प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- आम इंसां फ़ुज़ूल हो जैसे, वो चुनावों की धूल हो जैसे। मंच से झूठ बोलते वो यूँ , कोई ऊँचा उसूल हो जैसे । देश ख़ुद को ही वो बताते हैं, हर किसी को क़ुबूल हो जैसे। ज़िक्र आते ही यूँ लजाते वो, इक जवानी की भूल हो जैसे। देख कर उसको ख़ुश हुए हैं गिद्ध, पेड़ ऊँचा बबूल हो जैसे। ज़िम्मेदारी से दूर रहते वो, आज यह सब फ़ुज़ूल हो जैसे। मस्लेहत खिल रही है हर सू अब, वो सियासत का फूल हो जैसे। मलूल=जिसे मलाल(दुख,पश्चाताप)होता है,मस्लेहत=व्यावहारिक,शातिरपन,काइयांपन,सू=दिशा में