ग़ज़ल- मुखौटों को लगाना तो,सियासी होशियारी है, अदाकारी पे जनता दिल हमेशा से जो हारी है। विवादित कुछ बयां देते हैं वो,सब सोच के यारो, हमें मुद्दों से भटकाने की ये इक होशियारी है। उचित अवसर के आने तक बचाने के लिए ख़ुद को, रणों को छोड़ने की राह दिखलाता “मुरारी” है। ग़रीबी गर ठहर जाती है लम्बे वक़्त तक,तो फिर, उन्हें लगने ये लगता है,यही क़िस्मत हम!री है। किसी मुर्गे सा मक़्तल में नज़र वो फेर लेता है, नहीं जो जानता आगे उसी की ही तो बारी है। बुझेगी आग भी जब जल चुकेगा फूस यह 'Maahir' बचा है फूस जब तक, बस तभी तक आग जारी है।