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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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8:10 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
चोरों के हाथ नहीं धूजते डकैतों के हाथ नहीं धूजते बलात्कारियों के हाथ नहीं धूजते धन पशुओं के हाथ नहीं धूजते मुझे अच्छे लगे मेरे प्रधानमंत्री के वे धूजते हुए हाथ जिन्होंने संभाल रखा है हमारी अपेक्षाओं का लौह-भार धूजने चाहिए थे पहले के प्रधानमंत्रियों के हाथ लेकिन वे बहुत कम धूजे क्योंकि धूजने वाले हाथों के लिए चाहिए बहुत संवेदनशील हृदय! जब भी धूजे हैं हाथ मेरे देश के प्रधानमंत्रियों के शुभ ही हुआ है हर काम! जब भी नहीं धूजे हैं हाथ मेरे देश के प्रधानमंत्रियों के अशुभ ही हुआ है कुछ न कुछ! मुझे पता है : नेहरू जी के हाथ नहीं धूजे थे जब उन्होंने चीन से हाथ मिलाया था! इंदिरा जी के हाथ नहीं धूजे थे जब अमरीका ने दिखाई थी आँख! राजीव जी के हाथ नहीं धूजे थे जब उतार दिए गए थे लंका के जंगलों में हमारी मासूम सेनाओं के जत्थे! वाजपेयी जी के हाथ धूजे थे, जब पोकरण में हुआ था विस्फोट! जब कारगिल से लौटे थे शहीदों के शव जीत का झंडा लहरा कर! मनमोहन जी के हाथ धूजने न धूजने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि दस सालों तक हम उनके हाथ ही ढूंढ़ते रहे! मोदी जी के धूजते हुए हाथों को देखकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई मुझे सचमुच ऐसा लगा जैसे भारत नाम का चिरंतन युवा बालक अपने अभिभावक के हाथ से निवाला खा रहा भगवान करे जो भी प्रधानमंत्री बने उसके हाथ धूजते रहें ! कवियों के हाथों में हो धूजती हुई कलम! चित्रकारों के हाथों में धूजती हुई कूँची! वाद्यकारों के हाथों में हो धूजते हुए हारमोनियम तबले और गिटार! धूजते हुए हाथ कमज़ोरी या बीमारी नहीं ताक़त और स्वास्थ्य का प्रतीक हैं ! यह धूजते हुए हाथ ही बताते हैं कि बक़ौल अनवर शुऊर-- "शहपारा बन रहा है अभी बन नहीं गया" मोदी जी और कुछ बरसों तक धूजते रहने दीजिये अपने हाथ! यदि यह अभिनय भी है तब भी इस अभिनय के हम भारत के नागरिक आपको सौ में से एक सौ दस अंक देते हैं ! अभी कई ध्वज हैं जो ज़मीन में गड़े हैं, इन्हें उठना है मंदिरों के शिखरों तक! और मंदिरों को उठना है गहरी नींद से,जो कम से कम हज़ार पांच सौ बरस पुरानी है! --- यह धूजते हुए हाथ यह धूजते हुए हाथों के सफ़ेद रोम यह आँखों में सदियों के स्वप्न का उबलता जल यह चेहरे पर एक संकल्प की सिद्धि की संतुष्टि वसूल हो गया हमारा एक एक वोट! धूजते हुए हाथों से पूरी करता हूँ यह कविता! लड़खड़ाती हुई साँसों से पहुँचता हूँ अपने ही हस्ताक्षर तक! अराजक समकालीन कविता को देता हूँ नागरिक बोध का संस्कार! पुरस्कारों को दिखाता हूँ, अपने ललाट पर जड़ित, स्वाभिमानी दर्पण में उनका चेहरा! उछालता हूँ फूल ही फूल अभिनन्दन और तलवे चाटने के बीच खींचता हूँ,एक बहुत महीन लक़ीर हे ईश्वर! जिस दिन मेरे प्रधानमंत्री में हाथ नहीं धूजें मुझे साहस देना कि लिख सकूं एक बेहद ख़तरनाक कविता, और चीख़ सकूं रामधारी सिंह दिनकर के शिल्प में- "सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है!"
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