब्रह्म में ॥२८॥ यस्यान्त : स्यात् अहंकार: न करोति करोति स : । निरहंकार धीरेण न किंचित् हि कृतं कृतम् ॥२९॥ अन्तर में जिसके बसता अहंकार वह यथार्थ में न करता हुआ कर्म रहता कर्मों में निरत नित्य । पर अहंकार-रहित धीर पुरुष रत रहते भी कर्मों में रहता विरत कर्म से ॥२९॥ न उद्विग्नम् न च संतुष्टम् अकर्तृ स्पन्दवर्जितम् । निराशम् गतसंदेहम् चित्तम् मुक्तस्य राजते ॥३०॥ आशा रखता नहीं किसी से चित्त से रह संदेह-मुक्त न संतुष्ट ,न उद्विग्न होता कभी । न ही प्रसन्न होता कभी कर्म न करते हुए भी व्यर्थ चेष्टा करता नहीं ॥३०॥

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