प्रस्तुत है एक ताज़ा ग़ज़ल- चैन तो इक पल नहीं है, दिख रहा कुछ हल नहीं है। क्यों वो दें उसको तवज्जो, जिसका कोई दल नहीं है। दल सभी हैं एक जैसे, किसमें कुछ दल-दल नहीं है? वो उसे बेकार कहते, जिसमें कोई छल नहीं है। आज तक हिंसक है इंसां, कौन सच में खल नहीं है? युग है कलि का इसलिए क्या, आमजन को कल नहीं है? हादसे पर हादसे हैं, पर कहीं हलचल नहीं है। अब सियासत में कहीं भी, रास्ता समतल नहीं है। हादसों पे चुप रहूँ मैं? दिल मेरा मरुथल नहीं है। अपनी पे आ जाए फिर तो, कोई भी निर्बल नहीं है। बांच कर गीता बताओ, कर्म का क्या फल नहीं है? Maahir