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Ghazal-123

प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- जब उसके रास्ते में हम भवन अपने बनाते हैं, नदी के एक दिन दोनों किनारे बोल जाते हैं। बुरा जब वक़्त आए तो,जो करना सोच के करना, कि ऐसे में कई अपने सहारे,बोल जाते हैं। बुढ़ापे में,ज़रूरत जब अधिक होती है सेवा की, ज़ियादा जो बना करते दुलारे,बोल जाते हैं। समझ वाले समझ जाते ज़रा सा ग़ौर करते ही, ज़ुबाँ गर चुप रहा करती,नज़ारे बोल जाते हैं। किसी भी काम में विश्वास जब भी डगमगाता है, सभी तब बाल-ओ-पर यारो हमारे बोल जाते हैं। बाल-ओ-पर=यहाँ भावार्थ है सामर्थ्य बहस में जाति-पंथों के किसी मुद्दे पे जब आते, बहुत जो ख़ास बनते हैं तुम्हारे,बोल जाते हैं।

Ghazal-122

प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- दूर करने को बलाएं आजकल की, कुछ मदद लेनी पड़ेगी अब अनल की। झूठ उनका खिलखिला के हँस रहा जब, याद उनको आ रही है गंगाजल की। सत्य से आँखें चुराकर मीडिया अब, दे रहा है बस ख़बर अब लग्नफल की। बात हक़ की कर रहा जो भी उसे तो मिल रही धमकी मुसलसल रायफल की। पीढ़ियों की अब उन्हें चिंता कहाँ है, सोचते हैं वो महज बस आजकल की। बागबाँ की मस्लेहत को देखकर अब, रूह कांपी दोस्तो हर फूल-फल की। स्वार्थ का गहरा कुहासा छा रहा है, अब हवा से गंध आती है गरल की। बात दिल की आप तक पहुँचा सके बस इसलिए ही ली मदद उसने ग़ज़ल की। सोचता,लिखता है अब दिनरात'maahir', फ़िक्र से है आँख जो उसने सजल की।

Ghazal-121

प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- आम इंसां फ़ुज़ूल हो जैसे, वो चुनावों की धूल हो जैसे। मंच से झूठ बोलते वो यूँ , कोई ऊँचा उसूल हो जैसे । देश ख़ुद को ही वो बताते हैं, हर किसी को क़ुबूल हो जैसे। ज़िक्र आते ही यूँ लजाते वो, इक जवानी की भूल हो जैसे। देख कर उसको ख़ुश हुए हैं गिद्ध, पेड़ ऊँचा बबूल हो जैसे। ज़िम्मेदारी से दूर रहते वो, आज यह सब फ़ुज़ूल हो जैसे। मस्लेहत खिल रही है हर सू अब, वो सियासत का फूल हो जैसे। मलूल=जिसे मलाल(दुख,पश्चाताप)होता है,मस्लेहत=व्यावहारिक,शातिरपन,काइयांपन,सू=दिशा में

Ghazal-120

ये मेला पांच वर्षों का (ग़ज़ल ) दरीचे बन्द कर दो सब , अंधेरे आ रहे यारो । ये मेला पांच वर्षों का , लुटेरे आ रहे यारो ।। कभी कंबल , कभी साड़ी , कभी मदिरा तुम्हें देते , तुम्हें राजा से भिखारी , बनाने आ रहे यारो । ये मेला ------------------------------।। लूटते लाज नारी की, देखो हैवानियत इनकी! बेटी बचाओ आंदोलन, आगे ला रहे यारो। ये मेला ----------------------------- ।। ये करते वोट का सौदा, जाति-भाषा के बल पर! बहन-भांजी के चीर खींचें , अनुष्ठान कर रहे यारो । ये मेला ----------------------------।। ये सन्तों की सुघर धरती, कालिमा पोतते इस पर! ऋचाऐं,आयतें,श्लोक, खंडित हो रहे यारो। ये मेला ----------------------------।। फ़िदा है लक्ष्मी पर सब, नहीं कल का ठिकाना है! सभी इंसान ख़ाली हाथ, जहां से जा रहे यारो । ये मेला -----------------------------।। यह सत्ता के गलियारों तक, राम को फ़िर से ले आए! भूलकर आज भारत को, नफ़रत फैला रहे यारो। ये मेला -----------------------------।। ये सोए पांच वर्षों तक, जनता ने जाग दिन काटे! जुगाली करके दोबारा, विचरने आ रहे यारो । ये मेला ---------------------------- ।। ग़ज़ल सलमा की सियासत के, रंग में,रंग नहीं सकती! सब की गाढ़ी कमाई से, यह पेंशन पा रहे यारो। ये मेला ---------------------------।।

Ghazal-118

प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- जब उसके रास्ते में हम भवन अपने बनाते हैं, नदी के एक दिन दोनों किनारे बोल जाते हैं। बुरा जब वक़्त आए तो, जो करना सोच के करना, कि ऐसे में कई अपने सहारे, बोल जाते हैं। बुढ़ापे में, ज़रूरत जब अधिक होती है सेवा की, ज़ियादा जो बना करते दुलारे, बोल जाते हैं। समझ वाले समझ जाते ज़रा सा ग़ौर करते ही, ज़ुबाँ गर चुप रहा करती,नज़ारे बोल जाते हैं। किसी भी काम में विश्वास जब भी डगमगाता है, सभी तब बाल-ओ-पर यारो हमारे बोल जाते हैं। बाल-ओ-पर = यहाँ भावार्थ है सामर्थ्य बहस में जाति-पंथों के किसी मुद्दे पे जब आते, बहुत जो ख़ास बनते हैं तुम्हारे,बोल जाते हैं।

Ghazal-117

हाकिम को बेगाना समझे- लानत है, दुश्मन को जो अपना समझे, लानत है। बोल रहा जो पाक की भाषा- लानत है, मुल्क तोडते दुश्मन की भाषा, लानत है। हमने भी चिट्ठी लिक्खी है हाकिम को, जो बच्चो को बहकाते उन पर लानत है। जिसने दीवारों पर लिक्खा, मुल्क तोडना, वो जिन्दा अब तक घूम रहे हैं, लानत है। गुलशन मे काँटे बोते, फूल तोड कर, नागफनी की खेती करते, लानत है। मुफ्त के टूकडो पर पलते, आग लगाते, सम्प्रदायिकता का जहर घोलते, लानत है। मानवता को हमने माना सदा सनातन, दानव अब भी खुले घूमते, लानत है‌ बच न पायें अलगाववादी इस मुल्क मे, सी सी टी वी से पहचानो, वर्ना लानत है। सेना पर भी पत्थर मारें, आग लगाने वाले, देशद्रोही जिन्दा घूमें, हाकिम पर लानत है। सेना के सौदों में दलाली, सियासत करते, भ्रष्टाचारी अराजक तत्वों पर लानत है

Ghazal-116

प्रस्तुत है एक ताज़ा ग़ज़ल- चैन तो इक पल नहीं है, दिख रहा कुछ हल नहीं है। क्यों वो दें उसको तवज्जो, जिसका कोई दल नहीं है। दल सभी हैं एक जैसे, किसमें कुछ दल-दल नहीं है? वो उसे बेकार कहते, जिसमें कोई छल नहीं है। आज तक हिंसक है इंसां, कौन सच में खल नहीं है? युग है कलि का इसलिए क्या, आमजन को कल नहीं है? हादसे पर हादसे हैं, पर कहीं हलचल नहीं है। अब सियासत में कहीं भी, रास्ता समतल नहीं है। हादसों पे चुप रहूँ मैं? दिल मेरा मरुथल नहीं है। अपनी पे आ जाए फिर तो, कोई भी निर्बल नहीं है। बांच कर गीता बताओ, कर्म का क्या फल नहीं है? Maahir

Rasleela Nathdwara Style | Twin Eternals - Matter & Energy

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