ग़ज़ल- आसमां का जो बहुत,गुणगान करते रह गए, वो धरा का दोस्तो,नुक्सान करते रह गए। फ़र्ज़ जो दिल से निभाता है,उपेक्षित रह गया, मुजरिमों का किन्तु वो सम्मान करते रह गए। तात्कालिक मौज़मस्ती से न जो ऊपर उठे, वो ज़मा बस कष्ट के सामान करते रह गए। चाह थी अमृत की उनको,स्वार्थ के कारण मगर, ज़िन्दगी भर वो महज विषपान करते रह गए। देश कुछ अपनी,समझदारी से उन्नति कर सके, और कुछ इंसान को हलकान करते रह गए। ग़लतियों से सीख लेकर,लोग कुछ आगे बढ़े, शेष बस सत्कर्म का अभियान करते रह गए। शानो-शौकत काल्पनिक जो थी वो उसके फेर में, आदमीयत का बहुत नुक्सान करते रह गए। 'Maahir'