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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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8:19 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
अनोखीबाई अनोखीबाई की आदत थी बात से बात निकालना और फिर उसे फिरकी पर चढ़ाकर सूत की तरह कताई करना। जब तक वह हर किसी की जड़ें न खोद लेती उसे चैन न पड़ता। सुबह तक वह सबसे पहले अखबार उठा लेती और सोये हुए पति के मुंह से मक्खियां उड़ाते हुए बेपर की उड़ाने लगती। कोई बुरी खबर होती तो चिल्लाने लगती,देखो तो संसार में अनार्थ हो रहा है,एक तुम हो जो अब तक सो रहे हो। यह देखते हो कोई रोहिणी चक्कर काटने लगी है धरती के।यहां आवे तो नासपीटी की हड्डी-पसली एक कर दूं। अनोखीबाई के पति शामतलाल की शामत तो उसी शाम आ गयी थी जिस दिन उन्होंने शादी का फंदा गले में डाला!अनोखीबाई के माता-पिता परिचित थे। वे शामतलाल को समझाते हुए बोले थे,बेटा!अब तुम ही ध्यान रखना।‘ शामतलाल का तभी माथा ठनका और उसने घूंघट में से ताकती-झांकती आँखों में हाथ-पांव मारने शुरू कर दिये थे।अनोखी बाई के मधुर स्वभाव से आस पड़ोस को परिचित होने में शायद देर लगी हो, पर शामतलाल को कुछ घंटे में ही सब समझ आने लगा था। इसीलिए पहले दिन से ही वे अपनी प्रिय धर्म पत्नी के लिए चाय बनाने लगे।अनोखीबाई उन्हें बदले में ताजा समाचार सुनाती।समाचारों पर अपने कमेंट देती और शाम को जब शामतलाल लौटकर आते तो वह फिर उनका मगज चाटना शुरू कर देती।शाम की चोरी या डकैती की ताजा खबरें वह चाय के साथ ऐसे पेश करती जैसे पति को गरमागरम समोसे या कचौरी दे रही हो। एक दिन शामतलाल लौटे तो अनोखी बोली, ‘’सुनते हो जी वह अन्नपूर्ण के घर डाकू आए और पच्चीस हजार के जेवर ले गए।‘’ शामतलाल घबराए से बोले,‘’तब तो बहुत बुरा हुआ।‘’ ‘’बुरा?अरे इस अन्नपूर्ण के घर तो कभी फूटी कौड़ी नहीं होती।नकली गहने,नकली मोती और मिलावट उसका पहला धर्म है।पच्चीस हजार ताकती जेवर की तो बात ही छोड़ो,उसके घर एक सुच्चा छल्ला भी नहीं! मैं तो कहती हूं चोर डाकुओं को ये अखबारें पढ़कर अपना स्टेटमेंट देना चाहिए।बताना चाहिए कि खबर झूठ है।इसके घर तो कानी कौड़ी न पाकर चोरों ने सिर पीट लिया होगा।या फिर दया आई हो तो वे कुछ माल भी छोड़ गए हों।मैं अन्नापूर्णा को खूब जानती हूँ।'' शामतलाल ने अनोखीबाई की इस अनोखी बात पर एक ठण्डी सांस भरते हुए कहा, ’शुक्र है तुम किसी चोर या उठाईगीर की बीबी नही,वरना तुम तो सलाह देकर उसकी ऐसी मति फेर देती कि वह बेचार अपना भांडाफोड करके जेल की हवा खा रहा होता।‘’ हवा खाने की बात पर अनोखीबाई की नजर अखबार में पंखे से लटक-कर आत्महत्या करने वाले तीन व्यक्तियों पर पड़ गई।अब तो शमतलाल की शाम के चाय पानी का भी स्कोप खत्म हो गया।अनोखी वहीं धम्म से बैठ गई और बोली,’समझ नहीं आता कि इस उमस भरी गर्मी में,लोगों को हवा खाने का इना चाव चढ़ता है कि वे पंखे से ही लटक जाते हैं।यह देखो जी, अनोखी ने फिल्मी हीरोइनों की पंखों से लटकने वाली कतरनें सम्मुख रख दीं। फिर बोली,’अच्छा यह तो कहो जब मरने के लिए उमदा से उमदा तरीके मौजूद हैं, ऊंची से ऊंची हैं तो फिर यह पंखों से लिपट मरने का शोक क्यों सिर पर सवार होने लगा है।हर रोज कितने ही पंखे से लटके लोग मिलते हैं। गोया पंखे का काम हवा देना न होकर लोगों को लटक जाने की प्रेरणा देना हो गया। पंखें से साड़ी लटकाना,साड़ी का फंदा गले में डालना,क्या है यह सब?’’ शामतलाल बोले–‘’सारा धंधा साड़ी के फंदे से शुरू होता है। हर रोज नयी साड़ी की मांग,बढ़ती महंगाई,सबका गला घोंट रही है।‘’पर अनोखी ने शामतलाल की बात तेजी से काटते हुए कहा–’साड़ी का फंदा किसी को नहीं मारता।यह तो रेशमी जकड़ है।बात कुछ और ही लगती है।एक बात बताओ,ये सब लोग किसी कम्पनी के पंखे से लटके हैं।आज तक तो किसी कंपनी का यह विज्ञापन नहीं सुना,हमारी कंपनी के पंखे खरीदिए,लटक जाएं तो भी पंखे को आंच न आए,बढि़या मजबूत टिकाऊ पंखे!असल में लोडशैडिंग अगर इतनी ज्यादा रही तो पंखे हवा देने की बजाय सिर्फ इसी काम के लिए रह जाएंगे।‘’ फिर अनोखीबाई ने सिर उठाकर अपने छत के पंखे को गौर से देखा।जब से इस घर में यह पंखा आया था, भली प्रकार चल न पाया था।गर्मियों में प्रात: बत्ती बंद रहती और बंद न भी होती तो पूरा फ्यूज उड़ जाता। अनोखी को बार-बार लगता था कि न चलने की वजह से शायद यह पंखा भी बेकार हो चुका हो जैसे किसी के घुटने जुड़ गए हों। यही सोचकर वह फिर बोली, ‘’सुनते हो जी,मैं तो सोचती हूं कि यह तीन पंख वाला पंखा,एक जरा-सी हत्थी के सहारे तो खड़ा है,इससे कोई लटक ही कैसे सकता है।‘’ ‘’अनोखीबाई को एकटक पंखे को निहारते देख शामतलाल का माथा ठनका।वे बोले,‘’लटकने वाली तो लटक गई पर पीछे वालों को तो उमस भरी गर्मीं में तड़पने को छोड़ गई। पंखा तो फिर भी पंखे वाले से सुधर सकता है।‘’ शामतलाल ने अनोखीबाई की आंखों में बढ़ती हुई उत्सुकता देखी तो उन्हें खटका लगा। वे तुरंत बोल उठे,‘’दरअसल यह पंखे से लटकने का माजरा ही कुछ और है। तुम मत सोचो वरना मेरी मुसीबत हो जाएगी। तुम्हारी यह ढाई मन की देह पंखा बेचारा नहीं संभल पाएगा। और पंखे के साथ-साथ छत भी नीचे होगी। तुम एक हाथ में छत थामे दूसरे हाथ में उस गरीब पंखे के पंखों को,मुर्गे के पंखों की तरह तोड.,मरोडकर,मेरी राह में आंखें बिछाए खड़ी होगी और तुम तो जानती हो आजकल छतें बन पाना कितना महंगा पड़ता है।‘’ और उस दिन से शामतलाल हर रोज अपने कमरे में लगे इकलौते पंखे के लिए प्रार्थना करके जाते हैं। और दफतर से आते ही उसे सही सलामत पाकर खुदा से पंखे की लम्बी उमर के लिए खैर मनाते हैं!
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